Bedtime Stories in Hindi
दोस्तों, शायद ही ऐसा कोई हो जिसने अपने बचपन में अपने दादा-दादी या नाना-नानी से 'बेडटाइम-स्टोरी' न सूनी हो। यह बच्चों को कहानी सुनाने की बहुत ही बेहतरीन परंपरागत शैली है। इससे न केवल बच्चों का बौद्धिक विकास होता है बल्कि बड़ों और बच्चों के बीच भावनात्मक लगाव भी दृढ़ होता है।
यहां हम बच्चों के लिए कुछ ऐसी ही कहानियों का संकलन दे रहे हैं। आप इन कहानियों को अपने बच्चों को जरूर सूनाएं।
- बहादुर भीम
- चतुर गीदड़ - चार दोस्तों की कहानी
- सृष्टि
- दयालु चरवाहा
- शिखंड़ी और भगवान शिव का वचन
- अमृत मंथन
- गंगा और राजकुमार शांतनु
- उत्तंक की गुरूदक्षिणा
- सुजाता और गौतम बुद्ध
- भाग्य का फंदा
- Tenali Ke 27 Famous Kisse (तेनालीराम के हास्य से भरे किस्से)
भाग्य का फंदा
एक विद्वान और शक्तिशाली राजा था। उसे अपनी अपार संपत्ति और विस्तृत राज्य के होने पर भी एक घोर दुख था। उसकी कोई संतान न थी। अतः उसने देवताओं से प्रार्थना की और अंत में एक दिन जगत् की देवी ने स्वप्न में उसे दर्शन दिए। "मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं," वह बोली, 'और मैं जानती हूं संसार में तुम्हारी सबसे बड़ी इच्छा क्या है।' ऐसा कहकर वह अंतर्ध्यान हो गई।
कुछ महीने बीत गए। रानी ने राजा के यहां एक पुत्री, सावित्री को जन्म दिया जिसका सौंदर्य कल्पनातीत था। उसके निकट आने वाले सभी उसके रूप से मुग्ध हो जाते थे।
जैसे-जैसे वर्ष बीतने लगे, सावित्री इतनी रूपवती हो गई कि ज बवह वन में घुमती तो पक्षी गाने लगते और फूल उसके नन्हे पैरों के तले कालीन बिछाने के लिए अपनी पंखुड़ियां गिरा देते।
सावित्री के सौंदर्य की कीर्ति सर्वत्र फैल गई। पड़ोस के राज्यों के सभी युवा राजकुमारों ने विवाह के लिए उसका हाथ मांगा। पर राजकुमारी ने मुस्करा कर सभी राजकुमारों को मना कर दिया।
उसके पिता, महाराज बहुत दुखी हो गए। उन्होंने सावित्री को अपने पास बुलाया और कहा, "बेटी, अब तुम बड़ी हो गई हो। तुम्हारा विवाह हो जाना ही उचित है। इतने सारे राजकुमार आए और ऐसे ही लौट गए। तुम किसे अपना पति चुनना चाहती हो?"
‘प्रिय पिता जी,‘ सावित्री ने उत्तर दिया, "आप मेरे लिए चिंतित हैं, इसका मुझे दुख है। मुझे संसार में जाकर अपना पति खोजने की अनुमति दीजिए। जब मुझे कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाएगा जिससे मैं विवाह कर सकूं, तब मैं आपके पास लौट आऊंगी।"
अतः अपनी सुपुत्री से स्नेह करने वाले राजा ने सावित्री के संरक्षण के लिए सर्वश्रेष्ठ सैनिकों को चुना और दासियों को उसकी सेवा में नियुक्त कर दिया। राजकुमारी संपूर्ण राज्य में घूमती रही - सूखे मैदानों में, बर्फ से ढके पहाड़ों पर। एक दिन थकी-मांदी राजकुमारी ने एक हरा-भरा व शीतल प्रतीत होने वाला वन देखा जहां पेड़ों की घनी छाया थी और चिड़ियां मधुर स्वर से गा रही थी। वह अपने परिचारकों को पीछे छोड़कर अकेली वन में चली गई।
उस वन में एक राजा निवास करता था। युद्ध में हारे हुए उस राजा का राज्य छिन गया था और वह बुरे दिन काट रहा था। वह बूढ़ा और अंधा था और अपनी पत्नी तथा पुत्र के साथ एक छोटी सी कुटिया में रहता था। उसका पुत्र अब बड़ा होकर अपने माता-पिता का एकमात्र आश्रय था। पुत्र एक सदाचारी नवयुवक था और व नही उसका घर बन चुका था। वह हर पगडंडी से परिचित था, हर पेड़, हर झाड़ी से उसे प्रेम था। उसे पूरा ज्ञान था कि कौन से वृक्ष ग्रीष्म ऋतु में फलते-फूलते हैं और कौन से शीत काल में। वह लकड़ी काटता और गांवों में उसे बेचता। उन पैसों से वह अपने माता-पिता के लिए भोजन जुटाता था।
यद्यपि वह उदास होता होगा कि उसके कोई साथी नहीं हैं, घुड़सवारी के लिए उसके पास घोड़े नहीं हैं, परंतु उसने एक बार भी अपने माता-पिता को इसका आभास न होने दिया। वास्तव में ऐसे क्षण बहुत विरल थे क्योंकि वन के पेड़ों, फूलों और पशुओं से उसने मित्रता कर ली थी। वह प्रायः कल्पना में आकाश में बादल रूपी घोड़े पर सूर्योदयों और सूर्यास्तों के देशों में घूमता रहता। उसके पिता, उसकी माता और स्वयं वह मिल-जुलकर कर बहुत आनंदपूर्वक रहते थे क्योंकि उनमें परस्पर अत्यधिक प्रेम व सौहार्द था।
सावित्री इनकी कुटिया पर जा चहुंची। इन तीनों की सादगी देखकर वह इनकी ओर आकर्षि हो गई। जब उसने देवता स्वरूप एक युवा बेटे को अपने माता-पिता के साथ ऐसा विनम्र व्यवहार करते देखा तो जान गई कि उसकी खोज समाप्त हो गई है।
सावित्री तुरंत पिता के पास लौट आई और उसकी बात सुनकर राजा की आंखों में खुशी की चमक आ गई। परंतु जब उन्होंने जाना कि सावित्री ने एक निर्धन राजकुमार को चुना है तो वे उदास हो गए। परंतु उसका निश्चय इतना दृढ़ था कि उन्होंने स्वीकृति दे दी।
पास से गुजरते एक बुद्धीमान ऋषि ने राजकुमारी की बातें सुन लीं। सुनने के पश्चात वे राजा के पास गए। "महाराज," वे बोले, "मैं उस युवा राजकुमार को जानता हूं। उसका नाम सत्यवान है और उसकी दयालुता गांवों में सर्वविदित है। पर उसे एक घातक श्राप मिला हुआ है। एक वर्ष के भीतर ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।"
यह भयंकर समाचार सुनकर राजा कांप उठा। कमल के समान अपने नेत्रों में उमड़ते आंसू लिए खड़ी अपनी बेटी की ओर मुड़ कर उसने कहा, "किसी अन्य का वरण कर लो। तुम इस राजकुमार से विवाह नहीं कर सकती जिसके भाग्य में मृत्यु लिखी है।"
"पिता जी," सावित्री ने उत्तर दिया, "यह श्राप सचमुच भयानक है। पर मैं उसी से प्रेम करती हूं और उसी से विवाह करूंगी। मैं निश्चय बदल नहीं सकती।" दुखी मन से राजा से स्वीकृति दे दी।
विवाह के लिए सावित्री ने सोने के तार से बुनी अद्भुत, भव्य पोशाक धारण की और अपने काले बालों को गहरे लाल माणिक्यों से सजाया। मोतियों के गुच्छों की माला बनाई गई और कानों में पन्नों के कुंडल पहनाए गए। पूरे महल में श्वेत चमेली के फूल टंगे थे और छोटे-छोटे तारों से दीपक महल के कोने-कोने में टिमटिमा रहे थे। विवाह के उपरांत एक महाभोज का आयोजन हुआ। लोग अभी खुशियां मना रहे थे कि राजकुमारी ने एक सादी सी लाल सूती साड़ी पहनी और अपने आभूषण अपने पिता की तिजोरी में रख दिए। हाथ में हाथ लेकर सावित्री व सत्यवान जंगल में अपनी सादी कुटिया में चले गए।
एक वर्ष तक वे सुखपूर्वक रहे। किसी पत्नी ने कभी भी न तो इतना प्रेम किया होगा न पाया होगा जितना सावित्री ने। जैसे-जैसे दिन बीते सावित्री के मन में पति से संबंधित भयानक रहस्य का खटका बढ़ता गया। वर्ष का अंतिम दिवस आया। सावित्री तड़के ही उठ गई। जब सत्यवान् ने वन में लकड़ी काटने जाने के लिए अपनी कुल्हाड़ी उठाई तो अपनी पत्नी को बाहर प्रतीक्षा करते पाया।
"प्रिय नाथ," वह बोली, "कृपया मुझे अपने साथ चलने की अनुमति दे दीजिए। आज सारे दिन आपके साथ रहने की मेरी बड़ी इच्छा है।"
सत्यवान् ने 'ना' नहीं कहा, वह तो जंगल में सावित्री को साथ ले जाने से प्रसन्न था क्योंकि इससे समय जल्दी कट जाता था। ऊंचे वृक्षों के नीचे नरम हरे पत्तों का उसने एक बिछौना बनाया, उसके लिए माला बनाने के लिए फूल तोड़ लाया और स्वयं लकड़ी काटने लगा।
दोपहर होने तक सत्यवान को थकावट होने लगी। सावित्री उसे चिंताग्रस्त हो देख रही थी। कुछ देर बाद वह आया और उसकी गोद में अपना सिर रख कर लेट गया। "न जाने आज सूर्य इतना क्यों तप रहा है," वह बोला, "मेरा सिर दुख रहा है और मुझे थकान हो रही है। मुझे कुछ देर सो लेने दो।" उसने आंखे मूंद ली।
सावित्री ने अपना हाथ उसके माथे पर रखा जो तप रहा था। उसकी आंखों में आंसू उमड़ आए और मन में भय घिर आया।
सहसा पूरे वन में अंधकार हो गया। पत्तों की सरसराहट व चिड़ियों का चहचहाना थम गया और गहरा सन्नाटा फैल गया। सावित्री ने डरते हुए सामने देखा। उसके सामने एक ऊंची आकृति खड़ी थी। उसने अपने हाथ में एक फंदा पकड़ रखा था। वह उसका मुख न देख पाई क्योंकि उसके सब ओर एक परछाई थी। सावित्री की नस-नस कांप उठी।
"तुम कौन हो," उसने धीरे से पूछा।
"मैं यम हूं, मृत्यु का देवता। मैं तुम्हारे पति को ले जाने आया हूं।" उसने नीचे देखा जहां सत्यवान लेटा था और नवयुवक के प्राण उसके शरीर को छोड़ कर यम देवता के पास चले गए। यम जाने को मुड़े पर सावित्री तेजी से उनके पीछे भागी।
"हे प्रभु," उसने विनती की "क्या आप इस तरह सत्यवान् को लेकर और मुझे यहां छोड़कर जा सकते हैं? मुझे भी मृतकों के लोक में ले चलिए या सत्यवान के प्राण लौटा दीजिए।"
उसका शोक देखकर यमराज ने उत्तर दिया, "अभी तुम्हारा काल नहीं आया है, पुत्री। अपने घर लौट जाओ।"
परंतु सावित्री जल्दी में गिरती पड़ती उनका पीछा करती रही। यमराज मुड़े और उससे सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त कोई भी अन्य वर मांगने को कहा।
"मेरे ससुर को पुनः दृष्टि मिल जाए," सावित्री ने मांगा।
"तथास्तु," यमराज बोले। "अब, लौट जाओ।"
पर वह वापस लौटने वाली नहीं थी। वह उनका पीछा करती गई जबतक उन्होंने उसे एक और वरदान फिर एक और वरदान नहीं दे दिया। अंत में सावित्री ने मांगा, "मेरे सुयोग्य पुत्र हों।"
"हां, तुम्हारे ऐसे पुत्र होंगे जो महान कर्म करेंगे"
"हे! पूज्यवर," सावित्री बोली, ‘अपने पति सत्यवान के बिना मैं पुत्रों की माता कैसे बन सकती हूं? इसीलिए आपसे प्रार्थना करती हूं, उसके प्राण लौटा दीजिए।"
यमराज हार गए। उन्हें प्राण लौटाने पड़े।
सावित्री तुरंत वन को लौटी जहां सत्यवान का शरीर पड़ा था। वह धीरे-धीरे उठा मानो गहरी नींद से जागा हो और वे दोनों जंगल से अपने घर को चले गए। वहां खूब खुशियां मनाई गई।
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