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[PDF] Harivansh Puran PDF | हरिवंश पुराण

महाभारत में लिखा है कि - जिन्हें पुत्र नहीं है, उन्हें सद्गति प्राप्त नहीं होती। पुत्र प्राप्ति के लिए विविध प्रकार के विधान आज भी हमारे धर्म ग्रंथों में पाये जाते हैं। उनमें सर्वोत्तम उपाय हरिवंश पुराण के श्रवण की परंपरा है। यह परंपरा प्राचीन समय से भारतवर्ष में होती चली आ रही है। यह पुराण महाभारत का ही अंश है। ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से यदि जन्मकुंडली में संतानाभाव सूर्य के द्वारा दृष्ट, आविष्ट या बाधित हो तो निःसंदेह हरिवंश पुराण का नित्य शांत मन से श्रवण करना चाहिए। हरिवंश पुराण के श्रवण करने से जन्मकुंडली में प्राप्त संतानाभाव निःसंदेह समाप्त होता है। श्रोता को जो फल 18 पुराणों के श्रवण से प्राप्त होता है, वह मात्र हरिवंश पुराण के श्रवण से प्राप्त हो जाता है। आप Bhavishya Puran की भांति गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित Shri Harivansh Puran PDF download कर पढ़े.. ⤋⤋


Harivansh Puran in Hindi PDF | हरिवंश पुराण

Harivansh Puran in Hindi PDF
PDF Name हरिवंश पुराण | Harivansh Puran Hindi PDF
No. of Pages 1421
PDF Size 88.1 MB
PDF Quality High
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मित्रों, वैसे तो हरिवंश पुराण कतिपय प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित किया गया है; किन्तु गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित हरिवंश पुराण की यह विशेषता है कि इसमें आवश्यक स्थलों पर टिप्पणियों का समावेश है। इसकी भाषा अत्यन्त सरल रूप से प्रस्तुत की गई है, जिसे पढ़ने में किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं आ सकती। आप हरिवंश पुराण के साथ निम्नलिखित पुराणों को भी download कर पढ़ सकते हैं-

  • संपूर्ण शिव महापुराण PDF
  • संपूर्ण विष्णु पुराण PDF
  • गरुड़ पुराण PDF

हरिवंश पुराण के कथाओं की सूची | List of stories from Harivansh Puran


अध्याय विषय
01 आदिसर्ग का पर्व
02 दक्ष के उत्पत्ति का वर्णन
03 मरुत् के उत्पत्ति का वर्णन
04 पृथु का उपाख्यान
05 पृथ्वी दोहन आदि का वर्णन
06 मनु का वर्णन
07 मन्वन्तर का वर्णन
08 मनु मन्वन्तर का वर्णन
09 बारह आदित्यों के जन्म का वर्णन
10 एला के उत्पत्ति का वर्णन
11 धुन्धु के वध का वर्णन
12 गालव की उत्पत्ति का वर्णन
13 त्रिशंकु के चरित्र का वर्णन
14 सगर के उत्पत्ति का वर्णन
15 आदित्यवंश का वर्णन
16 पितृकल्प का वर्णन
17 श्राद्ध के फल का वर्णन
18 पितृकल्प के घटक
19 सोम की उत्पत्ति का वर्णन
20 ऐल की उत्पत्ति का वर्णन
21 अमावसु के वंश का वर्णन
22 आयुवंश का वर्णन
23 कश्यप वंश का वर्णन
24 ययाति चरित्र का वर्णन
25 आयुवंश का वर्णन
26 पुरुवंश का वर्णन
27 यदुवंश वर्णन और कार्तवीर्य अर्जुन की उत्पत्ति का वर्णन
28 वृष्णि वंश का वर्णन
29 कृष्ण जन्म का वर्णन
30 जनमेजय वंश का वर्णन
31 कुक्कुर वंश का वर्णन
32 श्रीकृष्ण को झूठे शाप का वर्णन
33 स्यमन्तक मणि के लिये श्रीकृष्ण द्वारा शतधन्वा का वध
34 वराह के उत्पत्ति का वर्णन
35 योगेश्वर स्वरूप विष्णु के अवतार का वर्णन
36 विष्णु के ईश्वरत्व का वर्णन
37 दैत्य सेना के विस्तार का वर्णन
38 देवसेना के विस्तार का वर्णन
39 देवासुर संग्राम का वर्णन
40 देवताओं द्वारा दैत्यों की विफलता
41 कालनेमि के साथ देवताओं का युद्ध
42 वैशम्पायन से जनमेजय का विष्णु विषयक प्रश्न
43 पृथ्वी के दुख से दुखी ऋषियों का ब्रह्मलोक की यात्रा
44 विष्णु-देवताओं के संवाद का वर्णन
45 विष्णु के प्रति पृथ्वी के वचन
46 देवताओं के अंशावतार का वर्णन
47 नारद के वाक्य का वर्णन
48 ब्रह्मा के वाक्य का वर्णन

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, नरस्वरूप नरों में उत्तम अर्जुन, भगवती सरस्वती एवं महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके इतिहास-पुराण और महाभारत का पाठ करना चाहिए। श्री वेदव्यास के ओष्ठ से निकले हुए उपमा रहित पुण्य को देनेवाले, पापों के नाशक व कल्याणदायक महाभारत को पढ़ते हुए जो मानव श्रवण करता है, उसे पुष्कर तीर्थ में स्नान करने से अधिक पुण्य महाभारत को सुनने से प्राप्त होता है।

सौति ने कहा - जिस वेदव्यास के मुखारविन्द से निकले हुए अमृत को संसार पान करता है, ऐसी सत्यवती के हृदय को आनन्द देनेवाले ऋषि पराश्र के पुत्र श्रीव्यासजी की जय हो। जो पुरुष स्वर्ण से मढ़ी हुई सींगों वाली एक सौ गौवों का दान वैदिक एवं बहुश्रुत ब्राह्मण के लिये देता है। जो मनुष्य पुण्य को देनेवाली महाभारत की कथा श्रवण करता है, इन दोनों का ही पुण्य फल एक तुल्य ही है। सौ अश्वमेघ यज्ञ से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा चार सहस्त्र शतक्रतु यज्ञ से जो पुण्य प्राप्त होता है, ऐसे अनन्य पुण्य हरिवंश पुराण के दान से प्राप्त होते हैं, महर्षि वेदव्यास ने ऐसा कहा है- जो फल वाजपेय यज्ञ व राजसूय यज्ञ से प्राप्त होता है और जो फल हाथी एवं रथ के दान से प्राप्त होता है, वही फल हरिवंश पुराण के दान से प्राप्त होता है। इसमें व्यासजी का वचन ही प्रमाण है तथा महर्षि वाल्मीकिजी का भी यही वचन है। जो महातपस्वी पुरुष विधिपूर्वक हरिवंश का लेखन करता है, वह हरि के चरणारविंद को वैसे ही प्राप्त कर लेता है, जिस प्रकार लोभी भ्रमर पुष्प रस को प्राप्त कर लेता है।

जो ब्रह्मा के भी आदि कहलाते हैं तथा छठें आदि कहलाते हैं, जो अक्षय कीर्ति से युक्त एवं नारायण के अंश से उत्पन्न एकमात्र पुत्र वाले वेद के भण्डार व्यासजी का मैं स्मरण करता हूं। जो आदि पुरुष ईशान पुरूहुत पुरूष्टुत सत्य ॐ रूप एकाक्षर व्यक्त तथा अव्यक्त भी, सनातन असत् सद्सत् विश्वरूप सदसत् से परे संसार के सृष्टिकर्ता हैं।

जो पुराण पुरुष अविनाशी मंगलमय मंगलस्वरूप विद्वानों से वर्णित निष्पाप एवं परम पवित्र भगवान विष्णु जो चराचर संसार के गुरु हरि हैं, उनको नमस्कार करके नैमिषारण्य के कुलपति महामुनि शौनकजी ने सर्वशास्त्र कुशल धर्मात्मा सूत के पुत्र से पूछा। शौनकजी ने कहा- सूतपुत्र! आपने भरतवंशी राजाओं का सुन्दर एवं बृहद्कथा कही तथा देवता, दानव, गन्धर्व, सर्प, राक्षस, दैत्य, सिद्ध एवं गुह्यकों की कथा एवं अति अद्भुत कर्म तथा पराक्रमों एवं उनके धर्म निश्चयों को भी कहा, साथ ही उनके अग्नि आदि द्वारा बिना वीर्य संबंध के उनके जन्म की विचित्र कथा कही।

आपने अपनी मधुर वाणी द्वारा पुराणों का भी वर्णन किया, जो मन और कानों को सुख देने वाला मुझे अमृत के समान सुखदायक है। लोमहर्षण के पुत्र, आपने कुरु वंश की उत्पत्ति का वर्णन किया, पर वृष्णि तथा अन्धक वंश का वर्णन नहीं किया, अतः इनका भी वर्णन करें। सूत पुत्र ने कहा - जनमेजय के पूछने पर धर्मज्ञ व्यास के शिष्य ने जिस प्रकार वर्णन किया, उसी प्रकार वृष्णिवंश का मैं आदि से वर्णन करता हूं।

भरतवंशियों के सम्पूर्ण इतिहास को सुनकर महाबुद्धिमान जनमेजय ने वैशम्पायनजी से कहा - वेद का विस्तार है, जिसमें ऐसी तथा अन्यान्य अर्थों वाली महाभारत की कथा मैंने आपसे विस्तारपूर्वक सुनी। उसमें आपने वृष्णि एवं अन्धकवंश के महारथियों के नाम, कर्म एवं शूरता का वर्णन किया। द्विजोत्तम! उनके पुरुषार्थों का कहीं-कहीं संक्षेप से कहीं-कहीं विस्तार से वर्णन किया। परन्तु इस पुरातन इतिहास को सुनने से मुझे तृप्ति नहीं हुई। वृष्णि एवं पाण्डव एक ही कुल के माने जाते हैं। तपोधन आप वंशावली के वर्णन में कुशल हैं तथा प्रत्यक्षदर्शी भी हैं। अतः वृष्णिवंश का विस्तार से वर्णन कीजिये।

महामुने! प्रजापति से और उनके भाइयों को शतधन्वा के द्वारा मरवाकर अक्रूर अंधकवंशियों को साथ लेकर भाग गए, परन्तु श्रीकृष्ण ने जाति में मतभेद पड़ने के भय से उनकी उपेक्षा कर दी, किन्तु अक्रूर के चले जाने पर अदितिपुत्र इन्द्र ने वर्षा करना बंद कर दिया। तब अनावृष्टि के कारण वहां की प्रजा अन्नभाव से दुर्बल हो गई, इसलिये कुकुर तथा अन्धकवंशियों ने अक्रूर को प्रसन्न करने के लिये अक्रूर ने अपनी बहन उनको ब्याह दी, जो कि शील और गुण से युक्त थी। फिर श्रीकृष्ण ने योग से जान लिया कि मणि अक्रूर के पास है, तब सभा में उपस्थित अक्रूर से कृष्ण ने कहा। विभो! जे मणि आपके पास है, उसे सम्मान के साथ मुझे दे दें इसमें अनार्यता न करें। अनघ! जो क्रोध हमको साठ वर्ष पहले चढ़ा था वह चिरकालीन क्रोध अभी उतरा नहीं है।

इस प्रकार श्रीकृष्ण के वचनों को सुनकर सात्तवों की सभा में महामति अक्रूर से मणि को प्राप्त कर प्रसन्न होते हुए श्रीकृष्ण ने अक्रूर को वही मणि वापस दे दी। तब श्रीकृष्ण के हाथ से प्राप्त स्यमन्तकमणि को गले में बांधकर अक्रूर सूर्य की भांति शोभायमान हो गये।

मित्रों, जो मनुष्य इस कथा यानी Harivansh Puran PDF को पवित्र हृदय से प्रतिदिन एकाग्रचित्त से श्रवण करेगा, वह समस्त प्रकार के सखों को निःसन्देह प्राप्त करेगा। नृपश्रेष्ठ! ब्रह्मलोक पर्यन्त संपूर्ण भुवनों में उसकी कीर्ति फैल जायगी, यह मैं सत्य कहता हूं, इस विषय में किसी भी प्रकार का संदेह न करना।

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