10 Famous Bedtime Stories in Hindi | बच्चों के लिए
दोस्तों, एक समय था जब छोटे बच्चे रात को सोने से पहले अपने दादा-दादी, नाना-नानी और घर के दूसरे बड़े लोगों से नई-नई कहानियां सुनाने की जिद किया करते थे और परिवार के बड़े सदस्य बड़े ही प्यार से सुनाया भी करते थे। वे रोमांचक एवं सीखभरी कहानियां हमें एक नई काल्पनिक दुनिया में ले जाया करती थी। वे कहानियाँ पंचतंत्र, जातक, रामायण, महाभारत, पौराणिक या प्रचलित लोक प्रथा से जुड़ी हुई होती थी,
जो बच्चों को अच्छी शिक्षा भी देती थी और उनकी कल्पनाशीलता को भी बढ़ाती थी। इससे न केवल बच्चों का बौद्धिक विकास होता था बल्कि बड़ों और बच्चों के बीच भावनात्मक लगाव को भी बढ़ता था। यहां नीचे आपके बच्चों के लिए Best Bedtime Stories in Hindi का संकलन दिया गया है। स्वयं पढ़े और बच्चों को भी सुनाएं।
बहादुर भीम
एक बार महाभारत का महान वीर भीम, उसकी मां कुंती आक्र उसके भाई वन में स्थित गांव में एक ब्राह्मण के घर ठहरे। एक दिन कुंती ने बहुत रोने-कलपने की आवाज सुनी। इसका कारण जानने के लिए वह दौड़ कर गई तो उसने ब्राह्मण, उसकी पत्नी व बच्चों को ऐसे रोते-सिसकते पाया मानो उनके कलेजे फट जाएंगे।
'आप क्यों रो रहे हैं?' कुंती ने पूछा।
'प्रिय बहन,' ब्राह्मण ने कहा, "इस घर के समीप एक अत्यंत शक्तिशाली और दुष्ट राक्षस रहता है। उसके जीते जी कोई हमारे राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता। इस संरक्षण के बदले वह एक भयंकर मूल्य मांगता है। प्रतिदिन उसके भोजन के लिए हमें एक गाड़ी भर भात, दो भैंसे और एक आदमी भेजना पड़ता है। अब हमारी बारी है। यदि मैं चला जाऊं तो मेरे परिवार की देखभाल कौन करेगा? हमारे केवल एक पुत्र और पुत्री है। इसलिए मैं उनमें से किसी एक को भी नहीं भेज सकता।"
कुंती को उसकी दशा पर गहरा दुख हुआ। 'डरो मत,' वह बोली 'मैं अपने पुत्रों में से एक को भेज दूंगी।'
ब्राह्मण को यह स्वीकार नहीं था। 'मैं आपके बेटे को मृत्यु के मुख में नहीं जाने दे सकता,‘ उसने कहा। ‘वह मेरी अपनी मृत्यु से भी अधिक दुखदायी होगा।'
कुंती ने उसे बताया कि उसका बेटा बहुत शक्तिशाली और महान योद्धा है। कुंती ने भीम को चुना क्योंकि वह उसके पुत्रों में सर्वाधिक बलशाली था।
तड़के ही भोजन साथ लेकर भीम निश्चित स्थान के लिए रवाना हो गया।
जगह पर पहुंचकर भीम बैठ गया और कानों को बहरा कर देने वाली तथा धरती हिला देने वाली एक भीषण गर्जना करके उसने राक्षस को आकर अपना भोजन ग्रहण करने के लिए पुकारा।
जब वह दैत्य बाहर आया तो बहुत जोर का धमाका हुआ और वातावरण में कालिमा छा गई।
दैत्य की बड़ी-बड़ी लाल-लाल आंखें थीं, बाल व दाढ़ी भी लाल थे। उसके चौड़े और नुकीले कान थे और मुंह इतना बड़ा था कि एक कान से दूसरे कान तक फैला था।
जो दृश्य उसे दिखाई दिया उससे वह अत्यंत क्रुद्ध हो गया।
भीम शांति से गाड़ी के समीप बैठा उसका भोजन खा रहा था। भीषण गर्जना करके वह भीम की ओर दौड़ा और उसकी पीठ पर जोर से प्रहार किया।
भीम को तो मानो कुछ हुआ ही नहीं, वह तो बस मुस्कराया और खाना खाता रहा।
राक्षस के क्रोध की सीमा न रही। उसने एक विशाल वृक्ष उखाड़ा और भीम की हत्या करने के इरादे से उसकी ओर दौड़ा।
भीम ने वृक्ष को इतने वेग से वापस फेंका कि उसकी चोट से राक्षस मूर्छित हो गया। फिर भयंकर युद्ध शुरू हो गया। भीम और राक्षस ने वृक्ष उखाड़े और उनसे लड़ते रहे। उन्होंने बड़ी-बड़ी चट्टानें एक दूसरे पर फेंकी।
अंत में भीम ने अपनी बलवान भुजाओं में राक्षस को उठा कर इतनी जोर से पटका कि उसकी मृत्यु हो गई।
तीव्र कोलाहल को सुन अन्य सभी दैत्य बाहर निकल आए और भयभीत हो खड़े रह गए।
उसके बाद राक्षसों ने किसी मनुष्य को नहीं सताया और लोग शांतिपूर्वक रहने लगे।
दयालु चरवाहा
गोपाल एक नन्हा-सा बालक था जो अपनी माँ के साथ एक बड़े जंगल के छोर पर रहता था। उसके बचपन में ही उसके पिता का देहांत हो गया था। उसकी मां खेतों में काम करती थी। वह गोपाल को बहुत प्यार करती थी और उसकी अच्छी देखभाल करती थी।
जब गोपाल पांच वर्ष का हुआ, उसकी मां ने उसे पाठशाला भेजा। पाठशाला जाने के लिए उसे जंगल में से होकर जाना पड़ता था। प्रायः शाम को घर लौटते समय उसे जंगल में अद्भुत आवाजें सुनाई देतीं। तब वह पूरा रास्ता भाग कर घर आता और अपनी मां की बांहों की सुरक्षा में छिप जाता।
पहले तो उसने अपनी मां को बताया ही नहीं कि उसे डर लगता था। परंतु उसका भय बढ़ता गया, बढ़ता गया। फिर एक दिन वह बोला, "मां, मैं पाठशाला नहीं जाना चाहता। कल से मैं खेतों में तुम्हारी मदद करूंगा।"
"क्या बात है, बेटे?" मां ने उसे अपनी बाहों में भरकर पूछा, "तुमने तो मुझसे कहा था कि तुम्हें पाठशाला अच्छी लगती है।"
"वह बात नहीं है," गोपाल बोला, "मुझे जंगल के रास्ते में डर लगता है।"
उस रात गोपाल की मां ने अपने बेटे की रक्षा करने के लिए
भगवान कृष्ण से प्रार्थना की। उन्होंने एक चरवाहा बन कर धरती पर जन्म लिया था और उसने भी प्रभु के नाम पर अपने बेटे का नाम गोपाल रखा था।
अगले दिन, सुबह, उसने गोपाल से कहा, "क्या तुम जानते हो कि जंगल में मेरा एक बेटा है और उसका नाम भी गोपाल है? वह एक चरवाहा है। जब भी तुम्हें डर लगे, बस उसे पुकार लेना। वह निश्चय ही आ जाएगा।"
गोपाल अत्यंत प्रसन्न हुआ। उस दिन वह निर्भय हो कर चल पड़ा। शाम को, घर आते समय बहुत अंधकार हो गया था। अतः उसने पुकारा, "ओ चरवाहे भाई, आओ और मुझसे बातें करो।"
तभी झाड़ियों में से मधुर स्वर उसे सुनाई दिया, "मैं आ रहा हूं छुटकू," गोपाल से बड़ी उम्र का एक बालक सामने आ खड़ा हुआ। उसकी मुस्कान इतनी मधुर थी कि गोपाल को उस पर प्यार आ गया।
अब गोपाल को तनिक भी भय न था। उसका चरवाहा भाई खेलने के लिए अनोखे खेल बनाता और पाठशाला जाते और लौटते पूरे रास्ते उसे कहानियां सुनाता।
एक दिन अध्यापक ने बच्चों को बताया कि वे उत्सव मनाने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने हर बालक से कुछ न कुछ खाने की चीज लाने को कहा। बच्चों में बड़ा उत्साह था। उन्होंने बताया कि उनकी मां उन्हें क्या-क्या देगी।
गोपाल ने अपनी मां को उत्सव के बारे में बताया। "सब बच्चे कुछ न कुछ ला रहे है, मैं क्या ले जाऊं?" उसने उत्सुकता से पूछा।
उसकी मां दुखी हो गई। वे इतने निर्धन थे कि अपने लिए ही पर्याप्त भोजन जुटाना कठिन था।
"मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकती," उसने उदास होकर कहा।
गोपाल ने जंगल वाले अपने भाई का स्मरण किया और मां से बोला, "मां," चिंता न करो, मैं कुछ कर लूंगा।
अगले दिन, प्रातः सकूल जाते हुए उसने अपने भाई को उत्सव के बारे में बताया। उस दयालु चरवाहा ने तुरंत उसे खीस (खट्टे दूध) का एक पात्र दिया, जिसे सभी बच्चे पसंद करते हैं। गोपाल बड़े ध्यान से उसे स्कूल तक ले गया, कहीं एक बूंद भी गिरने नहीं दी।
अध्यापक ने गोपाल को उसके उपहार के लिए धन्यवाद दिया और सब बच्चों को पात्र में से थोड़ा-थोड़ा दूध दे दिया। वह बड़ा स्वादिष्ट था और बच्चे और मांगने लगे। ‘अब तक तो वह खत्म हो गया होगा,‘ अध्यापक ने सोचा। पर जब उन्होंने पात्र उठाया तो वह भरा हुआ था। बार-बार उन्होंने दूध परोसा और यह देख कर चकित हो गए कि पात्र हमेशा भरा ही रहता।
'तुम यह खीस कहां से लाए हो?' उन्होंने अचरज से पूछा।
"जंगल में रहने वाले मेरे भाई ने मुझे दिया था," गोपाल ने कहा।
"क्या तुम मुझे उसके पास ले चलोगे?" अध्यापक ने पूछा।
वे दोनों जंगल में गए। गोपाल ने पुकारा, "भाई, प्रिय चरवाहे भाई, आओ और मेरे अध्यापक से मिलो। ये स्वादिष्ट खीस के लिए तुम्हें धन्यवाद देना चाहते हैं।"
तब उन्हें एक आवाज सुनाई दी। "तुम्हारे अध्यापक मुझे नहीं देख सकते, नन्हे बालक! तुम अपनी मां के कारण मुझे देख पाए जो मुझसे सच्चा प्रेम करती हैं।" गोपाल का भाई अन्य कोई नहीं बल्कि स्वयं परम स्नेही भगवान कृष्ण थे।
शिखंडी और भगवान शिव का वचन
बहुत समय पूर्व पांचाल देश के राजा की एक महान इच्छा थी। उसकी रानी के कोई संतान न थी और वह एक पुत्र पाने के लिए लालायित थी। अतः उन दोनों ने
भगवान शिव की आराधना की और एक दिन भगवान् ने स्वयं उन्हें दर्शन दिए। 'तुम्हें एक पुत्र प्राप्त होगा,' वे बोले, 'परंतु वह तुम्हें एक पुत्री के रूप में प्राप्त होगा।'
राजा यह सुनकर चकरा गया। रानी ने कहा कि वह समझ गई है, इसका क्या अर्थ है। जब रानी ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया, उसने सारे राज्य में घोषणा करवा दी कि उसे पुत्र हुआ है।
उस कन्या का नाम रखा गया शिखंडी। शिखंडी पे वह सब कुछ सीखा जो एक युवक को सीखना चाहिए। उसने पढ़ना-लिखना, चित्रकला, घुड़सवारी तथा धनुर्विद्या भी सीखी। जब वह बड़ी हुई तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि एक लड़की के रूप में उसे कोई नहीं चाहता। उसके माता-पिता तो एक पड़ोसी राजकुमार से उसका विवाह तक कराने की सोच रहे थे।
उसके पिता ने जिन राजाओं के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा उनमें से एक को संदेह होने लगा था कि शिखंडी में कुछ न कुछ अस्वाभाविक बात अवश्य है। अतः उसने उत्तर में यह संदेश भेजा कि वह नगर में प्रवेश करके पांचाल देश का विनाश करने की तैयारी कर रहा है।
शिखंडी ने अपने माता-पिता को इस गंभीर समाचार के बारे में विचार करते सुना। रानी ने कहा, 'चलिए देवताओं से प्रार्थना करें। वे अवश्य एक वीर पुत्र के रूप में हमें सहायता भेजेंगे, जो शत्रु का सर्वनाश करेगा।' शिखंडी ने दुखी मन से ये सब बातें सुनी।
कुछ समय बाद ही एक दिन वह नगर के समीप एक विशाल व निर्जन वन में निकल पड़ी। वन में घूमते हुए शिखंडी ने सोचा, 'माता-पिता को दुख देने से तो अच्छा है कि मेरी मृत्यु हो जाए। मैं इसी वन में खो जाऊंगी तो कोई नहीं जान पाएगा।'
तभी उसने अपने सामने एक विशाल किला देखा। वह भीतर गई और एक कक्ष से दूसरे कक्ष घूमती रही। वह एकदम वीरान था। वहां बिना कुछ खाए-पिए रोते-रोते शिखंडी ने कई दिन बिताए।
वस्तुतः वह किला बिल्कुल खाली नहीं था। उसमें एक आत्मा विचरण करती थी जो यक्ष कहलाती थी। यक्ष एक पुण्य आत्मा थी। इस सुंदर कन्या को बिलखते देख उसे बहुत दुख हुआ। एक रात उसने शिखंडी के सामने प्रकट होकर दुख का कारण पूछा।
‘मैं धन के देवता का अनूचर हूं,‘ उसने कहा। ‘शायद मैं इस मुसीबत में तुम्हारी मदद कर सकूं।‘
तब राजकुमारी ने उसे अपनी कथा सुनाई और पुनः उसके सामने रो पड़ी। 'ओह! काश मैं एक पुरूष होती!' वह बोली।
यक्ष ने एक क्षण इस पर विचार किया। फिर बोला, ‘मेरे मन में एक उपाय है। तुम कितने समय के लिए पुरूष बनना चाहती हो?‘
शिखंडी ने उसे देखा। 'जब तक मैं अपने पिता जी के सब शत्रुओं को पराजित न कर दूं। यदि मैं उन्हें युद्ध में पराक्रम दिखा दूं तो मेरे पुरूषत्व को मान लिया जाएगा।'
"तथास्तु" यक्ष ने कहा। 'मैं अपना पुरूषत्व तुम्हें देता हूं। तुम एक पूर्ण पुरूष बन जाओगी। पर जब युद्ध समाप्त हो जाए तो मेरे पास निश्चय ही लौट आना।'
यक्ष का धन्यवाद करके वह पिता के घर लौट आई। युद्ध में शिखंडी के सामने कोई भी टिक न पाया। उसने शीघ्र ही शत्रुओं को जीत लिया। फिर अपना वचन याद करके वह जंगल में लौट गई।
अब स्त्री की पोशाक धारण किए यक्ष ने दुखी होते हुए उसका स्वागत किया। ‘हम पुनः अपना रूप परिवर्तित नहीं कर सकते‘, 'उसने गहरी सांस लेते हुए कहा।'
‘क्यों‘? क्या हुआ? शिखंडी ने आश्चर्य से पूछा।
"तुम्हारे जाने के बाद धन के देवता, जंगल में आए। मैं उनका स्वागत करने नहीं गया। अतः उन्होंने मुझे श्राप दिया और कहा कि मैंने जो कुछ भी किया है उस अब कभी परिवर्तित नहीं किया जा सकेगा," यक्ष ने उत्तर दिया।
शिखंडी को बहुत खेद हुआ कि उसने यक्ष को दुख पहुंचाया पर यक्ष ने उसे सांत्वना दी और कहा कि वह चिंता न करें। "तुम्हें पुरूष ही बनना था," वह बोला, "और अब तुम वैसी ही रहोगी।"
इस प्रकार भगवान् शिव का वचन सत्य हुआ। शिखंडी पुरूष बना और महाभारत युद्ध के महानतम सैनिकों में से एक सिद्ध हुआ।
उत्तंक की गुरुदक्षिणा
एक समय था जब भारत के ऋषि-मुनि वनों में आश्रमों में मिट्टी व भूसे की कुटिया बनाकर रहते थे। ऐसे ही एक आश्रम में उत्तंक नाम का एक बालक रहता था।
कई वर्ष बीते और वह बड़ा हो गया। शीघ्र ही उसने वे सब विद्याएं सीख लीं जो उसके गुरू उसे सिखा सकते थे।
एक दिन वह अपने गुरू के पास जाकर बोला, "गुरूवर, आपने इतने वर्ष मुझे शिक्षा दी पर मैंने कभी एक बार भी आपको कुछ नहीं दिया। ऐसी किसी भेंट का नाम बताइए जो मैं आपको दे सकूं और जिसे पाकर आप खुश हों।"
उसके गुरू ने कहा, "वत्स, मुझे कुछ नहीं चाहिए। तुम अपनी गुरूमाता के पास जाकर उनसे पूछ लो।"
सो उत्तंक ने अपनी गुरूमाता के पास जाकर, झुक कर उन्हें प्रणाम करके उनसे पूछा कि ऐसी कौन सी वस्तु है जो वे पाना चाहती हों।
"हां", उन्होंने उत्तर दिया, "मुझे बहुत दिनों से वे कर्णफूल पहनने की इच्छा है जिन्हें महारानी पहनती हैं। उनके पास जाकर मेरे लिए उन्हें ले आओ। मैं उत्सव के दिन उन्हें पहनना चाहती हूं। मुझे कर्णफूल ला दो तब मैं समझूंगी कि तुम्हारी भक्ति सच्ची है।"
यह सुनकर उत्तंक घबरा गया। फिर भी जंगल के रास्ते वह उस नगर के लिए चल पड़ा जहां राजा का निवास था।
वह अभी थोड़ी ही दूर गया था कि एक भीमकाय बैल को अपनी ओर आते देखा। जैसे-जैसे वह समीप आया उत्तंक ने उस पर एक इतने बड़े आदमी को बैठे देखा कि वह डर कर पीछे हट गया। परंतु उस व्यक्ति ने पुकारा, "उत्तंक! इसे पी लो," और उसने गंदे पानी का एक प्याला आगे बढ़ाया। उत्तंक ने मुंह मोड़ लिया पर वह व्यक्ति बोला, "पी लो, उत्तंक, यह मार्ग में तुम्हारी सहायता करेगा।"
अंत में वह राजा के महल में पहुंच गया। साहसपूर्वक उसने महन के भीतर प्रवेश किया और जब तक राजसिंहासन पर आसीन स्वयं राजा को नहीं देखा, तब तक अपने आसपास कुछ देखने के लिए नहीं रूका। 'महाराज,' उत्तंक ने प्रणाम करके कहा, "मैं यहां से कई मील दूर, वन के एक आश्रम से आया हूं। मेरी गुरूमाता उत्सव के दिन महारानी के कर्णफूल पहनना चाहती हैं और यदि मैं उनके लिए उन्हें न ले गया तो अपने गुरू की नजरों में गिर जाऊंगा।"
महाराज बालक पर दया करके मुस्कराए। "उसके लिए तो तुम्हें महारानी से कहना चाहिए", वे बोले, उनके कक्ष में जाओ और उनसे मांगो।
उत्तंक महारानी के कक्ष में गया परंतु उसे वे न मिली। वह राजा के पास लौटा आया और बोला, "महाराज, वे मुझे मिली नहीं।"
महाराज ने यात्रा की धूल से सने कपड़ों और मैले-कुचैले हाथ-पैरों वाले उत्तंक को सामने खड़े देखा। "क्या तुम रानी के सामने ऐसे जाओगे?" वे बोले।
उत्तंक लज्जित हो गया। नहा-धोकर, स्वच्छ होकर वह फिर महारानी को ढूंढ़ने गया। इस बार वे उसे मिल गई।
महारानी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और उत्तंक ने उनकी हथेली पर चमकते कर्णफूल देखे। ‘तुम एक अच्छे बालक हो उत्तंक,‘ वे बोली। ‘मैं स्वेच्छा से तुम्हें कर्णफूल देती हूं। परंतु सावधान। बहुत दिनों से इन पर सर्पराज की दृष्टि है। इन्हें गंवा मत देना।‘
उत्तंक ने उन्हें धन्यवाद दिया एवं घर के लिए निकल पड़ा। शाम हो रही थी और वह थका हुआ था। एक पेड़ के तने का सहारा लेकर अपने समीप ही भूमि पर कर्णफूल रखकर वह विश्राम करने लगा। सहसा उसने एक हाथ को कर्णफूल खींच कर गायब होते हुए देखा। वह उछल कर खड़ा हो गया। वह जैसे ही मुड़ा, उसने उसने देखा कि फटे-पुराने वस्त्र पहने, एक आदमी जंगल में भागा जा रहा है। उत्तंक जितनी तेज दौड़ सकता था उसके पीछे दौड़ा पर तभी वह आदमी सर्प बन गया और रेंग कर भूमि में एक बिल में खुस गया।
उत्तंक अत्यंत दुखी था। प्रयत्न करने पर भी इतने छोटे बिल में प्रवेश करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। वह बैठा भाग्य को कोस रहा था कि तभी एक बूढ़ा आदमी उसके सामने प्रकट हुआ।
"चिंता न करो, पुत्र", वह बोला, "मैं तुम्हारी मदद करने आया हूं।" तभी बिजली चमकी, गर्जन हुई और भीषण वज्रपात हुआ। सारी धरती कांप उठी। सहसा सब कुछ पुनः शांत हो गया पर जहां उत्तंक खड़ा था उसके समीप ही भूमि में एक बड़ा छेद हो गया।
उत्तंक ने छेद में प्रवेश किया और स्वयं को सर्पराज के राज्य में पाया। वह धीरे-धीरे चलता गया और एक कपड़ा बुनती दो स्त्रियों के समीप पहुंचा। उसने उनसे सर्पराज के महल का मार्ग पूछा। उन्होंने उसकी बात न सुनी और बुनने में लगी रही। उसने देखा उनका वस्त्र काले और सफेद धागों से बुना हुआ था।
फिर वह बारह तीलियों वाले एक पहिए के पास पहुंचा। छह लड़के इस पहिए को घुमा रहे थे। "तुम क्या कर रहे हो?" उसने लड़कों से पूछा। उन्होंने उसे कोई उत्तर न दिया। अतः वह आगे चलता गया बहुत सुंदर घोड़े वाले एक आदमी को देखा।
उत्तंक उसके पास गया। वह घोड़े से इतना प्रभावित हो गया कि आदरपूर्वक उस आदमी को प्रणाम करके बोला "हे प्रभु, मैं आपको प्रणाम करता हूं। मुझ पर एक उपकार कीजिए।"
वह आदमी मुड़ा, "मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं।"
उत्तंक ने उत्तर दिया, "सर्पराज को मेरे वश में कर दीजिए।"
"इस घोड़े पर फूंक मारो," वह आदमी बोला।
उत्तंक घोड़े के पास गया और फूंक मारता ही गया। घोड़े के शरीर के हर बाल से एक ज्वाला निकली और सर्पराज के राज्य के कोने-कोने में फैल गई। उसने सारे घर जला दिए और तब सब सर्प बाहर निकल कर उत्तंक से अपने प्राण बचाने की प्रार्थना करने लगे।
"सर्पराज से कहो कि कर्णफूल लौटा दे," उत्तंक ने कहा।
तब सब सर्पों ने राजा से कर्णफूल लौटा देने की मांग की। उसने लौटा दिए।
उस आदमी ने उत्तंक को वह घोड़ा दिया और कुछ ही क्षणों में वापस आश्रम पहुंच कर उसने सही समय पर उत्सव में पहनने के लिए अपनी गुरूमाता को कर्णफूल दे दिए। उन्होंने उसे उसके परम साहस के लिए आशीर्वाद दिया।
जब उत्तंक ने अपना अपूर्व अनुभव सुनाया तो उसके गुरू मुस्कराए और बोले, "पुत्र, वह गंदा पानी जो तुमने पिया, अमृत था। वह तुम्हें शाश्वत युवावस्था प्रदान करेगा। काले व सफेद धागों को बुनती दो स्त्रियां रात और दिन हैं। बारह तीलियों वाला पहिया बारह महीनों वाला वर्ष है और लड़के छह ऋतुएं हैं। वह आदमी वर्षा का देवता था और घोड़ा अग्नि का देवता। पुत्र, तुम्हारी बहुत अच्छी रक्षा की गई और तुम मेरे आशीर्वाद के योग्य हो। अब संसार में जाओ क्योंकि परम सौभाग्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।"
इस प्रकार, अपने कर्तव्यों का पालन करके उत्तंक संसार में आजीविका खोजने निकल पड़ा। वह अन्य मनुष्यों जैसा नहीं था क्योंकि वह जानता था कि ईश्वर ने उसकी रक्षा की है। उसे कोई भय न था।
सृष्टि
संसार की रचना से पूर्व स्वर्ग में विलक्षण लोगों का एक बड़ा समुदाय रहता था जिन्हें हम 'दिव्य' ही कहेंगे। वे आकाश में उड़ सकते थे, धरती पर चल सकते थे और भय तथा क्रोध तो उनमें लेशमात्र भी न था। परन्तु उनके पास वह सब था जो वे चाहते थे, वे आपस में लड़ने-झगड़ने लगे क्योंकि उनके पास करने के लिए इससे बेहतर कुछ था ही नहीं। उस समय सब प्राणियों की सृष्टि करने वाले परमात्मा ने निश्चय किया कि उनकी दुष्टता का अंत होना ही चाहिए। उन्होंने इस आशय से चारों ओर दृष्टि दौड़ाई कि कोई ऐसा व्यक्ति दिखे जो नेक हो तथा जिसकी वे रक्षा कर सकें।
हुआ यह कि उन दिनों धरती पर मनु नाम के एक मनीषी रहते थे। वे एक नदी के तट पर रहते थे। एक दिन प्रातः जब वे पूजा कर रहे थे तब उन्होंने सुना कि कोई उन्हें पुकार रहा है। उन्होंने चारों ओर देखा किंतु उन्हें कोई दिखाई नहीं दिया। उन्होंने ऊपर आकाश में देखा-जहां तक दृष्टि जाती थी। नीला आसमान फैला हुआ था। अतः वे पुनः पूजा में लग गए। फिर आवाज आई, "हे मनीषी! मेरी सहायता करो, मैं बड़े संकट में हूं।"
इस बार मनु ने नदी के जल में देखा तो उन्हें एक नन्ही-सी मछली दिखाई दी। वे उसके पास जाकर बोले, "नन्ही मछली क्या तुम ही मुझे पुकार रही थी? मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूं?"
"हे महापुरूष!" मछली बोली, "मैं भयभीत हूं। बड़ी मछलियां सारी छोटी मछलियों को खा जाती हैं और यदि मैं यहां कुछ देर और रही तो वे मुझे भी खा जाएंगी। मैं आपसे विनती करती हूं, मुझे यहां से निकाल कर ले जाइए।"
मनु को दया आ गई और पानी में अपने हाथों की अंजलि बना कर उन्होंने नन्ही मछली को उसमें भर लिया। फिर वे घर गए और एक छोटे से मिट्टी के पात्र में उसे डाल दिया। प्रतिदिन वे उसे भोजन लाकर देते और एक बच्चे के समान उसकी देखभाल करते। नन्ही मछली दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी और जल्दी ही इतनी बड़ी हो गई कि मनु ने उसे मिट्टी के पात्र के निकाल कर एक तालाब में डाल दिया। शीघ्र ही तालाब भी मछली के लिए छोटा पड़ने लगा। वह बढ़ती ही गई।
अब तक, मनु समझ ही गए होंगे कि यह कोई साधारण मछली नहीं थी पर उन दिनों तरह-तरह की अद्भुत बातें होती रहती थी। अतः वे चुप रहे और मछली का पालन-पोषण इस तरह करते रहे मानो ऐसा काम करते रहें हों।
जब मछली तालाब की दृष्टि से बहुत बड़ी हो गई तो मनु ने उसे ले जाकर गंगा नदी में डाल दिया। गंगा एक पवित्र नदी थी जिसमें किसी मछली को कोई हानि नहीं पहुंचती। इस पर भी मछली को संतोष न हुआ। 'प्रभु', वह मनु से बोली, 'आपने मुझ पर बहुत दया की है मुझे नदी में बहुत घुटन होती है। मेरा शरीर विशाल है कृपया आप मुझे समुद्र में ले जाइए।'
यद्यपि मछली मनु से बहुत बड़ी थी पर जब मनु उसे ले जाने लगे तो वह उन्हें पंख-सी हलकी और चांदी की चंद्र किरण-सी प्रतीत हुई। मनु को उसे समुद्र तक ले जाने में बिल्कुल कष्ट नहीं हुआ।
जब वे समुद्र तक पहुंच गए तब मुस्करा कर मछली बोली, ‘मनु, तुमने बड़े यत्न व प्रेम से मेरी रक्षा की है। जो मैं तुम्हें बता रही हूं उसे सुनो। संसार का अंत आ गया है और सभी प्राणी नष्ट हो जाएंगे। जैसा मैं तुमसे कहती हूं वैसा करो और तुम बच जाओगे। एक नाव बनाओ और उसके चारों ओर एक लंबी रस्सी दृढ़ता से बांध लो। हर प्रकार का एक-एक बीज लेकर सारे बीज एकत्र करो और उन्हें अपने साथ नाव में रख लो। जैसे ही संसार के छोर पर जल-प्रवाह टकराए, तुम नाव पर चढ़कर मेरी प्रतीक्षा करना।‘
जैसा कहा गया था वैसा करके मनु प्रतीक्षा करने लगे। जब उन्होंने दूर से पानी की गर्जना सुनी तो वे नाव पर सवार होकर चल पड़े।
विशाल लहरों ने पुरे संसार को ढक लिया। जिधर भी देखते मनु को जल के अतिरिक्त कुछ न दिखाई देता था। सागर हवा में ऊंचा उठ रहा था और ऐसा गर्जन-तर्जन मचा हुआ था कि पर्वत डोल उठे और घाटियां गूंज उठीं। तूफान में नन्हीं-सी नाव डगमगाने लगी। मनु मछली की प्रतीक्षा करने लगे।
सहसा, समुद्र के बीचो-बीच उन्होंने दो सींग निकलते देखे। यह वही मछली थी। मनु ने तुरंत रस्सी को सींगों पर उाल कर नाव बांध दी। मछली क्रुद्ध लहरों के विरूद्ध पूरे बल से तैरती हुई विशाल सागर पर नाव को खींच ले चली।
अब भी अगाध जल राशि के अतिरिक्त आस-पास कुछ न था। मछली नाव को खींचती गई, खींचती गई। अंततः एक दिन क्षितिज पर एक पर्वत-शिखर दिखाई पड़ा। यह भारत के पर्वतों में से सर्वोच्च शिखर था जो इतना ऊंचा था कि नीले आसमान को लगभग छू रहा था।
जब वे शिखर के समीप से गुजरे तो मछली ठहर गई। ‘अपनी नाव इस पेड़ से बांध दो मनु,‘ वह बोली।
मनु ने पर्वत के ढाल पर खड़े उस ऊंचे पेड़ से अपनी नाव बाध दी। उनके ऐसा करते ही हवा में मधुर संगीत भर गया और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। मनु ने झुक कर प्रणाम किया क्योंकि वे जान गए थे कि वह मछली स्व्यं परम पिता परमात्मा के अतिरिक्त और कोई नहीं थी और फिर एक आकाशवाणी हुई, ‘मनु, तुम समग्र मानवजाति के पिता होगे। तुमसे ही मनुष्य का फिर से जन्म होगा और सब मनुष्य तुम्हारा ही नाम धारण करेंगे।‘
मनु के नाम से ही आज हम सब 'मनुष्य' कहलाते हैं, अंग्रेजी में 'मैन' शब्द भी मनु के नाम से ही बना है।
अमृत मंथन
दूर, बहुत दूर, मेंरू नाम का एक सुनहरा पर्वत है। जब किसी बात पर विचार करना होता है, देवतागण इसी पर्वत पर मिलते हैं।
किसी समय संसार दो जातियों में बंटा था - देवता और असुर। वे अपना प्रभुत्व जामने के लिए एक दूसरे से लगातर लड़ते रहते थे। उन्होंने एक दिव्य पेय 'अमृत' का नाम सन रखा था, जो अमरत्व प्रदान करने वाला पेय था। जो एक बा इसका पान कर लेता वह कभी बूढ़ा नहीं होता था।
अमृत एक छोटे से घड़े में समुद्र के तल में स्थित था। देवता और असुर उसे निकालने के लिए समुद्र को मथना चाहते थे। उन्होंने एक निश्चय किया। सर्पों में सर्वाधिक बलशाली सर्प वासुकि को बुलाकर उन्होंने सागर को मथने में उसकी सहायता मांगी।
फिर उन्होंने एक विशाल पर्वत को उखाड़ा और सागर-तट पर जा पहुंचे। 'हे समुद्र‘ वे बोले, 'हम दिव्य पेय प्राप्त करने के लिए आपका जल मथने आए हैं।'
'तथास्तु', सागर ने उत्तर दिया।
फिर वे कच्छपराज के पास गए और बोले, ‘महाराज, आप हमारी सहायता करें। यदि हम पर्वत को सागर में डालेंगे तो वह डूब जाएगा। परंतु यदि आप उसे अपनी पीठ पर धारण कर लें तो हम सागर का मंथन करके अमृत पा सकेंगे।‘
कच्छपराज मान गए। वे सागर के तल में चले गए और उनकी पीठ पर पर्वत स्थापित कर दिया गया।
वासुकि ने स्वयं को पर्वत के चारों ओर लपेट लिया। देवताओं ने उसकी पूंछ पकड़ी और असुरों ने उसे सिर से पकड़ लिया। इस तरह उन्होंने महासागर का मंथन किया।
उनके मंथन करने से भयंकर गर्जना हुई, जिससे पर्वत कांप उठे, पेड़ गिर पड़े, अग्नि प्रज्वलित हो गई और वन के पशु जान बचा कर भागते दिखाई दिए। फिर शीघ्र ही सब कुछ शांत हो गया और समुद्र में से निकला, देखने में अति सुंदर नीला चंद्रमा, जिसने नीले आकाश में अपना स्थान ग्रहण किया।
फिर एक सुंदर स्त्री निकली। वह देखने में इतनी अद्भुत थी कि देवताओं और असुरों ने अपने मुंह लिए क्योंकि उसका अप्रतिम सौंदर्य उनसे देखा न जाता था। स्वयं विधाता उसे संसार की माता बनाने के लिए स्वर्ग में महल में ले गए।
उस स्त्री के बाद एक अनोखा श्वेत घोड़ा निकला, फिर ऐसे रत्न जो कभी किसी ने न देखे हों। ये सब देवताओं में बांट दिए गए। जब एक सफेद बर्तन में अमृत निकला तो असुरों ने उसे पकड़ लिया और बोले, 'आप ने सब कुछ ले लिया। यह हमें मिलना चाहिए।'
देवता डर गए। अतः विधाता ने एक सुंदर युवती को भेजा जिसने असुरों के समक्ष इतना सुंदर नृत्य प्रस्तुत किया कि वे अमृत को तो भूल ही गए।
जब वह अदृश्य हो गई तब असुरों ने जाना कि उनके साथ धोखा हुआ है और गुस्से से उन्होंने बड़ा कुहराम मचाया। असुरों में से एक, राहु, देवता का भेस बना कर देवताओं के बीच अमृत का घूंट पीने जा बैठा। पर जैसे ही उसने एक बड़ा घूंट पिया, उसे पहचान लिया गया और उसके अमृत निगलने से पूर्व ही उसका सिर काट दिया गया।
अब ये तो सूर्य व चंद्रमा ही थे, जिन्होंने यह सब कुछ देखा था और राहु को चुपके से देवताओं में सम्मिलित होते भी देखा था। जब राहु का सिर काटा गया, वह आकाश में ऊंचा उड़ गया क्योंकि उसने अमृत पी लिया था और अमर हो गया था। जब कोई तुमसे कहे कि ग्रहण लग रहा है तो तुम समझ जाओगे कि यह राहु ही है जो सूर्य या चंद्रमा को निगलने का असफल प्रयास कर रहा है।
सुजाता और गौतम बुद्ध
पूर्णमासी की पूर्वसंध्या थी। सुजाता अपने छोटे से घर के खंभे के सहारे बैठी थी। जहां वह बैठी थी वहां से वह दूर, मैदानों के परे तक देख सकती थी। गायों को हांकते हुए अपने पिता की आवाज उसे सुनाई पड़ी। लगभग एक हजार गायें जिन पर उन्हें बहुत गर्व था। प्रतिदिन प्रातः एक चरवाहे की निगरानी में उन्हें गांव के बाहर चरागाह में भेजा जाता था। शाम को वह उन्हें वापस ले आता और उनके स्वामी उन्हें गांव के फाटक पर ले लेते।
सभी मकान सलीके से पंक्तियों में बने हुए थे परंतु गलियां तंग थीं। यदि कोई एक ओर खड़ा होता और उसकी बांह कुछ और लंबी होती तो मानो सामने वाले घर की दीवार को छू ही लेता। पर गलियों में कोई भी अधिक समय न बिताता था। सभी त्यौहार गांव के बाहर वाले पेड़ों के झुरमुट में मनाए जाते थे। गांव की सार्वजनिक सभा इसी स्थान पर बैठकर गांव से संबंधित विषयों पर विचार करती थी। दिन भर तो ढेरों काम होते थे। सिंचाई के लिए नहरें खोदना, मवेशियों की देखभाल, औरतों के लिए सिलाई-बुनाई तथा घर व बच्चों की देख-रेख।
आज सुजाता बहुत थकी हुई थी। दिन की समाप्ति का स्वागत था क्योंकि अब वह घड़ी भर बैठकर विश्राम कर सकती थी और गौतम के विषय में सोच सकती थी। इधर मानों उसका जीवन उन्हीं के विषय में सोचने तथा उनके लिए प्रार्थना करने में ही बीत रहा था। वे महात्मा वस्तुतः उसके गांव, उरूवेला, के निकट वाले जंगल में रहने आए हुए थे तथा उसके पिता गांव के प्रमुख थे।
सुजाता ने गौतम के विषय में अनेक कथाएं सुन रखी थीं- कैसे उनके जन्म लेने के समय गूंगे बोलने लग गए थे, लंगड़े चलने लग गए थे और धरती फूलों से ढक गई थी। उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया और उन्हें पूरा सम्मान दिया गया क्योंकि गौतम कुल के उसके पिता कपिलवस्तु में रहने वाली शक्य जाति के मुखिया थे।
इकलौता पुत्र होने कारण इनके पिता ने इन्हें तीन मकान दिए- एक ग्रीष्म के लिए, एक शीत के लिए तथा एक वर्षा ऋतु के लिए। मकानों के चारों ओर बगीचे थे और सिद्धार्थ के आसपास सब प्रकार का सौंदर्य बिखरा था। परंतु गौतम बहुत उदास थे क्योंकि उन्होंने तीन ऐसे दृश्य देखे थे जिन्हें वे भुला न पाते थे और जिनके कारण उन्हें नींद तक न आती थी। वे दृश्य थे बीमारी, बुढ़ापा तथा मृत्यु के। वे समझ नहीं पाए कि मनुष्य रोगग्रस्त क्यों होते हैं, उन पर बुढ़ापा क्यों आता है और उनकी मृत्यु क्यों होती है।
अतः, एक रात गौतम ने अपना सुंदर महल त्याग दिया। अपनी पत्नी एवं पुत्र को, अपने शानदार वस्त्रों व आभूषणों को त्याग दिया। एक संन्यासी का वेश बना कर वे सारे संसार में, सारे दुखों को मिटा देने वाला उत्तर खोजने के लिए निकल पड़े।
अपने पिता का महल त्याग देने तथा अत्यंत कठोर तपस्या करने पर भी गौतम अंतिम उत्तर नहीं खोज पाए और उनके अनेक अनुयायी उन्हें छोड़ गए।
यह सब तथा और भी, सुजाता ने सुन रखा था। अब वे निरंजना नदी के तट पर उसके घर के समीप निवास कर रहे थे।
इन्हीं विचारों में मग्न बैठी सुजाता ने प्रार्थना की कि गौतम को शीघ्र ही "बोध" की प्राप्ति हो जाए। वह नहीं जानती थी कि बोध क्या था, परंतु अतना जानती थी कि वह अवश्य कोई महत्वपूर्ण वस्तु है जिसके लिए एक मनुष्य अपना महल त्याग कर भिक्षुक बन गया है। "काश, किसी भांति, मैं उनकी इच्छा-पूर्ति में सहयोग दे पाती।" उसने सोचा। पिछले कई दिनों में उसने आठ सौ लोगों को भोजन कराया था, इसी आशा में कि किसी प्रकार यह भोजन उन तक पहुंच जाए। पर कोई लाभ नहीं हुआ। गौतम उपवास कर रहे थे।
उस रात सुजाता दुखी मन से यही सोचती सो गई कि किस प्रकार वह उनके कुछ काम आए। नींद आने के समय उसके मन में अंतिम विचार पीपल के वृक्ष के नीचे अकेले गौतम के बारे में था और उसने स्वप्न देखा कि कोई आकर उससे कह रहा है कि गौतम ने उपवास समाप्त कर दिया है। वे पुनः भोजन ग्रहण करने के इच्छुक हैं और उसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई है।
पर्वतों पर उषा के मंद-गति से आगमन के साथ सुजाता चौंक कर उठी। उत्साह के कारण उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। उसने अपनी दासी राधा को जगाया। दो षड्यंत्रकारियों के समान वे चुपके से घर के बाहर आई और अपनी सर्वश्रेष्ठ आठ गायों का दूध दुहा। फिर चमकते नए बर्तनों में उस दूध को उबाल कर चावल मिलाए तथा खाने लायक गाढ़ा होने तक उसे पकाया।
इस डर से कि कहीं काम निबटने से पूर्व गौतम चले न जाएं, उसने राधा को वह स्थान देखने भेजा। वह जानती थी कि गौतम वहां होंगे। वह लड़की बड़े उत्साह से वापस दौड़ी आई और बोली ‘हे स्वामिनी! उस वृक्ष में कोई वन-देवता है और सारी जगह पर ऐसा प्रकाश है मानो आग जल रही हो।‘
सुजाता का मन उल्लास से भर गया क्योंकि वह जान गई कि गौतम अभी वहीं हैं। वह एक सोने का पात्र लाई और उसमें खीर डाली, फिर एक पतले, सफेद मलमल के टुकड़े से ढांप दिया। वह स्वयं उसे अपने सिर पर रख कर ले गई और राधा सहमी हुई उसके पीछे-पीछे गई। वे दोनों पीपल के पेड़ के समीप पहंुची और सुजाता ने खीर का पात्र गौतम के हाथ में देते हुए कहा "हे प्रभु! मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए। आपको भी वैसा ही आनंद प्राप्त हो जैसा मुझे मिला है- और आगे शीश नवा कर मन में यह हर्ष लिए वह चल पड़ी कि वह गौतम की सेवा कर पाई।"
गौतम ने आभार प्रकट करते हुए खीर ले ली। उसे खाने से पूर्व स्नान करके वस्त्र बदलने के लिए वे नदी पर गए। अपना उपवास तोड़ने के बाद उन्होंने पात्र को लेकर नदी में फेंकते हुए कहा, 'यदि मुझे आज ज्ञान प्राप्त होना है तो यह पात्र ऊपर की ओर बह जाए, यदि नहीं, तो यह नीचे की ओर बह जाए। निश्चय ही वह ऊपर की ओर बह गया और उसी दिन भगवान् गौतम बुद्ध ने जीवन की एक नई पद्धति खोज ली जिससे वे और संपूर्ण मानवजाति दुख तथा वेदना से ऊपर उठने में समर्थ हो गए।'
गंगा और राजकुमार शांतनु
एक अत्यंत रूपवान राजकुमार था शांतनु। वह न केवल एक बुद्धीमान एवं योग्य राजा था बल्कि शिकार खेलना भी उसे बहुत पसंद था। वह प्रायः घोड़े पर सवार वनों में घूमता रहता था। परंतु उसे केवल एक ही दुख था। उसे अब तक सुंदर कन्या नहीं मिली थी जो उसकी रानी बनने योग्य हो।
एक दिन गंगा नदी के तट पर घूमते हुए शांतनु ने वृक्ष के तले सोई एक कन्या को देखा। बादलों के समान केश उसके कोमल मुख को घेरे थे और उसके अंगों का सौंदर्य ऐसा था कि राजकुमार सांस रोके खड़ा उसे देखता रहा। आखिर वह हिली और उसे देखने लगी। उसकी आंखों में चमक थी, भय तो उसमें लेशमात्र न था।
बहुत समय तक वे एक दूसरे को देखते रहे। मन नही मन राजकुमार ने निश्चय किया कि वह इसी कन्या को अपनी रानी बनाएगा। 'हे रूपवती कन्या', वह बोला, 'संपूर्ण राज्य में खोज करने के पश्चात् तुम्हें ही अपनी पत्नी बनाने योग्य पाया है। मेरे साथ महल में चलो और मेरी रानी बनो।'
कन्या ले लज्जा अपनी आंखे झुका ली और धीमे स्वर में बोली ‘हे राजकुमार! टापकी रानी बनने में मुझे प्रसन्नता होगी। परंतु मुझपर एक श्राप है। पत्नी के रूप में मैं चाहे कुछ भी करूं तुम कभी मुझसे कठोर वचन न कहोगे। तुम्हारे ऐसा करने पर मुझे तुमको छोड़ कर जाना होगा।‘
राजकुमार ने उत्तर दिया, 'हे देवकन्या, तथास्तु।' और वह उसको अपने घोड़े पर बैठा कर अपने महल में ले गया।
वे सचमुच आनंदपूर्वक रहने लगे और राजकुमार ने कभी उससे कोई ऐसे वचन न कहे जो प्रेमपूरित न हों।
शीघ्र ही उनके एक पुत्र का जन्म हुआ। राजा को यह देख कर घोर दुख हुआ कि उसकी रानी ने पुत्र को गंगा नदी में बहा दिया।
श्राजकुमार को कुछ कहने का साहस न हुआ। उनके छह और पुत्र हुए, उसने उन सब को नदी में बहा दिया। परंतु ज बवह आठवें पुत्र को बहाने लगी तो राजा स्वयं को रोक न पाया। 'मैं एक राक्षसी से विवाह किया है,' उसने सोचा, 'इसके आकर्षक मुख के पीछे एक पापी हृदय छिपा है।' और वह बड़े क्रोध से उससे बोला, 'तुम कौन हो?' उसने पूछा, 'क्या तुम कोई हत्यारिन हो जो मेरा सर्वनाश करने आई हो?' उसका चेहरा कठोर एवं क्षमारहित था।
वह उसकी ओर मुड़ी, वह पहले से कहीं अधिक सुंदर दिखाई दे रही थी। 'हे राजन!' उसने मधुर स्वर में कहा, 'तुम्हारी महान सहनशक्ति पर मैं चकित हूं और इसके लिए तुम्हें निश्चय ही सुफल प्राप्त होगा। पर मुझे तुम्हें छोड़कर जाना होगा क्योंकि तुमने मुझसे कठोर वचन कहे हैं। मैं गंगा हूं, इस नदी की पुत्री। देवताओं ने मुझे तुम्हारे पास भेजा था। जिन सात पुत्रों को मैंने नदी में बहा दिया वे दिव्य थे जिन्हें श्रापवश इस धरती पर जन्म लेना पड़ा पर वे जन्म लेते ही इस जीवन से मुक्ति पाना चाहते थे। आठवें को धरती पर लंबा जीवन जीने का श्राप मिला है।'
'इनकी मां बनने के लिए मैंने मानव शरीर धारण किया। मेरा काम हो गया और मुझे तुमको छोड़ना होगा। जिस पुत्र को तुमने बचाया है उसकी अच्छी देखभाल करना तथा मेरी खातिर इसका नाम गांगेय रखना।' ऐसा कहकर वह देवी अंतर्धान हो गई और राजा उदास होकर महल लौट आया।
बाद में गांगेय का नाम भीष्म पड़ा, जो एक आदर्श पुरूष बने।
भाग्य का फंदा
एक विद्वान और शक्तिशाली राजा था। उसे अपनी अपार संपत्ति और विस्तृत राज्य के होने पर भी एक घोर दुख था। उसकी कोई संतान न थी। अतः उसने देवताओं से प्रार्थना की और अंत में एक दिन जगत् की देवी ने स्वप्न में उसे दर्शन दिए। "मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं," वह बोली, 'और मैं जानती हूं संसार में तुम्हारी सबसे बड़ी इच्छा क्या है।' ऐसा कहकर वह अंतर्ध्यान हो गई।
कुछ महीने बीत गए। रानी ने राजा के यहां एक पुत्री, सावित्री को जन्म दिया जिसका सौंदर्य कल्पनातीत था। उसके निकट आने वाले सभी उसके रूप से मुग्ध हो जाते थे।
जैसे-जैसे वर्ष बीतने लगे, सावित्री इतनी रूपवती हो गई कि ज बवह वन में घुमती तो पक्षी गाने लगते और फूल उसके नन्हे पैरों के तले कालीन बिछाने के लिए अपनी पंखुड़ियां गिरा देते।
सावित्री के सौंदर्य की कीर्ति सर्वत्र फैल गई। पड़ोस के राज्यों के सभी युवा राजकुमारों ने विवाह के लिए उसका हाथ मांगा। पर राजकुमारी ने मुस्करा कर सभी राजकुमारों को मना कर दिया।
उसके पिता, महाराज बहुत दुखी हो गए। उन्होंने सावित्री को अपने पास बुलाया और कहा, "बेटी, अब तुम बड़ी हो गई हो। तुम्हारा विवाह हो जाना ही उचित है। इतने सारे राजकुमार आए और ऐसे ही लौट गए। तुम किसे अपना पति चुनना चाहती हो?"
'प्रिय पिता जी', सावित्री ने उत्तर दिया, "आप मेरे लिए चिंतित हैं, इसका मुझे दुख है। मुझे संसार में जाकर अपना पति खोजने की अनुमति दीजिए। जब मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाएगा जिससे मैं विवाह कर सकूं, तब मैं आपके पास लौट आऊंगी।"
अतः अपनी सुपुत्री से स्नेह करने वाले राजा ने सावित्री के संरक्षण के लिए सर्वश्रेष्ठ सैनिकों को चुना और दासियों को उसकी सेवा में नियुक्त कर दिया। राजकुमारी संपूर्ण राज्य में घूमती रही - सूखे मैदानों में, बर्फ से ढके पहाड़ों पर। एक दिन थकी-मांदी राजकुमारी ने एक हरा-भरा व शीतल प्रतीत होने वाला वन देखा जहां पेड़ों की घनी छाया थी और चिड़ियां मधुर स्वर से गा रही थी। वह अपने परिचारकों को पीछे छोड़कर अकेली वन में चली गई।
उस वन में एक राजा निवास करता था। युद्ध में हारे हुए उस राजा का राज्य छिन गया था और वह बुरे दिन काट रहा था। वह बूढ़ा और अंधा था और अपनी पत्नी तथा पुत्र के साथ एक छोटी सी कुटिया में रहता था। उसका पुत्र अब बड़ा होकर अपने माता-पिता का एकमात्र आश्रय था। पुत्र एक सदाचारी नवयुवक था और व नही उसका घर बन चुका था। वह हर पगडंडी से परिचित था, हर पेड़, हर झाड़ी से उसे प्रेम था। उसे पूरा ज्ञान था कि कौन से वृक्ष ग्रीष्म ऋतु में फलते-फूलते हैं और कौन से शीत काल में। वह लकड़ी काटता और गांवों में उसे बेचता। उन पैसों से वह अपने माता-पिता के लिए भोजन जुटाता था।
यद्यपि वह उदास होता होगा कि उसके कोई साथी नहीं हैं, घुड़सवारी के लिए उसके पास घोड़े नहीं हैं, परंतु उसने एक बार भी अपने माता-पिता को इसका आभास न होने दिया। वास्तव में ऐसे क्षण बहुत विरल थे क्योंकि वन के पेड़ों, फूलों और पशुओं से उसने मित्रता कर ली थी। वह प्रायः कल्पना में आकाश में बादल रूपी घोड़े पर सूर्योदयों और सूर्यास्तों के देशों में घूमता रहता। उसके पिता, उसकी माता और स्वयं वह मिल-जुलकर कर बहुत आनंदपूर्वक रहते थे क्योंकि उनमें परस्पर अत्यधिक प्रेम व सौहार्द था।
सावित्री इनकी कुटिया पर जा चहुंची। इन तीनों की सादगी देखकर वह इनकी ओर आकर्षि हो गई। जब उसने देवता स्वरूप एक युवा बेटे को अपने माता-पिता के साथ ऐसा विनम्र व्यवहार करते देखा तो जान गई कि उसकी खोज समाप्त हो गई है।
सावित्री तुरंत पिता के पास लौट आई और उसकी बात सुनकर राजा की आंखों में खुशी की चमक आ गई। परंतु जब उन्होंने जाना कि सावित्री ने एक निर्धन राजकुमार को चुना है तो वे उदास हो गए। परंतु उसका निश्चय इतना दृढ़ था कि उन्होंने स्वीकृति दे दी।
पास से गुजरते एक बुद्धीमान ऋषि ने राजकुमारी की बातें सुन लीं। सुनने के पश्चात वे राजा के पास गए। "महाराज," वे बोले, "मैं उस युवा राजकुमार को जानता हूं। उसका नाम सत्यवान है और उसकी दयालुता गांवों में सर्वविदित है। पर उसे एक घातक श्राप मिला हुआ है। एक वर्ष के भीतर ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।"
यह भयंकर समाचार सुनकर राजा कांप उठा। कमल के समान अपने नेत्रों में उमड़ते आंसू लिए खड़ी अपनी बेटी की ओर मुड़ कर उसने कहा, "किसी अन्य का वरण कर लो। तुम इस राजकुमार से विवाह नहीं कर सकती जिसके भाग्य में मृत्यु लिखी है।"
"पिता जी," सावित्री ने उत्तर दिया, "यह श्राप सचमुच भयानक है। पर मैं उसी से प्रेम करती हूं और उसी से विवाह करूंगी। मैं निश्चय बदल नहीं सकती।" दुखी मन से राजा से स्वीकृति दे दी।
विवाह के लिए सावित्री ने सोने के तार से बुनी अद्भुत, भव्य पोशाक धारण की और अपने काले बालों को गहरे लाल माणिक्यों से सजाया। मोतियों के गुच्छों की माला बनाई गई और कानों में पन्नों के कुंडल पहनाए गए। पूरे महल में श्वेत चमेली के फूल टंगे थे और छोटे-छोटे तारों से दीपक महल के कोने-कोने में टिमटिमा रहे थे। विवाह के उपरांत एक महाभोज का आयोजन हुआ। लोग अभी खुशियां मना रहे थे कि राजकुमारी ने एक सादी सी लाल सूती साड़ी पहनी और अपने आभूषण अपने पिता की तिजोरी में रख दिए। हाथ में हाथ लेकर सावित्री व सत्यवान जंगल में अपनी सादी कुटिया में चले गए।
एक वर्ष तक वे सुखपूर्वक रहे। किसी पत्नी ने कभी भी न तो इतना प्रेम किया होगा न पाया होगा जितना सावित्री ने। जैसे-जैसे दिन बीते सावित्री के मन में पति से संबंधित भयानक रहस्य का खटका बढ़ता गया। वर्ष का अंतिम दिवस आया। सावित्री तड़के ही उठ गई। जब सत्यवान् ने वन में लकड़ी काटने जाने के लिए अपनी कुल्हाड़ी उठाई तो अपनी पत्नी को बाहर प्रतीक्षा करते पाया।
"प्रिय नाथ," वह बोली, "कृपया मुझे अपने साथ चलने की अनुमति दे दीजिए। आज सारे दिन आपके साथ रहने की मेरी बड़ी इच्छा है।"
सत्यवान् ने 'ना' नहीं कहा, वह तो जंगल में सावित्री को साथ ले जाने से प्रसन्न था क्योंकि इससे समय जल्दी कट जाता था। ऊंचे वृक्षों के नीचे नरम हरे पत्तों का उसने एक बिछौना बनाया, उसके लिए माला बनाने के लिए फूल तोड़ लाया और स्वयं लकड़ी काटने लगा।
दोपहर होने तक सत्यवान को थकावट होने लगी। सावित्री उसे चिंताग्रस्त हो देख रही थी। कुछ देर बाद वह आया और उसकी गोद में अपना सिर रख कर लेट गया। "न जाने आज सूर्य इतना क्यों तप रहा है," वह बोला, "मेरा सिर दुख रहा है और मुझे थकान हो रही है। मुझे कुछ देर सो लेने दो।" उसने आंखे मूंद ली।
सावित्री ने अपना हाथ उसके माथे पर रखा जो तप रहा था। उसकी आंखों में आंसू उमड़ आए और मन में भय घिर आया।
सहसा पूरे वन में अंधकार हो गया। पत्तों की सरसराहट व चिड़ियों का चहचहाना थम गया और गहरा सन्नाटा फैल गया। सावित्री ने डरते हुए सामने देखा। उसके सामने एक ऊंची आकृति खड़ी थी। उसने अपने हाथ में एक फंदा पकड़ रखा था। वह उसका मुख न देख पाई क्योंकि उसके सब ओर एक परछाई थी। सावित्री की नस-नस कांप उठी।
"तुम कौन हो," उसने धीरे से पूछा।
"मैं यम हूं, मृत्यु का देवता। मैं तुम्हारे पति को ले जाने आया हूं।" उसने नीचे देखा जहां सत्यवान लेटा था और नवयुवक के प्राण उसके शरीर को छोड़ कर यम देवता के पास चले गए। यम जाने को मुड़े पर सावित्री तेजी से उनके पीछे भागी।
"हे प्रभु," उसने विनती की "क्या आप इस तरह सत्यवान् को लेकर और मुझे यहां छोड़कर जा सकते हैं? मुझे भी मृतकों के लोक में ले चलिए या सत्यवान के प्राण लौटा दीजिए।"
उसका शोक देखकर यमराज ने उत्तर दिया, "अभी तुम्हारा काल नहीं आया है, पुत्री। अपने घर लौट जाओ।"
परंतु सावित्री जल्दी में गिरती पड़ती उनका पीछा करती रही। यमराज मुड़े और उससे सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त कोई भी अन्य वर मांगने को कहा।
"मेरे ससुर को पुनः दृष्टि मिल जाए," सावित्री ने मांगा।
"तथास्तु," यमराज बोले। "अब, लौट जाओ।"
पर वह वापस लौटने वाली नहीं थी। वह उनका पीछा करती गई जबतक उन्होंने उसे एक और वरदान फिर एक और वरदान नहीं दे दिया। अंत में सावित्री ने मांगा, "मेरे सुयोग्य पुत्र हों।"
"हां, तुम्हारे ऐसे पुत्र होंगे जो महान कर्म करेंगे"
"हे! पूज्यवर," सावित्री बोली, ‘अपने पति सत्यवान के बिना मैं पुत्रों की माता कैसे बन सकती हूं? इसीलिए आपसे प्रार्थना करती हूं, उसके प्राण लौटा दीजिए।"
यमराज हार गए। उन्हें प्राण लौटाने पड़े।
सावित्री तुरंत वन को लौटी जहां सत्यवान का शरीर पड़ा था। वह धीरे-धीरे उठा मानो गहरी नींद से जागा हो और वे दोनों जंगल से अपने घर को चले गए। वहां खूब खुशियां मनाई गई।