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[PDF] Hanuman Chalisa PDF in Hindi | हनुमान चालीसा अर्थ सहित

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री हनुमान जी की वंदना एवं उनकी सेवा के लिए हनुमान चालीसा का पाठ अर्थ सहित यहां दिया जा रहा है। इस चालीसा का प्रतिदिन पाठ करके आप हनुमानलला के परम भक्त बन सकते है। संपूर्ण Hanuman Chalisa in Hindi PDF सुन्दर चित्रों एवं अर्थ सहित यहां से डाउनलोड करें- DOWNLOAD

श्री हनुमान चालीसा के पाठ से आपके मन की दृढ़ इच्छा, आत्मनिष्ठा, आस्था एवं आत्मशक्ति में अवश्य वृद्धि होगी।


संपूर्ण हनुमान चालीसा | Hanuman Chalisa Hindi Lyrics


Hindi PDF of Hanuman Chalisa

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गोस्वामी तुलसीदास और हनुमान चालीसा | Tulsidas and Hanuman Chalisa


हिंदूमात्र का प्रिय ग्रंथ श्रीरामचरितमानस कहते हैं, श्री हनुमान जी की प्रेरणा से ही श्री तुलसीदास जी ने उसकी रचना प्रारम्भ की और वे पद-पद पर उनकी सहायता करते गये। श्री तुलसीदास जी का जीवन भी इसका साक्षी है। प्रसिद्ध है के वे नित्य शौच से लौटते समय शौच का बचा जल एक बेर के वृक्ष-मूल में डाल देते थे। उस पेड़ पर एक प्रेत-आत्मा रहता था। प्रेतयोनि की तृप्ति ऐसी ही निकृष्ट वस्तुओं से होती है। प्रेत आत्मा उस अशुद्ध पानी से खुश हो गया। एक दिन उसने प्रकट होकर श्री तुलसीदास जी से कहा, "मैं आपके इस कार्य पर अति प्रसन्न हूं। बताइए, आपकी क्या सेवा या मदद करूं?"

'मुझे श्री रघुनाथ जी के दर्शन करा दो।' श्री तुलसीदास के कहने पर प्रेत ने उत्तर दिया - "यदि मैं रघुनाथ जी का दर्शन करा सकता तो अधम प्रेत ही क्यों बना रहता, किन्तु मैं आपको समस्या का समाधान का तरीका बता सकता हूं। अमुक स्थान पर श्री रामायण की कथा होती है। वहां सर्वप्रथम वृद्ध के वेष में श्री हनुमान जी नित्य पधारते है और सबसे दूर बैठकर कथा सुनकर सबसे पीछे जाते है। आप उनके चरण व पैर पकड़ ले। उनकी कृपा से आपकी लालसा पूर्ण हो सकती है।"

तुलसीदास जी उसी दिन श्री रामायण की कथा में पहुंचे। उन्होंने वृद्ध कुष्ठी के वेष में श्री हनुमान जी को पहचान लिया और कथा की समाप्ति के बाद उनके चरण पकड़ लिये। श्री हनुमान जी गिड़गिड़ाने लगे, किंतु श्री तुलसीदास जी की निष्ठा एवं प्रेमाग्रह से दयामूर्ति पवनकुमार ने उन्हें मंत्र देकर चित्रकूट में अनुष्ठान करने की आज्ञा दी। उन्होंने श्री तुलसीदास जी को प्रभु-दर्शन कराने का वचन दे दिया।

Shri Hanuman जी की कृपा का प्रत्यक्ष फल उदित होने लगा। श्री तुलसीदास जी चित्रकूट पहुंचे और अंजना नंदन के बताये मंत्र का अनुष्ठान करने लगे। एक दिन उन्होंने अश्व पर आरूढ़ श्याम और दो कुमारों को देखा, किंतु देखकर भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया। श्री हनुमान जी ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर श्री तुलसीदास जी से पूछा - 'प्रभु के दर्शन हो गये न?'

'प्रभु कहाँ थे?' श्री तुलसीदास जी के चकित होकर पूछने पर हनुमान जी ने कहा - 'अश्वारोही कुमार, जो तुम्हारे सामने से निकले थे।'

'आह!' श्री तुलसीदास जी अत्यंत व्याकुल हो गये - 'मैं प्रभु को पाकर भी उनसे वंचित रहा।' छटपटाते हुए उनके दोनों आँखों से आँसू बह रहे थे और उन्हें अपने तन की सुध नहीं थी।

कृपामूर्ती श्री हनुमान जी ने उन्हें प्रेमपूर्वक धैर्य बंधाया - "तुम्हें पुनः प्रभु के दर्शन हो जायेंगे।" और दयाधाम श्री मारुति की कृपा से उन्हें परम प्रभु श्री राम के ही नहीं, राज्य- सिंहासन पर आसीन भगवती सीता सहित श्री राम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न के साथ सुग्रीव और विभीषण आदि सखा तथा वसिष्ठ आदि समस्त प्रमुख जनों के भी दर्शन प्राप्त हो गये।

कृपामूर्ति हनुमान जी की कृपा से प्रभु की इस अपूर्व छटा का ही दर्शन कर श्री गोस्वामी जी कृतार्थ नहीं हुए, अपितु मंदाकिनी के पावन तट पर उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण को अपने हाथों चंदन घिसकर तिलक भी कराया। मानस-मर्मज्ञ कहते है कि श्री रामचरितमानस की रचना के समय श्री तुलसीदास जी को कठिनाई का अनुभव होते ही कृपामूर्ति श्री हनुमान जी स्वयं प्रकट होकर उनको सहायता किया करते थे।

परम प्रभु श्री राम का दर्शन समस्त लौकिक-पारलौकिक सुखों का मूल है। श्री राम की प्रेमा-भक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं है और उस प्रेम-भक्ति की प्राप्ति काम आदि से ग्रस्त हम सांसारिक जीवों को सहज नहीं। दयामय प्रभु की कृपा दृष्टि पड़ जाती है, प्रभु एवं उनकी प्रेमा-भक्ति को प्राप्त कर लेता है और कृपामूर्ती श्री हनुमान जी इसके लिए प्रतिक्षण प्रस्तुत है।

जीवमात्र को प्रभु के मंगलमय चरण-कमलों में पहुंचाकर उसका कल्याण करने के लिए वे अधीर रहते हैं, किन्तु हमारी ही प्रभु-प्राप्ति की इच्छा नहीं होती। हम वासनाओं के प्रवाह में आकण्ठ-मग्न होकर सुख का प्रत्यक्ष ज्ञान कर रहे है। इनसे पृथक होना ही नहीं चाहते। गदाधारी कृपामय हनुमान जी की ओर झाँकना भी नहीं चाहते, इसी कारण वे दयाधाम विवश हो जाते हैं। उनकी इच्छा अपूर्ण व खाली रह जाती है।

संतुष्ट होने पर हनुमान जी को जीव का परम कल्याण करते देर नहीं लगती, पर उन्हें संतुष्ट करने की इच्छा हो तब न। आजन्म ब्रह्मचारी हनुमान जी सदाचार, धर्म-पालन, ब्रह्मचर्य-पालन, दीन-दुखियों की सेवा-सहायता, शास्त्रों, संतों, महापुरुषों, भक्तों एवं भगवान के प्रति श्रद्धा, विश्वास एवं प्रीति से सहज ही तुष्ट हो जाते है और अपने नित्य सहचर श्री हनुमान जी के संतुष्ट होते ही श्री रघुनाथ जी तत्क्षण प्रसन्न हो जाते है। मारुति की प्रसन्नता में ही जीवन और जन्म की सार्थकता तथा सफलता है।

अनन्त मगलालय कृपामूर्ती अंजनानंदन का पावन चरित्र वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण और पुराणों में विस्तारपूर्वक गया है। वे कृपामूर्ती महावीर हनुमान जी कृपा करें!

संकटमोचन हनुमान चालीसा और मन की शक्ति


यह विश्व कर्ममय है। प्रकृति भी अपनी स्वाभाविक गति से अपने कर्म में सदैव तत्पर रहती है। कर्म ही गति है अंततः कर्म ही जीवन है। यदि मनुष्य कर्म नहीं करता है, तो उसे कदापि किसी भी प्रकार की उपलब्धि जीवन में नहीं हो सकती है। कर्म का परिणाम फल प्राप्ति है। कर्म करने से पहले काम के लक्ष्य को तय किया जाता है। प्रायः यह देखा जाता है, कि कभी-कभी जिस लक्ष्य को लेकर कर्म किया जाता है, वह प्राप्त नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य निराशा और अवसाद में घिर जाता है। वह भाग्यवादी बन कर सोचने लगता है कि कर्म से नहीं भाग्य से ही सभी कुछ प्राप्त होता है।

प्रायः निराश होकर भीरू लोग जीवन के प्रति निराश हो जाते हैं और आत्महत्या तक कर डालते हैं। वस्तुतः यह भय और आत्महत्या निराशा के परिणाम हैं। फल की प्राप्ति बहुत आसक्ति या मोह रखने पर भी यह स्थिति हो जाती है। जीवन में सफलता और असफलता का क्रम भी रात-दिन की भांति है। घनी काली रात्रि सदैव नहीं रहती है, दिन की उजली धूप नया संदेश लेकर प्रति सुबह आती है।

मानसिक शक्ति और चिंतन :- मानव की समस्त गतिविधियां, इच्छाओं, संकल्प और विकल्प का केंद्र बिंदु मानव का मन ही है। गीता में भी श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया है कि मन एक रथ में जुते हुए शक्तिशाली अश्व की भांति है। मनोविज्ञान के अनुसार भी मानव के व्यक्तित्व के निर्माण में मन अथवा मानसिक शक्ति महत्वपूर्ण कार्य करती है। मन के कारण ही उसे 'मनुज' और मानव संज्ञा भी दी जाती है।
Sankat Mochan and Lord Ram
जिस प्रकार रेल के इंजन में ऊर्जा के कारण ही रेलगाड़ी में जुते हुए इतने डिब्बे सरलता से चल पड़ते है, इसी भांति मानव की गतिविधियों और व्यवहार को मानसिक शक्ति ही प्रेरित करती है, संचालित करती है। मन की शक्ति स्वाभाविक होती है। जीवन धारण करने और जीवन की वृद्धि तथा विकास के साथ यह मानसिक शक्ति बनी रहती है। पशु-पक्षियों अथवा अन्य जीवधारियों में मानसिक शक्ति का विकास उस रूप में नहीं होता है। इसलिए मनुष्य उन्हें अपनी इच्छानुसार नियंत्रित भी कर सकता है।

मन की शक्ति अजेज्ञ है और मन का दुर्ग बहुत ही शक्तिशाली है। मन कभी भी शांत और चुप नहीं रहता है, वह विश्राम नहीं करता है, किसी न किसी दिशा में सदैव चिंतन करता रहता है, गतिशील रहता है। जिस भांति ज्वालामुखी के अंदर प्रचंड लावा भरा रहता है, उसी भांति मन के पास भी संकल्प और विकल्प का लावा है। चिंतन शक्ति का केंद्र बिंदु मन है।

मन की गति स्वभाव से चंचल और स्वच्छंद होती है। इसे अभ्यास के द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है। मन के अनुसार चिंतन के सकारात्मक और नकारात्मक रूप होते हैं। हमारे सुख और दुखों का कारण भी मन ही बनता है। मन की अपराजेय शक्ति को चिंतन के सकारात्मक रूप में ढालने से व्यक्ति भी अपराजेय हो जाता है। यही चिंतन संकल्पशक्ति का रूप ले लेता है। यही चिंतन मनोरथ बनता है। कालिदास का कथन है - "ऐसा कोई स्थान नहीं जहां, मनोरथ की पहुंच न हो।"

मन की जीत और हार :- मन की जीत का अर्थ है - विश्व को जीतना, अर्थात मनुष्य जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है, बन सकता है। इसमें इतनी ऊर्जा और शक्ति है। इसके प्रचंड वेग, उसकी प्रचंड शक्ति को ही यदि जागृत किया जा सके तो मानव का पथ सदैव विजय की ओर बढ़ता है। कार्य करने के लिए हाथ तभी उठता है, जब उसमें स्पंदन होता है।

राजा ब्रूस की बहुत प्रचलित कहानी इस चिंतन को सकारात्मक रूप देती है। चींटी की विजय जब उसके मन को प्रेरित करती है, दृढ़ विश्वास, शक्ति जगाती है, उसके आत्मबल को चुनौती देती है, उसे ललकारती है तो चिंतन सकारात्मक होकर उसे विजयश्री प्रदान करता है। युद्ध स्थल में आग उगलती हुई तोपों के सम्मुख सैनिकों की संकल्प शक्ति जो सकारात्मक चिंतन है, उन्हें निडर होकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। ध्रुव की कहानी, संकल्प शक्ति तथा मन के सकारात्मक चिंतन का रूप है।

सिकंदर के विश्व-विजय बनने की कामना मन का ही प्रचंड वेग था। एवरेस्ट की चोटी पर पताका फहराने वाले तेनसिंह के मन की अजेय शक्ति उसे बार-बार बर्फ़ीले तूफानों का मुकाबला करने की चुनौती देती थी। समुद्र के तट पर बैठा हुआ व्यक्ति डूबने के भय से समुद्र के आंचल में छिपे मोती कैसे प्राप्त कर लेगा।

अतः मन को दीप्त करना ही उद्देश्य की ओर बढ़ने का आरंभ है। लक्ष्य प्राप्ति तक रुके रहना सार्थक चिंतन नहीं होता। असफलता और विश्राम से कोई नाता नहीं रखता है।

जैसे सफलता मन की जीत है, वैसे ही असफलता मन की हार है। यह सृष्टि का अटल नियम है कि सफलता के साथ असफलता भी मिलती है। परंतु इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सदैव असफलता ही मिलेगी। मन की चिंतन शक्ति जब नकारात्मक रूप लेती है, शिथिल होती है, भय ग्रस्त हो जाती है, तब ही असफलता मिलती है। निराशा मन को प्रबुद्ध और चैतन्य व्यक्तियों के कथन, उनके जीवन के प्रसंग और उदाहरण नई शक्ति देते हैं। किसी पानी से आधा भरे गिलास को दो रूपों में कहा जाता है। आधा भरा, आधा खाली। आधा खाली नकारात्मक रूप को उभारता है, जबकि आधा भरा कहना सकारात्मक रूप को बताता है।

मन की निराशा धीरे-धीरे तन को भी दुर्बल बनाती है और मनुष्य थका हुआ, उदास रहने लगता है। हंसी औरा रोना ये मन की ही भावना है। रस्सी को सांप मान लेना मन का भय है। मन की गहराई तो समुद्र से भी गहरी है। फिर मन की चेतन, अवचेतन आदि स्थितियां हैं। अवचेतन की परतों में अनेक रहस्य छिपे रहते हैं।

मन को हार से अलग करने का साधन है, वीर, महान बलिदानी और संकल्प शक्ति से संपन्न व्यक्तियों के चरित्र, कथन को पढ़ना और आत्ममंथन करना। विश्व के इस सत्य को स्वीकार करना कि सदैव एक ही स्थिति कभी भी नहीं रहती है।

एक निश्चिंत मन का युवक हाथी को पूंछ से पकड़कर रोक लेता है, लेकिन एक अच्छे भोजन करके अधिक शक्शिाली बनने की चिंता में घुले, निराश व्यक्ति को हाथी घसीट कर ले जाता है। इस कहानी में निराश मन के परिणाम को ही व्यक्त किया गया है। अतः जीवन में निराश होकर हाथ पर हाथ रखकर बैठने की अपेक्षा निरंतर सकारात्मक सोचकर श्रम करना ही जीवंत होने का प्रमाण है, अन्यथा मनुष्य जीते जी भी मुर्दा बन जाता है।

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