चालीसा शीर्षक : |
संपूर्ण श्री हनुमान चालीसा (दोहे के अर्थ सहित) |
रचयिता : |
गोस्वामी तुलसीदास |
रचनाकाल : |
16वीं सदी (अकबर के शासन काल में) |
छंदों की संख्या : |
40 (शुरूआत के 2 दोहों का छोड़कर) |
पीडीएफ साइज : |
2.4 MB |
क्यों पढ़े हनुमान चालीसा? 5 कारण
मान्यता है कि वीर हनुमान जी के द्वार से भक्ति-भाव से लीन भक्त बिना कुछ प्राप्त किये नहीं लौटता। ध्यान में मगन होकर कि गई हनुमान जी की स्तुति सिर्फ जीवित रहते ही नहीं बल्कि मरने के बाद अविनाशी आत्मा (
संपूर्ण श्री हनुमान बाहुक) का भी पथ-प्रदर्शन करती है। हनुमान चालीसा के पाठ का बखान करना बहुत कठिन है; इसके महत्व को तो सिर्फ भक्ति-भाव से ही समझा या ज्ञात किया जा सकता है।
- वीर हनुमान को इस युग के सबसे प्रबुद्ध देवों में से एक माना गया है। इन्हें यह वरदान प्राप्त है कि जब तक धरती और मनुष्य का अस्तित्व रहेगा तब तक बजरंगबली का वास भी इस धरती पर रहेगा। हनुमान जी इसके के लिए सुप्रसिद्ध हैं कि वह स्वयं के भक्तों की परिव्रज्या या तपस्या नहीं बल्कि सिर्फ भावना एवं चित की शुद्धी देखते हैं। यदि भक्त का हृदय शुद्ध है तो उसकी दिक्कत को वह फौरन सुनते हैं।
- चालीसा को हर दिन पढ़ने से मन की अशांति समाप्त होने लगती है और आदमी के मन का सारे डर समाप्त हो जाते हैं। यदि आप अधिक नगेटिव चिन्ता करते हैं तो आपको जल्द से जल्द बजरंगबली के इस चालीसा का पाठ शुरू कर देना चाहिए।
- यदि आपके परिवार या घराने में प्रतिदिन कोई न कोई परेशानी या कठिनाई बनी रहती है तब आपको बिना वक्त गवाएं हनुमान जी की कृपा का आश्रय लेना चाहिए। आपका कुटुंब खूब पैसे वाला हो फिर भी उसमें शांति नहीं है तो कुटुंब के धन-दौलत का कोई हितलाभ नहीं। आपने वीर बजरंगबली के मंदिर में अरबपतियों से लेकर खाकपतियों तक को अपनी झोली फैलाए अवश्य जाते देखा होगा।
- अगर कोई भक्त हनुमान चालीसा का पाठ समयोचित ढंग से निरंतर करता है तो उसे आजीवन पैसे से संबंधित परेशानी नहीं होगी।
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मन की शक्ति
यह विश्व कर्ममय है। प्रकृति भी अपनी स्वाभाविक गति से अपने कर्म में सदैव तत्पर रहती है। कर्म ही गति है अंततः कर्म ही जीवन है। यदि मनुष्य कर्म नहीं करता है, तो उसे कदापि किसी भी प्रकार की उपलब्धि जीवन में नहीं हो सकती है। कर्म का परिणाम फल प्राप्ति है। कर्म करने से पहले काम के लक्ष्य को तय किया जाता है। प्रायः यह देखा जाता है, कि कभी-कभी जिस लक्ष्य को लेकर कर्म किया जाता है, वह प्राप्त नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य निराशा और अवसाद में घिर जाता है। वह भाग्यवादी बन कर सोचने लगता है कि कर्म से नहीं भाग्य से ही सभी कुछ प्राप्त होता है।
प्रायः निराश होकर भीरू लोग जीवन के प्रति निराश हो जाते हैं और आत्महत्या तक कर डालते हैं। वस्तुतः यह भय और आत्महत्या निराशा के परिणाम हैं। फल की प्राप्ति बहुत आसक्ति या मोह रखने पर भी यह स्थिति हो जाती है। जीवन में सफलता और असफलता का क्रम भी रात-दिन की भांति है। घनी काली रात्रि सदैव नहीं रहती है, दिन की उजली धूप नया संदेश लेकर प्रति सुबह आती है।
मानसिक शक्ति और चिंतन :- मानव की समस्त गतिविधियां, इच्छाओं, संकल्प और विकल्प का केंद्र बिंदु मानव का मन ही है।
गीता में भी श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया है कि मन एक रथ में जुते हुए शक्तिशाली अश्व की भांति है। मनोविज्ञान के अनुसार भी मानव के व्यक्तित्व के निर्माण में मन अथवा मानसिक शक्ति महत्वपूर्ण कार्य करती है। मन के कारण ही उसे 'मनुज' और मानव संज्ञा भी दी जाती है।
जिस प्रकार रेल के इंजन में ऊर्जा के कारण ही रेलगाड़ी में जुते हुए इतने डिब्बे सरलता से चल पड़ते है, इसी भांति मानव की गतिविधियों और व्यवहार को मानसिक शक्ति ही प्रेरित करती है, संचालित करती है। मन की शक्ति स्वाभाविक होती है। जीवन धारण करने और जीवन की वृद्धि तथा विकास के साथ यह मानसिक शक्ति बनी रहती है। पशु-पक्षियों अथवा अन्य जीवधारियों में मानसिक शक्ति का विकास उस रूप में नहीं होता है। इसलिए मनुष्य उन्हें अपनी इच्छानुसार नियंत्रित भी कर सकता है।
मन की शक्ति अजेज्ञ है और मन का दुर्ग बहुत ही शक्तिशाली है। मन कभी भी शांत और चुप नहीं रहता है, वह विश्राम नहीं करता है, किसी न किसी दिशा में सदैव चिंतन करता रहता है, गतिशील रहता है। जिस भांति ज्वालामुखी के अंदर प्रचंड लावा भरा रहता है, उसी भांति मन के पास भी संकल्प और विकल्प का लावा है। चिंतन शक्ति का केंद्र बिंदु मन है।
मन की गति स्वभाव से चंचल और स्वच्छंद होती है। इसे अभ्यास के द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है। मन के अनुसार चिंतन के सकारात्मक और नकारात्मक रूप होते हैं। हमारे सुख और दुखों का कारण भी मन ही बनता है। मन की अपराजेय शक्ति को चिंतन के सकारात्मक रूप में ढालने से व्यक्ति भी अपराजेय हो जाता है। यही चिंतन संकल्पशक्ति का रूप ले लेता है। यही चिंतन मनोरथ बनता है। कालिदास का कथन है -
"ऐसा कोई स्थान नहीं जहां, मनोरथ की पहुंच न हो।"
मन की जीत और हार :- मन की जीत का अर्थ है - विश्व को जीतना, अर्थात मनुष्य जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है, बन सकता है। इसमें इतनी ऊर्जा और शक्ति है। इसके प्रचंड वेग, उसकी प्रचंड शक्ति को ही यदि जागृत किया जा सके तो मानव का पथ सदैव विजय की ओर बढ़ता है। कार्य करने के लिए हाथ तभी उठता है, जब उसमें स्पंदन होता है।
राजा ब्रूस की बहुत प्रचलित कहानी इस चिंतन को सकारात्मक रूप देती है। चींटी की विजय जब उसके मन को प्रेरित करती है, दृढ़ विश्वास, शक्ति जगाती है, उसके आत्मबल को चुनौती देती है, उसे ललकारती है तो चिंतन सकारात्मक होकर उसे विजयश्री प्रदान करता है। युद्ध स्थल में आग उगलती हुई तोपों के सम्मुख सैनिकों की संकल्प शक्ति जो सकारात्मक चिंतन है, उन्हें निडर होकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। ध्रुव की कहानी, संकल्प शक्ति तथा मन के सकारात्मक चिंतन का रूप है।
सिकंदर के विश्व-विजय बनने की कामना मन का ही प्रचंड वेग था। एवरेस्ट की चोटी पर पताका फहराने वाले तेनसिंह के मन की अजेय शक्ति उसे बार-बार बर्फ़ीले तूफानों का मुकाबला करने की चुनौती देती थी। समुद्र के तट पर बैठा हुआ व्यक्ति डूबने के भय से समुद्र के आंचल में छिपे मोती कैसे प्राप्त कर लेगा।
अतः मन को दीप्त करना ही उद्देश्य की ओर बढ़ने का आरंभ है। लक्ष्य प्राप्ति तक रुके रहना सार्थक चिंतन नहीं होता। असफलता और विश्राम से कोई नाता नहीं रखता है।
जैसे सफलता मन की जीत है, वैसे ही असफलता मन की हार है। यह सृष्टि का अटल नियम है कि सफलता के साथ असफलता भी मिलती है। परंतु इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सदैव असफलता ही मिलेगी। मन की चिंतन शक्ति जब नकारात्मक रूप लेती है, शिथिल होती है, भय ग्रस्त हो जाती है, तब ही असफलता मिलती है। निराशा मन को प्रबुद्ध और चैतन्य व्यक्तियों के कथन, उनके जीवन के प्रसंग और उदाहरण नई शक्ति देते हैं।
किसी पानी से आधा भरे गिलास को दो रूपों में कहा जाता है। आधा भरा, आधा खाली। आधा खाली नकारात्मक रूप को उभारता है, जबकि आधा भरा कहना सकारात्मक रूप को बताता है।
मन की निराशा धीरे-धीरे तन को भी दुर्बल बनाती है और मनुष्य थका हुआ, उदास रहने लगता है। हंसी औरा रोना ये मन की ही भावना है। रस्सी को सांप मान लेना मन का भय है। मन की गहराई तो समुद्र से भी गहरी है। फिर मन की चेतन, अवचेतन आदि स्थितियां हैं। अवचेतन की परतों में अनेक रहस्य छिपे रहते हैं।
मन को हार से अलग करने का साधन है, वीर, महान बलिदानी और संकल्प शक्ति से संपन्न व्यक्तियों के चरित्र, कथन को पढ़ना और आत्ममंथन करना। विश्व के इस सत्य को स्वीकार करना कि सदैव एक ही स्थिति कभी भी नहीं रहती है।
एक निश्चिंत मन का युवक हाथी को पूंछ से पकड़कर रोक लेता है, लेकिन एक अच्छे भोजन करके अधिक शक्शिाली बनने की चिंता में घुले, निराश व्यक्ति को हाथी घसीट कर ले जाता है। इस कहानी में निराश मन के परिणाम को ही व्यक्त किया गया है। अतः जीवन में निराश होकर हाथ पर हाथ रखकर बैठने की अपेक्षा निरंतर सकारात्मक सोचकर श्रम करना ही जीवंत होने का प्रमाण है, अन्यथा मनुष्य जीते जी भी मुर्दा बन जाता है।