Bhagwat Geeta in Hindi | संपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
भगवद्गीता इस संसार में ईश्वरवाद संबंधी विज्ञान का सबसे पुराना एवं सबसे व्यापक रूप से पढ़ा जाने वाला ग्रंथ है। गीतोपनिषद के नाम से
प्रख्यात भगवद्गीता, पिछले 4000 वर्षों से भी पूर्व से योग के विषय पर सबसे मुख्य पुस्तक रहा है। वर्तमान समय के अनेक सांसारिक साहित्यों के विपरीत, भगवद्गीता में किसी भी तरह की कोई भी मानसिक परिकल्पना नहीं है, और यह आत्मा, भक्ति-योग की प्रक्रिया, और परम-सत्य श्री कृष्ण के स्वभाव एवं पहचान के ज्ञान से परिपूर्ण है। इस रूप में, भगवद्गीता दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो प्रज्ञता और प्रबोधन में सभी अन्य ग्रंथों से ऊँचा है।
नीचे संपूर्ण Shrimad Hindi Bhagwat Geeta के 18 अध्यायों और 700 श्लोकों को अर्थ तथा व्याख्या सहित गीता के अलग-अलग अध्यायों में दिया गया हैं, जिसे आप नीचे प्रत्येक अध्याय के नाम पर क्लिक करके डाउनलोड कर पढ़ सकते हैं -
↓↓ श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्याय ↓↓
भगवद्गीता और धर्म | Bhagwat Geeta and Dharma
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम शब्द 'धर्म' है। कभी-कभी धर्म को गलत रूप से मजहब या मान्यता समझा जाता है, किंतु यह उचित नहीं है।
धर्म वह सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य या ज्ञान है जो हमारी चेतना को उच्च स्तर की ओर ले जाता है ताकि वह परम-सत्य के साथ सीधा संबंध स्थापित कर सके। इसे सनातन व शाश्वत धर्म के नाम से भी जाना जाता है, जो सभी जीवों की स्वाभाविक प्रकृती है। भवद्गीता धर्म शब्द से प्रारंभ होता है - अतः हम शुरूआत से ही समझ सकते हैं कि भगवद्गीता किसी हठधर्मिता या कट्टरपंथी विचारधारा के बारे में नहीं है। वास्तव में, भगवद्गीता परम-सत्य की अनुभूति करने लिए एक संपूर्ण विज्ञान है।
भगवद्गीता अवश्य एक विद्वतापूर्ण ग्रंथ है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उसके सरल व स्पष्ट उपदेशों को समझने के लिए किसी को विद्वान बनना पड़ेगा। निश्चित ही, अर्जुन, जो भवद्गीता के पहले छात्र थे, वे कोई विद्वान नहीं बल्कि एक योद्धा थे। भूतकाल में अनेक महान विद्वानों ने, गुरूओं ने, एवं आत्मबोध युक्त ज्ञानियों ने गीता के सहायक के तौर पर ज्ञानवर्धक टिप्पणियां लिखी हैं - जैसे कि, उसका यथार्थ तात्पर्य, उसकी काव्यात्मकता, उसका सिद्धांत और उसकी गुप्त निधि- जिससे की उनके समय के तथा आगामी पीढ़ियों के लोगों को श्री कृष्ण के उपदेशों की बेहतर समझ हो।
भवद्गीता के उपदेश नित्य एवं अपरिवर्तनशील हैं, लेकिन समय, जिससे हम घिरे हुए हैं वह सदैव बदलता रहता है, इसलिए हमारे जीवन का दृष्टिकोण, हमारी प्रस्तुत परिस्थिति और हमारी आवश्यकताएं सदैव बदलती रहती हैं।
सत्रहवीं शताब्दी के विख्यात टीकाकार, श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार गीता के पहले छः अध्याय कर्म से सम्बन्धित हैं, अगले छः अध्याय भक्ति से, और अंत के छः अध्याय ज्ञान से संबंधित हैं। परन्तु
जीवन के सबसे जटिल प्रश्नों के उत्तर, गीता के सभी 18 अध्यायों में सर्वत्र पाए जाते हैं।
भगवद्गीता का इतिहास | Bhagwat Geeta Histroy in Hindi
अनादिकाल से भगवद्गीता पूर्व और पश्चिम दोनों के अनेक महान विचारकों तथा दार्शनिकों के लिए प्रेरणा का प्रधान स्त्रोत रहा है। बीते समय में, गीता पर पहला भाष्य आदि शंकराचार्य ने लिखा था, जो वे पहले आचार्य थे जिन्होंने गीता को एक पृथक ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया। तत्पश्चात्, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, श्रीधर स्वामी आदि जैसे महान गुरूओं ने श्रीमद्भागवतगीता पर भाष्य लिखे, जिससे आदि शंकराचार्य के निराकार अर्थ प्रकाशन के बिलकुल विपरीत, गीता का मूलभूत भक्तिपरक अभिप्राय व्यक्त हुआ।
पश्चिमी देशों में भगवद्गीता की अत्यधिक प्रशंसा, विद्वान व्यक्तियों तथा दार्शनिकों, जैसे कि हेनरी डेविड थोरेयू, आर्थर शोपेनहावर, कार्ल जंग, एवं हरमन हेस ने की है। गीता को पढ़ने के बाद, विख्यात अमरीकी ट्रैन्सेन्डेन्टलिस्ट राल्फ वाल्डो इमर्सन ने कहा-
"मैंने भवद्गीता द्वारा एक शानदार दिन पाया। वह सबसे पहले प्रस्तुत किताबों में एक है; इसे पढ़ते ऐसा लगता है जैसे कि एक साम्राज्य ही हमसे बात कर रहा हो, कुछ भी छोटा या अयोग्य नहीं, सब कुछ बृहत्, प्रशांत, सुसंगत, एक प्राचीन प्रज्ञा की वाणी जिसने किसी दूसरे युग और वातावरण में चिंतन के माध्यम से उन्हीं प्रश्नों को निपटा लिया है, जिन प्रश्नों से आज हम जूझ रहे हैं।" (Journals of Ralph Waldo Emerson)
महाभारत और भगवद्गीता | Geeta and Mahabharata in Hindi
मूलतः भगवद्गीता एक प्राचीन ऐतिहासिक महाकाव्य - महाभारत का अंश है, जिसकी रचना लगभग 3100 ईसा पूर्व में महामुनि व्यास ने की थी। श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्याय, महाभारत के भीष्म-पर्व नामक छठे काण्ड का अंश है, जिसमें कुल मिलाकर 117 अध्याय हैं। प्रारंभ में व्यासजी ने महाभारत के 8800 मूल श्लोकों को लिखा, तत्पश्चात् उनके शिष्य वैशम्पायन एवं सूत ने और भी ऐतिहासिक जानकारी उसमें शामिल की, जिससे अंत में महाभारत में 1,00,000 श्लोक हुए - होमर के इलियड (Iliad) से सात गुना बड़ा और किंग जेम्स बाइबल से पंद्रह गुना बड़ा।
महाभारत का अर्थ है 'बृहत भारत का इतिहास' जो दो झगड़ते राज परिवारों, पाण्डवों (पाण्डु के पुत्रों) और कौरवों (धृतराष्ट्र के पुत्रों) की कथा सुनाती है। पाण्डु और उनके भाई धृतराष्ट्र दोनों हस्तिनापुर के (आधुनिक समय की दिल्ली) कुरु राजवंश के वंशज थे। हालांकि धृतराष्ट्र ज्येष्ठ थे, वे जन्म से अंधे थे और इसलिए पाण्डु को राज सिंहासन सौंपा गया, जिससे वे उसके उत्तराधिकारी बन गए।
यद्यपि महाराज पाण्डु की असामयिक मृत्यु हो गई, और वे अपने पांच पुत्रों को छोड़ गए- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। जब पाण्डव अल्पवयस्क थे, उनके चाचा धृतराष्ट्र ने उनके प्रतिनिधि के तौर पर तब तक राजसिंहासन ग्रहण करने का निश्चय किया, जब तक की वे राज्य संभालने के योग्य न बन जाएं। लेकिन उनके अपने पुत्रों के प्रति अत्यधिक मोह के कारण, धृतराष्ट्र ने कपट प्रबंध किया जिससे की दुर्योधन के नेतृत्व में उनके अपने पुत्र राजसिंहासन के उत्तराधिकारी बन जाएं। इस परिणाम को पाने के लिए, अपने पिता की अनुमति सहित, दुर्योधन ने पाण्डवों की हत्या करने के लिए अनेक प्रयास किए। पितामह भीष्म, चाचा विदुर और शस्त्रगुरु द्रोण के बुद्धिपूर्ण मंत्रणा के बावजूद दुर्योधन ने अपने चचेरे भाइयों के विरुद्ध षड्यंत्र रचना जारी रखा। फिर भी, श्री कृष्ण की छत्रछाया में रहकर पाण्डव ने उसके सभी जानलेवा षड्यंत्रों को विफल बना दिया।
ऐतिहासिक तौर पर, श्री कृष्ण पाण्डु की पत्नी, रानी कुन्ती के भतीजे थे और इस हिसाब से वे पाण्डवों के ममेरे भाई थे। परन्तु कृष्ण केवल एक युवराज नहीं बल्कि स्वयं परम-पुरुष भगवान थे, जो पृथ्वी पर अपनी लीलाएं रचने एवं धर्म की स्थापना व प्रतिपादन लिए अवतीर्ण हुए थे। उनकी धर्मनिष्ठा के कारण पाण्डव सदैव कृष्ण के कृपापात्र थे।
अनेक जानलेवा प्रयासों के पश्चात, अंत में दुर्योधन पाण्डवों को खोटे पांसों के खेल की चुनौति देते हैं। दुर्योधन कपट से खेल जीत जाते हैं, और पाण्डव अपना राज्य खो बैठते हैं। परिणाम स्वरुप पाण्डवों को बलपूर्वक तेरह वर्षों के वनवास पर भेज दिया जाता है।
अपने तेरह वर्षों के वनवास की समाप्ति के पश्चात्, पाण्डव अपनी राजधानी में लौट आते हैं और दुर्योधन से अपना राज्य वापस करने का अनुरोध करते हैं। जब घमंडी दुर्योधन उन्हें साफ मना कर देते हैं, तब वे उनसे कम से कम पांच गाँव का राज्यधिकार मांगते हैं। इस पर दुर्योधन बेरुखी से जवाब देते हैं कि वे उन्हें एक सुई घुसाने के बराबर भी भूमि नहीं देंगे।
हालांकि पाण्डव, श्री कृष्ण को दूत बनाकर उन्हें दुर्योधन से संधि करने के लिए भेजते हैं, फिर भी दुर्योधन उनकी एक नहीं सुनता। अतः युद्ध अब अनिवार्य हो चुका था।
पश्चिम में सीरिया से लेकर पूर्व में चीन तक के शासक इस युद्ध में भाग लेने आए- अपनी राजनीतिक योजनाओं के अनुसार कुछ कौरवों के पक्ष में रहे, तो कुछ पाण्डवों की धार्मिकता के कारण वे पाण्डवों के पक्ष में रहे। इस भ्रातृघातक युद्ध के दौरान कृष्ण कहते हैं कि वे किसी भी पक्ष के लिए शस्त्र नहीं उठाएंगे, लेकिन वे अर्जुन के लिए उनके सारथी का पद स्वीकार करते हैं। तब 3138 ईसा पूर्व वर्ष के दिसंबर के मास में दोनों सेनाएँ कुरुक्षेत्र के पवित्र स्थान पर एकत्रित हुई।
वामन पुराण में कुरुक्षेत्र के महत्व का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि कैसे पाण्डव और कौरव वंश के पैतृक कुलपति, धर्मपरायण राजा कुरु ने कुरुक्षेत्र में घोर तपस्याएं की थी। इस कार्य के लिए, कुरु को दो वरदान दिए गए थे - पहला वर यह था कि उस क्षेत्र का नाम कुरु के नाम पर रखा जाएगा और दूसरा यह कि जो कोई भी कुरुक्षेत्र में देहत्याग करेगा उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रवचन कुरुक्षेत्र में युद्ध के पहले दिन हुआ था। जब दोनों सेनाएं युद्ध के लिए तैयार होती हैं, दृष्टिहीन धृतराष्ट्र अपने राजदरबार में अपने वफादार सेवक संजय के साथ बैठते हैं, और उनसे प्रश्न करते हैं कि धर्मनिष्ठ पाण्डव क्या कर रहे हैं। महामुनि व्यास के शिष्य संजय को दिव्य-दृष्टि का सौभाग्य प्राप्त था जिससे कि वे, रणभूमि से दूर, हस्तिनापुर में बैठकर ही युद्ध को देख सकते थे। संजय फिर वृद्ध राजा को श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच हुए पावन वार्तालाप को सुनाते हैं। इस प्रकार भवद्गीता को संजय ने सुना और मानव जाति की आध्यात्मिक भलाई के लिए उसे धृतराष्ट्र को दोहराया।
गीता से जुड़े कुछ प्रश्न-उत्तर | Geeta FAQ
प्रश्न 1. श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ क्या है?
श्री का अर्थ है - बहुत अधिक (चाहे वह धन हो, ज्ञान हो, बुद्धि हो या समझदारी हो)
मद् का अर्थ है - ज्ञान।
भगवत का अर्थ है - भगवान।
गीता का अर्थ है - गीता।
तो इसका अर्थ बना भगवान का वह गीता जो बहुत अधिक ज्ञान से भरा है।
प्रश्न 2. गीता की सबसे बड़ी सीख क्या है?
गीता की सबसे बड़ी सीख है, आदमी कर्ता बनकर अपने सारे महत्वपूर्ण कर्म जरुर करे तथा उस कर्म के फल की इच्छा न करे। स्वयं को पीड़ा देकर, देह को कष्ट पहुंचा कर तप करने से भगवान प्रसन्न नहीं होते; वे बिना किसी कामना के अपने कर्मों में लीन रहनेवाले आदमी से प्रसन्न रहते हैं, जो महत्वपूर्ण कर्म करते हुये हमेशा भगवान का ध्यान करता रहता है।