संपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या सहित | Bhagwat Geeta in Hindi
गीता परात्पर परब्रह्म पद्मनाभ परमेश्वर श्री कृष्ण के श्री मुख से निःसृत वह अमरवाणी है, जिसमें सत्य, सनातन, शाश्वत-धर्म का अमृत संदेश सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए दिया गया है। यह परमात्मा श्री कृष्ण की असीम अनुकम्पा का फल है, जो ब्रह्म ज्ञान के उत्कृष्ट ग्रन्थ रत्न के रूप में हमें गीता उपलब्ध है।
नीचे Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi पर भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद द्वारा लिखा गया अभी तक का सर्वश्रेष्ठ टीका दिया जा रहा है। इस टीके में श्रीमद्भगवद्गीता के सभी 18 अध्यायों को मूल संस्कृत पाठ, शब्दार्थ, अनुवाद तथा विस्तृत व्याख्या सहित दिया गया है। नीचे अध्यायों की सूची पर क्लिक कर आप इसे अपने मोबाइल फोन या लैपटॉप पर आसानी से पढ़ सकते हैं।
भगवद्गीता इस संसार में ईश्वरवाद संबंधी विज्ञान का सबसे पुराना एवं सबसे व्यापक रूप से पढ़ा जाने वाला ग्रंथ है। गीतोपनिषद के नाम से प्रख्यात भगवद्गीता पिछले 5000 वर्षों से भी पूर्व से योग के विषय पर सबसे मुख्य पुस्तक रहा है। वर्तमान समय के अनेक सांसारिक साहित्यों के विपरीत, भगवद्गीता में किसी भी तरह की कोई भी मानसिक परिकल्पना नहीं है और यह आत्मा, भक्ति-योग की प्रक्रिया और परम-सत्य श्री कृष्ण के स्वभाव एवं पहचान के ज्ञान से परिपूर्ण है। इस रूप में भगवद्गीता दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो प्रज्ञता और प्रबोधन में सभी अन्य ग्रंथों से ऊँचा है।
Bhagwat Geeta in Hindi | श्रीमद्भगवद्गीता
भगवद्गीता निःसंदेह पूरे विश्व में सबसे महान आध्यात्मिक ग्रंथों में से एक माना जाता है। कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में कही गई भगवद्गीता श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच ऐसी वार्ता है, जो मानवता के लिए आवश्यक अत्यंत मूलभूत तत्वों को उजागर करती है। युद्धभूमि में अपने चचेरे भाइयों को अपने सामने खड़ा देख अर्जुन भ्रमित हो जाते हैं और उनके प्रिय मित्र एवं मार्गदर्शक श्रीकृष्ण आध्यात्मिक एवं भौतिक तत्वों की विवेचना करके उनका भ्रम दूर करते हैं।
गीता क्यों पढ़े? | Why read Geeta in Hindi?
आपको गीता इसलिए पढ़नी चाहिए क्योंकि गीता आध्यात्मिक आदर्श-जीवन एवं सम्पूर्ण मानव-धर्म का अद्भुत महाकाव्य है। इसमें अर्जुन की भाँति द्वन्द्व में फँसे मोहग्रस्त मानव को सत्य-असत्य, कर्तव्य-अकर्तव्य की चेतना द्वारा वीर योद्धा की भाँति कर्म पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा दी गयी है। आध्यात्मिक-ज्ञान, योग, सन्यास एवं कर्म-सिद्धान्त के विस्तृत विवेचन के साथ ही इसमें शान्ति प्रदायिनी भक्ति तथा सत्य सनातन धर्म के गूढ़ तत्वों का निरुपण है।
गीता एक ऐसा जीवन दर्शन है, जिससे अनन्त काल से भटकते जिज्ञासु मानव की उन्नत एवं उदार आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ परम विश्रान्ति का भान होता है। यह सर्व सुलभ वह ईश्वरीय ज्ञान है, जो सत्कर्म तथा सद्धर्म से पलायन करते मनुष्य को धर्म संदेश द्वारा सर्वत्र विजय का वरदान देता है।
इसे योग का ऐसा कल्पवृक्ष भी कह सकते हैं जिससे लौकिक एवं पारलौकिक अनन्त आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। यहाँ ज्ञान, कर्म, भक्ति की त्रिवेणी का अद्भुत संगम है।
गीता हमें शांत, सुखी, स्वतंत्र, समृद्ध जीवन जीने की शक्ति प्रदान करती है। यह द्वन्द्व में फँसे व्यक्ति को द्वन्द्वमुक्त, सत्वस्थ होने का जीवन-सूत्र प्रस्तुत करती हैं। गीता में अनन्त जिजीविषा को समेटे उच्चतम तत्वज्ञान की अखण्ड धारा प्रवाहित है। इसमें ज्ञान का वह शाश्वत प्रवाह है, जो अनेक ऋषियों, महर्षियों, ज्ञानियों, ध्यानियों, मनीषियों द्वारा भिन्न-भिन्न दृष्टि से जाँचा-परखा गया है।
आनन्द का मूल स्रोत गीता शाश्वत शान्ति की चिन्मयी चिन्तामणि है। इसमें ब्रह्म विद्या के गूढ़ रहस्य एवं ज्ञान का सुस्पष्ट व्याख्यान है। गीता भौतिक जगत की कलुषित चेतना से मुक्ति का संदेश देती है। यह परात्पर परब्रह्म श्री कृष्ण के 'पाञ्चजन्य' का ऐसा जय घोष है, जिसमें सर्वत्र विजय ही विजय है। ज्ञानियों की दृष्टि में यह मात्र आध्यात्मिक जीवन का विस्तार ही नहीं अपितु सत्संकल्पों की सुगंधित सुमनाञजलि है। यह आध्यात्मिक क्षेत्र का सबसे बड़ा धार्मिक एवं दार्शनिक संवाद है, जिसमें सर्वज्ञ, योगेश्वर श्री कृष्ण महान उपदेष्टा तथा अर्जुन जैसा सुधी जिज्ञासु शिष्य विद्यमान है, जिसने भलीभाँति श्रद्धा एवं समर्पण का पाठ सीख लिया है। इसीलिए वह परमात्मा श्री कृष्ण से कल्याणकारी मार्ग एवं सद्ज्ञान की पुनः पुनः प्रार्थना करता है। संसार में जो पूर्ण श्रद्धावान विनत एवं समर्पण भाव रखने वाला है, वही गीता के पठन-पाठन चिन्तन मनन का अधिकारी हो सकता है।
गीता उन पुरुषों के लिए संजीवनी है, जो तत्वज्ञान से दूर मिथ्याज्ञान, मिथ्याकर्म एवं मिथ्या अभिमान में रहते हुए आजीवन कष्ट भोगते हैं।
गीता व्यक्ति को सुखी, निर्भय, निर्मुक्त, स्वतंत्र जीवन की कला प्रदान करती हैं। इसमें कर्म प्रेरणा के माध्यम से परम पुरुषार्थ का मार्ग प्रशस्त किया गया है। मानवता का महामन्त्र स्वधर्म का आचरण जीवन से अधिक मूल्यवान है। हमारे आध्यात्मिक ज्ञान तथा उत्कृष्ट कर्मों की सफलता भगवत्कर्मों को करते हुए सार्थक जीवन जीने में है। कर्मों को बंधनकारी समझकर कर्म त्याग करने वाले जीवन का सर्वस्व खो देते है। गीता शांत सुखी बनाकर अमृतमय रसधार से जीवन को सदैव सिंचित करने वाली अजस्र धारा है। सत्य ज्ञान के अभाव में बड़े-बड़े विद्वान बुद्धिमान भी कुतर्को कुमान्यताओं, अन्ध विश्वासों के जाल में फँसकर अनन्त दुःख भोगते रहते हैं। जब कि अभ्युदन एवं निःश्रेयस का सहज मार्ग गीता में उपलब्ध है।
गीता का अमर उपदेश - कर्मण्येवाधिकारस्ते | The immortal sermon of the Geeta in Hindi
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
यह गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोक है। गीता-विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें सम्पूर्ण गीता में वर्णित कर्मयोग का सार समाहित है। श्लोक का अर्थ इस प्रकार है -
हे अर्जुन! कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में कभी नहीं। कर्तव्य भाव को ही मुख्य रखो एवं कर्म के साथ फल की अपेक्षा मत जोड़ो। कदाचित् यह भी मत सोचना कि जब फल की अपेक्षा ही नहीं करनी तो कर्म किस लिए करना? कर्म तो अवश्य करना ही है, अतः कभी भी अकर्मण्यता में तुम्हारा संग (आसक्ति) नहीं होनी चाहिए।
कर्मयोग का अर्थ है -
कर्म एवं योग: अर्थात् कर्म को इस प्रकार किया जाए कि वह योग बन जाए। जैसे कोई समाधिप्राप्त योगी सर्वथा शांत, समतायुक्त एवं अक्षुब्ध रहता है। वैसा ही यदि कोई व्यक्ति कर्म करते हुए भी बन जाए तो वह 'कर्मयोगी' कहलाता है।
सामान्य व्यक्ति फल की इच्छा से कर्म करता है, फल मिलने पर प्रसन्न हो जाता है, न मिलने पर दुःखी रहता है। कहीं उसे फल मिलने की संभावना न हो तो कर्म करने का कष्ट ही नहीं करता। कभी बिना कर्म किए ही छल या अनुचित उपाय से फल पाने का प्रयास करता है। इस प्रकार कर्म करने वाले व्यक्ति का ध्यान फल पर केन्द्रित रहता है तथा उसके मिलने व न मिलने की स्थिति में क्रमशः हर्ष एवं विषाद से अभिभूत रहता हुआ असंतुलित बना रहता है। यह स्थिति कर्मयोगी की शांत, अक्षुब्ध एवं समतापूर्ण स्थिति से विपरीत बहुत ही हीन एवं अशांतिपूर्ण होती है।
प्रत्येक व्यक्ति का जो अपना कर्म है, उसी में उसका अधिकार है, अर्थात उसे ही करने का वह अधिकारी है। व्यक्ति अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपने नियत कर्तव्य को निष्ठा से निभाता रहे। प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले यज्ञ रूप निष्काम कर्म से यह समाजचक्र सुचारुरूप से संचालित रहता है।
अपना कर्म प्रत्येक व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, न वह छोटा है, न बड़ा। पूरी निष्ठा से संपादित तथाकथित रूप से छोटा माना जाने वाला स्वकर्म उतना ही महत्वपूर्ण है जितना किसी बड़े अधिकारी का कर्म।
इस प्रकार स्वकर्म से संतुष्ट व्यक्ति स्वयं भी प्रसन्न, शांत व समता की स्थिति में रहता है तथा उसके कर्म से परिवार, समाज व राष्ट्र भी लाभान्वित होते हुए सुव्यवस्थित रहते हैं। जब व्यक्ति इस कर्मनिष्ठा को उपेक्षित कर फल की कामना से प्रेरित होकर कर्म करने लगता है, तब उपर्युक्त सारी स्थितियाँ पलट जाती हैं।
इस प्रकार सकाम कर्म करने वाला व्यक्ति स्वयं भी अशांत रहता है तथा समाज का भी भारी अहित करता है। इसलिए कहा गया है कि फल में अर्थात फल की आसक्ति में व्यक्ति का अधिकार नहीं है। वस्तुतः वह इसके लिए अधिकृत ही नहीं है।
भगवद्गीता और महाभारत | Bhagavad Gita and Mahabharata in Hindi
मूलतः भगवद्गीता एक प्राचीन ऐतिहासिक महाकाव्य - महाभारत का अंश है, जिसकी रचना लगभग 3100 ईसा पूर्व में महामुनि व्यास ने की थी। श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्याय, महाभारत के भीष्म-पर्व नामक छठे काण्ड का अंश है, जिसमें कुल मिलाकर 117 अध्याय हैं। प्रारंभ में व्यासजी ने महाभारत के 8800 मूल श्लोकों को लिखा, तत्पश्चात् उनके शिष्य वैशम्पायन एवं सूत ने और भी ऐतिहासिक जानकारी उसमें शामिल की, जिससे अंत में महाभारत में 1,00,000 श्लोक हुए - होमर के इलियड (Iliad) से सात गुना बड़ा और किंग जेम्स बाइबल से पंद्रह गुना बड़ा।
महाभारत का अर्थ है 'बृहत भारत का इतिहास' जो दो झगड़ते राज परिवारों, पाण्डवों (पाण्डु के पुत्रों) और कौरवों (धृतराष्ट्र के पुत्रों) की कथा सुनाती है। पाण्डु और उनके भाई धृतराष्ट्र दोनों हस्तिनापुर के (आधुनिक समय की दिल्ली) कुरु राजवंश के वंशज थे। हालांकि धृतराष्ट्र ज्येष्ठ थे, वे जन्म से अंधे थे और इसलिए पाण्डु को राज सिंहासन सौंपा गया, जिससे वे उसके उत्तराधिकारी बन गए।
यद्यपि महाराज पाण्डु की असामयिक मृत्यु हो गई, और वे अपने पांच पुत्रों को छोड़ गए- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। जब पाण्डव अल्पवयस्क थे, उनके चाचा धृतराष्ट्र ने उनके प्रतिनिधि के तौर पर तब तक राजसिंहासन ग्रहण करने का निश्चय किया, जब तक की वे राज्य संभालने के योग्य न बन जाएं। लेकिन उनके अपने पुत्रों के प्रति अत्यधिक मोह के कारण, धृतराष्ट्र ने कपट प्रबंध किया जिससे की दुर्योधन के नेतृत्व में उनके अपने पुत्र राजसिंहासन के उत्तराधिकारी बन जाएं। इस परिणाम को पाने के लिए, अपने पिता की अनुमति सहित, दुर्योधन ने पाण्डवों की हत्या करने के लिए अनेक प्रयास किए। पितामह भीष्म, चाचा विदुर और शस्त्रगुरु द्रोण के बुद्धिपूर्ण मंत्रणा के बावजूद दुर्योधन ने अपने चचेरे भाइयों के विरुद्ध षड्यंत्र रचना जारी रखा। फिर भी, श्री कृष्ण की छत्रछाया में रहकर पाण्डव ने उसके सभी जानलेवा षड्यंत्रों को विफल बना दिया।
ऐतिहासिक तौर पर, श्री कृष्ण पाण्डु की पत्नी, रानी कुन्ती के भतीजे थे और इस हिसाब से वे पाण्डवों के ममेरे भाई थे। परन्तु कृष्ण केवल एक युवराज नहीं बल्कि स्वयं परम-पुरुष भगवान थे, जो पृथ्वी पर अपनी लीलाएं रचने एवं धर्म की स्थापना व प्रतिपादन लिए अवतीर्ण हुए थे। उनकी धर्मनिष्ठा के कारण पाण्डव सदैव कृष्ण के कृपापात्र थे।
अनेक जानलेवा प्रयासों के पश्चात, अंत में दुर्योधन पाण्डवों को खोटे पांसों के खेल की चुनौति देते हैं। दुर्योधन कपट से खेल जीत जाते हैं, और पाण्डव अपना राज्य खो बैठते हैं। परिणाम स्वरुप पाण्डवों को बलपूर्वक तेरह वर्षों के वनवास पर भेज दिया जाता है।
अपने तेरह वर्षों के वनवास की समाप्ति के पश्चात्, पाण्डव अपनी राजधानी में लौट आते हैं और दुर्योधन से अपना राज्य वापस करने का अनुरोध करते हैं। जब घमंडी दुर्योधन उन्हें साफ मना कर देते हैं, तब वे उनसे कम से कम पांच गाँव का राज्यधिकार मांगते हैं। इस पर दुर्योधन बेरुखी से जवाब देते हैं कि वे उन्हें एक सुई घुसाने के बराबर भी भूमि नहीं देंगे।
हालांकि पाण्डव, श्री कृष्ण को दूत बनाकर उन्हें दुर्योधन से संधि करने के लिए भेजते हैं, फिर भी दुर्योधन उनकी एक नहीं सुनता। अतः युद्ध अब अनिवार्य हो चुका था।
पश्चिम में सीरिया से लेकर पूर्व में चीन तक के शासक इस युद्ध में भाग लेने आए- अपनी राजनीतिक योजनाओं के अनुसार कुछ कौरवों के पक्ष में रहे, तो कुछ पाण्डवों की धार्मिकता के कारण वे पाण्डवों के पक्ष में रहे। इस भ्रातृघातक युद्ध के दौरान कृष्ण कहते हैं कि वे किसी भी पक्ष के लिए शस्त्र नहीं उठाएंगे, लेकिन वे अर्जुन के लिए उनके सारथी का पद स्वीकार करते हैं। तब 3138 ईसा पूर्व वर्ष के दिसंबर के मास में दोनों सेनाएँ कुरुक्षेत्र के पवित्र स्थान पर एकत्रित हुई।
वामन पुराण में कुरुक्षेत्र के महत्व का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि कैसे पाण्डव और कौरव वंश के पैतृक कुलपति, धर्मपरायण राजा कुरु ने कुरुक्षेत्र में घोर तपस्याएं की थी। इस कार्य के लिए, कुरु को दो वरदान दिए गए थे - पहला वर यह था कि उस क्षेत्र का नाम कुरु के नाम पर रखा जाएगा और दूसरा यह कि जो कोई भी कुरुक्षेत्र में देहत्याग करेगा उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रवचन कुरुक्षेत्र में युद्ध के पहले दिन हुआ था। जब दोनों सेनाएं युद्ध के लिए तैयार होती हैं, दृष्टिहीन धृतराष्ट्र अपने राजदरबार में अपने वफादार सेवक संजय के साथ बैठते हैं, और उनसे प्रश्न करते हैं कि धर्मनिष्ठ पाण्डव क्या कर रहे हैं। महामुनि व्यास के शिष्य संजय को दिव्य-दृष्टि का सौभाग्य प्राप्त था जिससे कि वे, रणभूमि से दूर, हस्तिनापुर में बैठकर ही युद्ध को देख सकते थे। संजय फिर वृद्ध राजा को श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच हुए पावन वार्तालाप को सुनाते हैं। इस प्रकार भवद्गीता को संजय ने सुना और मानव जाति की आध्यात्मिक भलाई के लिए उसे धृतराष्ट्र को दोहराया।
भगवद्गीता और धर्म | Bhagwat Geeta and Dharma in Hindi
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम शब्द 'धर्म' है। कभी-कभी धर्म को गलत रूप से मजहब या मान्यता समझा जाता है, किंतु यह उचित नहीं है।
धर्म वह सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य या ज्ञान है जो हमारी चेतना को उच्च स्तर की ओर ले जाता है ताकि वह परम-सत्य के साथ सीधा संबंध स्थापित कर सके। इसे सनातन व शाश्वत धर्म के नाम से भी जाना जाता है, जो सभी जीवों की स्वाभाविक प्रकृती है। भवद्गीता धर्म शब्द से प्रारंभ होता है - अतः हम शुरूआत से ही समझ सकते हैं कि भगवद्गीता किसी हठधर्मिता या कट्टरपंथी विचारधारा के बारे में नहीं है। वास्तव में, भगवद्गीता परम-सत्य की अनुभूति करने लिए एक संपूर्ण विज्ञान है।
भगवद्गीता अवश्य एक विद्वतापूर्ण ग्रंथ है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उसके सरल व स्पष्ट उपदेशों को समझने के लिए किसी को विद्वान बनना पड़ेगा। निश्चित ही, अर्जुन, जो भवद्गीता के पहले छात्र थे, वे कोई विद्वान नहीं बल्कि एक योद्धा थे। भूतकाल में अनेक महान विद्वानों ने, गुरूओं ने, एवं आत्मबोध युक्त ज्ञानियों ने गीता के सहायक के तौर पर ज्ञानवर्धक टिप्पणियां लिखी हैं - जैसे कि, उसका यथार्थ तात्पर्य, उसकी काव्यात्मकता, उसका सिद्धांत और उसकी गुप्त निधि- जिससे की उनके समय के तथा आगामी पीढ़ियों के लोगों को श्री कृष्ण के उपदेशों की बेहतर समझ हो।
भगवद्गीता के उपदेश नित्य एवं अपरिवर्तनशील हैं, लेकिन समय, जिससे हम घिरे हुए हैं वह सदैव बदलता रहता है, इसलिए हमारे जीवन का दृष्टिकोण, हमारी प्रस्तुत परिस्थिति और हमारी आवश्यकताएं सदैव बदलती रहती हैं।
सत्रहवीं शताब्दी के विख्यात टीकाकार, श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार गीता के पहले छः अध्याय कर्म से सम्बन्धित हैं, अगले छः अध्याय भक्ति से, और अंत के छः अध्याय ज्ञान से संबंधित हैं। परन्तु
जीवन के सबसे जटिल प्रश्नों के उत्तर, गीता के सभी 18 अध्यायों में सर्वत्र पाए जाते हैं।
अनादिकाल से भगवद्गीता पूर्व और पश्चिम दोनों के अनेक महान विचारकों तथा दार्शनिकों के लिए प्रेरणा का प्रधान स्त्रोत रहा है। बीते समय में, गीता पर पहला भाष्य आदि शंकराचार्य ने लिखा था, जो वे पहले आचार्य थे जिन्होंने गीता को एक पृथक ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया। तत्पश्चात्, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, श्रीधर स्वामी आदि जैसे महान गुरूओं ने श्रीमद्भागवतगीता पर भाष्य लिखे, जिससे आदि शंकराचार्य के निराकार अर्थ प्रकाशन के बिलकुल विपरीत, गीता का मूलभूत भक्तिपरक अभिप्राय व्यक्त हुआ।
पश्चिमी देशों में भगवद्गीता की अत्यधिक प्रशंसा, विद्वान व्यक्तियों तथा दार्शनिकों, जैसे कि हेनरी डेविड थोरेयू, आर्थर शोपेनहावर, कार्ल जंग, एवं हरमन हेस ने की है। गीता को पढ़ने के बाद, विख्यात अमरीकी ट्रैन्सेन्डेन्टलिस्ट राल्फ वाल्डो इमर्सन ने कहा-
"मैंने भवद्गीता द्वारा एक शानदार दिन पाया। वह सबसे पहले प्रस्तुत किताबों में एक है; इसे पढ़ते ऐसा लगता है जैसे कि एक साम्राज्य ही हमसे बात कर रहा हो, कुछ भी छोटा या अयोग्य नहीं, सब कुछ बृहत्, प्रशांत, सुसंगत, एक प्राचीन प्रज्ञा की वाणी जिसने किसी दूसरे युग और वातावरण में चिंतन के माध्यम से उन्हीं प्रश्नों को निपटा लिया है, जिन प्रश्नों से आज हम जूझ रहे हैं।" (Journals of Ralph Waldo Emerson)
FAQ on Geeta in Hindi
श्रीमद्भगवद्गीता शब्द का अर्थ क्या है?
भगवद्गीता' शब्द का अर्थ है 'श्रीभगवान् का गीत'। यह इंगित करता है कि स्वयं श्रीभगवान ने इसे कहा है। परन्तु अनेक टीकाकार इस सरल सत्य की काल्पनीक व्याख्या करते हैं। उदाहरणार्थ, वे कहते हैं कि हमें श्रीकृष्ण नहीं अपितु 'श्रीकृष्ण के भीतर अजन्मा परमेश्वर' गीता का ज्ञान दे रहा है। इस प्रकार वे अपनी काल्पनिक व्याख्याओं से गीता के ज्ञान को विकृत करते हैं।
आपको भगवद्गीता क्यों पढ़ना चाहिए?
आपको गीता इसलिए पढ़नी चाहिए क्योंकि दुनिया के लगभग हर व्यक्ति के मन में जीवन व जगत से जुड़े भ्रम और संशय हरपल उत्पन्न होते रहते हैं। पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, शुभ और अशुभ, सत्य और असत्य, उचित व अनुचित के साथ प्रकृति, जीव, ईश्वर, जीवन और मृत्यु, पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म आदि के विषय में हमेशा एक उलझन या असमंजस की स्थिति बनी रहती है। आम लोगों से लेकर विद्वानों तक के मन एवं हृदय में यह ऊहापोह या संशय की स्थिति बार-बार जन्म लेती है, इससे जीवन में एक अड़चन, अविश्वास, मानसिक तनाव, निराशा और आत्मग्लानि का भाव व विचार पैदा हो जाता है। व्यक्ति अंत में निराश और हताश होकर बैठ जाता है, कोई निर्णय नहीं ले पाता और परिणामस्वरूप बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति भी निराशा और हताशा के जंगल में फंस जाता है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण शरण में आये हुये अर्जुन को एक माध्यम बनाकर इस दुनिया के हर व्यक्ति को उसी हताशा, निराशा तथा मानसिक तनाव से बाहर निकलने और जीवन तथा जगत के भ्रम को दूर करने का उपदेश देते है।
दोस्तों, ऊपर डाउनलोड के लिए दिये गए Shrimad Bhagwat Geeta in Hindi के विषय को सरल बनाने के प्रयास के साथ हमने इसे स्पष्ट, सार्थक एवं सम्पूर्ण बनाने का प्रयास किया है। आशा है कि पाठक अपनी आध्यात्मिक सफलता एवं आनन्द की यात्रा में इस पुस्तक से सहायता प्राप्त करेंगे। आपकी यात्रा रोमांचकारी हो, यही हमारी कामना है। इस पथ पर सफलता प्राप्त करने में भगवान श्रीकृष्ण आपको आशीर्वाद दें।