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युवा उद्यमियों की 5 सफलता की कहानियां | Inspiring Success Stories in Hindi

दोस्तों, इस पोस्ट के माध्यम से मैं यहाँ आपके साथ देश के कुछ साहसिक युवा उद्यमियों की सफलता की कहानी शेयर कर रहा हूं। इन उद्यमियों ने कड़ी मेहनत से शून्य से शिखर का सफर तय किया हैं। आशा ये कहानियाँ भी आपको प्रेरित करेंगी।

1. बिहार के सॉफ्टवेयर मास्टर की सफलता - अमित कुमार दास

पैसों की कमी के चलते रास्ते बदलते लोगों का सफर में टकराना आम बात है। लेकिन मामूली-सी रकम के साथ अपने घर को छोड़ कर बड़े शहर की ओर रूख करने के लिए हिम्मत, ललक और जुनून चाहिए होता है। एक ऐसी ही मिसाल पेश की है, अमित कुमार दास ने। बिहार के छोटे से कस्बे से निकल कर विदेश तक पहुंचना और अपना व्यवसाय खड़ा करना, यह अपने आप में काबिल-ए-तारीफ उदाहरण है। यह उदाहरण युवाओं को प्रेरित करने का पूरा दम रखता है।

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अमित कुमार दास का जन्म बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज कस्बे में रहनेवाले एक किसान परिवार में हुआ। उनके परिवार के सभी लड़के बड़े होकर अपने घरों की खेती में हाथ बंटाया करते थे। मगर अमित इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे। वे एक इंजीनियर बनने का सपना देखते थे, लेकिन परिवार की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्च उठा सके। जैसे-तैसे अमित ने सरकारी स्कूल से पढ़ाई पूरी की और उसके बाद पटना के एएन कॉलेज से साइंस स्ट्रीम से 12वीं की परीक्षा पास की।

संघर्षों से रहा बचपन का नाता

12वीं तक आते-आते अमित के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मुश्किलों को हल करने की थी। ऐसे में उनके दिमाग में मछली पालन से लेकर फसल का उत्पादन दोगुना करने के लिए ट्रैक्टर खरीदने जैसे ख्याल आने लगे। लेकिन जब पता लगा कि इसके लिए कम से कम 25000 रूपए की जरूरत होगी, तो उन्हें अपना सपना धुंधलाता हुआ सा नजर आने लगा। स्थितियां उनकी समझा से परे थीं, पर आगे बढ़ने का सपना दिल में पक्का हो चुका था। परिवार की माली हालत सुधारने का जब कोई विकल्प सामने नहीं आया, तो अमित ने खुद को उस स्थ्तिी से दूर किया। सिर्फ 250 रूपए लेकर वे दिल्ली की ओर रवाना हो गये। दिल्ली पहुंच कर अमित को जल्द ही अहसास हो गया कि वह इंजीनियरिंग की डिग्री का खर्च नहीं उठा पायेंगे। ऐसे में वह पार्टटाइम ट्यूशंस लेने लगे। साथ ही, उन्हें दिल्ली विश्वविघालय से बीए की पढ़ाई शुरू कर दी।


अंग्रेजी बनी रास्ते का कांटा

पढ़ाई के दौरान अमित को महसूस हुआ कि उन्हें कंप्यूटर सीखना चाहिए। इसी मकसद के साथ वे दिल्ली के एक प्राइवेट कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर पहुंचे। सेंटर की रिसेप्शनिस्ट ने जब अमित से अंगरेजी में सवाल किये, तो वह जवाब में कुछ नहीं बोल पाये, क्योंकि अंग्रेजी में भी उनके हाथ तंग थे। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया। उदास मन से लौट रहे अमित के चेहरे पर निराशा देख कर बस में बैठे एक यात्री ने उनकी उदासी का कारण जानना चाहा। वजह का खुलासा हुआ तो उसने अमित को इंगलिश स्पीकिंग कोर्स करने का सुझाव दिया। अमित को यह सुझाव अच्छा लगा और बिना देर किये तीन महीने का कोर्स ज्वॉइन कर लिया।

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कोर्स पूरा होने के बाद अमित में एक नया आत्मविश्वास जाग चुका था। उसी आत्मविश्वास के साथ अमित फिर से कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट पहुंचे और प्रवेश पाने में सफल हो गये। अब अमित को दिशा मिल गयी थी। छह महीने के कंप्यूटर कोर्स में उन्होंने टॉप किया। अमित की इस उपलब्धि को देखते हुए इंस्टीट्यूट ने उन्हें तीन वर्ष का प्रोग्राम ऑफर किया। प्रोग्राम पूरा होने पर इंस्टीट्यूट ने उन्हें फैकल्टी के तौर पर नियुक्त कर लिया। वहां पहली सैलरी के रूप् में उन्हें 500 रूपए मिले।

बचत से शुरू किया ISOFT

कुछ वर्ष काम करने के बाद अमित को इंस्टीट्यूट से एक प्रोजेक्ट के लिए इंग्लैंड जाने का ऑफर मिला, लेकिन अमित ने जाने से इनकार कर दिया। वजह थी मन में अपना कारोबार करने की इच्छा। उस समय अमित की उम्र 21 वर्ष थी। कारोबार की इच्छा रखने वाले अमित ने जॉब छोड़ने का फैसला लिया। कुछ हजार रूपये की बचत से दिल्ली में एक छोटी-सी जगह किराये पर ली और अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी 'ISOFT' शुरू की। 2001 में इस शुरूआत से अमित काफी उत्साहित थे, लेकिन मुश्किलें खत्म नहीं हुई थी। कुछ महीनों तक उन्हें एक भी प्रोजेक्ट नहीं मिला था। गुजारे के लिए वे जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में रात में 8 बजे तक पढ़ते और फिर रात भर बैठ कर सॉफ्टवेयर बनाते।

धीरे-धीरे समय बदला और अमित की कंपनी को प्रोजेक्ट मिलने लगे। अपने पहले प्रोजेक्ट के लिए उन्हें 5000 रूपए मिले। अमित अपने संघर्ष के बारे में बताते हैं कि लैपटॉप खरीदने की क्षमता नहीं थी, इसलिए क्लाइंट्स को अपने सॉफ्टवेयर दिखाने के लिए वे पब्लिक बसों में अपना सीपीयू साथ ले जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट का प्रोफेशनल एग्जाम पास किया और इआरसिस नामक सॉफ्टवेयर डेवलप किया और उसे पेटेंट भी करवाया।

आइसॉफ्ट ने किया सिडनी का रूख.....

अब अमित के सपनों को उड़ान मिल चुकी थी। 2006 में उन्हें ऑस्टेलिया में एक सॉफ्टवेयर फेयर में जाने का मौका मिला। इस अवसर ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय एक्सपोजर दिया। इससे प्रेरित होकर उन्होंने अपनी कंपनी को सिडनी ले जाने का फैसला कर लिया।

'Isoft' सॉफ्टवेयर टेकनोलॉजी ने कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए तरक्की की। आज उसने ऐेसे मुकाम को छू लिया, जहां वह 200 से ज्यादा कर्मचारीयों और दुनिया भर में करीब 40 क्लाइंट्स के साथ कारोबार कर रही है। इतना ही नहीं 150 करोड़ रूपए के सालाना टर्नओवर की इस कंपनी के ऑफिस सिडनी के अलावा, दुबई, दिल्ली और पटना में भी स्थ्ति हैं।

समाजिक जिम्मेदारी पर दे रहे हैं जोर

इस ऊंचाई पर पहुंचने के बाद भी अमित कुमार दास समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना नहीं भूले थे। वर्ष 2009 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने कुछ ऐसा करने का सोचा, जिस पर किसी भी पिता को गर्व हो। कहीं-न-कहीं उनके मन में अपने राज्य में शिक्षा के अवसरों की कमी का अहसास भी था। बस इसी अहसास ने उन्हें फारबिसगंज में एक कॉलेज खोलने की प्ररणा दी।

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अमित ने वर्ष 2010 में यहां कॉलेज स्थापित किया और उसका नाम अपने पिता मोती लाल दास के पर रखा- मोती बाबू इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी। उच्च शिक्षा प्राप्त करके कुछ बनने का सपना देखनेवाले बिहार के अररिया जिले के युवाओं के लिए इससे अच्छा उपहार कोई और नहीं हो सकता था।

बढ़ा रहे हैं नेकी की ओर कदम

अमित ने अपनी पहचान उन चुनिंदा लोगों में करवायी है, जो जीवन में एक सफल मुकाम पाने के बाद समाज को लौटाने के लिए सक्रिय रहते हैं। सालों पहले जिस कमी के कारण अमित को अपना राज्य छोड़ना पड़ा, आज उसी कमी को दूर करने के लिए वे प्रयासरत हैं।

करोड़ों रूपये के निवेश के साथ वे अपने राज्य को एक शिक्षण संस्थान और सुपर स्पेशिलिटी हॉस्पिटल का उपहार दे चुके हैं और बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए सरकार की मदद भी कर रहे हैं।

समाज के लिए कुछ करने की प्ररणा के बारे में बताते हुए अमित कहते हैं कि हम सभी को अपने समाज के प्रति उतना ही जिम्मेवार होना चाहिए, जितने कि अपने परिवार के प्रति होते हैं। इसलिए समाज की भलाई की दिशा में कुछ करने के लिए जितना संभव हो, उतना प्रयास हम सभी को करना चाहिए।

2. शुरूआत में पेन बेचते थे, अब 500 करोड़ रूपए की है कंपनी - अमित डागा

amit
अमित शुरू से ही अपनी खुद की कंपनी बनाना चाहते थे। खुद का बॉस बनने का आइडिया उन्हें इसके लिए लगातार प्रोत्साहित करता रहा। ग्रेजुएशन के बाद 19 साल की उम्र में 8 हजार रूपए की छोटी सी रकम से डीबीएम मार्केटिंग नाम से अपना बिज़नेस शुरू किया। गुड़गांव के विभिन्न कमर्शियल टॉवर में पेन बेचने के साथ काम की शुरूआत की। पहले साल वे कंपनी में अकेले थे तब ऑफिस बॉय से लेकर डिलवरी मैन, अकाउंटेंट और सेल्समैन तक का काम खुद किया। इस दौरान काफी समय तक फंड की समस्या से जूझना पड़ा। बाद में उन्होंने एक सेलसमैन और असिस्टेंट को रिक्रूट किया। इसके बावजूद उन्हें कैपिटल मैनेज करने में काफी समस्या का सामना करना पड़ा। सप्लायर को पेमेंट करने के लिए उन्हें 30 से 35 दिन का समय मिलता था और क्लाइंट से पेमेंट कलेक्ट भी करना होता था।

इस दौरान भारत में ई-कॉमर्स इंडस्ट्री ने अपने पैर जमाने शुरू किए और इसका पूरा फायदा अमित ने उठाया। धीरे-धीरे वे सभी कंज्यूमर ड्यूरेबेल्स और आईटी सामानों के डिस्ट्रीब्यूशन का काम भी लेने लगे। 2011 तक वे मैन्युफैक्चरर से सामान लेकर इसे रिटेल बाजार में सप्लाई करते थे। फिर उन्होंने डील क्या है नाम से ई-कॉमर्स वेबसाइट पर सामानों की बिक्री शुरू की। इससे एक महीने में 40 से 50 करोड़ के सामान की बिक्री हाने लगी। 8000 रूपए की रकम से शुरू हुई कंपनी अब 500 करोड़ रूपए की बन चुकी है।

3. 10 हजार रूपए से शुरू किया काम, अब 100 करोड़ कमाई का लक्ष्य - सचिन शिंदे

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मिल मजदूर पिता के घर पैदा हुए सचिन को बचपन में स्कूल जाने के लिए रोज 20 पैसे मिलते थे जबकि बस का किराया भी इतना ही था। सचिन अपने हिस्से का पैसा बहन को दे देते और खुद पैदल जाते। तभी उन्होंने फैसला कर लिया था कि बड़े होकर अपना बिज़नेस करेंगे। घर की हालत ऐसी नहीं थी कि ज्यादा पढ़ाई कर सकें। कॅरिअर की शुरूआत उन्होंने एक प्राइवेट कंपनी के साथ की। फिर भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर में टेक्निकल सुपरवाइजर बने जहाँ उनका काम एसी, फ्रिज और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की रिपेयरिंग करना था।

इसी दौरान एक दिन मुंबई में हड़ताल थी और बार्क के डायरेक्टर के कार की एसी खराब हो गई। नियम के मुताबिक इसे किसी बाहरी एजेंसी से ठीक कराना था, लेकिन विकल्प नहीं होने के चलते सचिन को यह काम करना पड़ा। इस एक घटना के बाद वे कॅरियर में तेजी से आगे बढ़ने लगे।

लेकिन सचिन अपने व्यवसाय की शुरूआत के बारे में लगातार सोच रहे थे। उन्होंने दोस्तों से 10 हजार रूपए उधार लिया और सरकारी नौकरी छोड़ स्पैन स्पेक्ट्रम की शुरूआत कर दी। पहले पांच साल उन्होंने एक प्राइवेट कंपनी के सर्विस प्रोवाइडर के रूप में काम किया, लेकिन उनकी सालाना कमाई 5 करोड़ रूपए से ज्यादा थी। फिर यूनिसेफ के एक प्रोजेक्ट से जुड़ गए और काम तेजी से बढ़ने लगा। 2006 में उन्होंने एफएमसीजी और कंज्यूमर गुड्स कंपनियों के साथ जुड़ना शुरू किया। कोका कोला, गोदरेज, एलजी, कैडबरी जैसी कंपनियाँ उनकी क्लाइंट बनीं और 2012 तक सालाना कारोबार 20 करोड़ से ज्यादा हो गया। सचिन कामयाबी का श्रेय मेहनत और टीम को देते हैं। अगले पांच साल में उन्होंने सालाना कारोबार 100 करोड़ रूपए से ज्यादा पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

4. हॉस्टल के कमरे से शुरू हुआ वेंचर, आज एक करोड़ से ज्यादा सालाना कमाई - देविंदर माहेश्वरी

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निरमा यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग करते हुए देविंदर साल 2011 में जब सेकंड ईयर में थे, तब उन्होंने अपने रूम पार्टनर कपिल जिंदल के साथ टेक्नोलॉजी पर आधारित एक ब्लॉग शुरू किया। इसका नाम रखा बीबॉम (Beebom)। लेकिन देविंदर और कपिल इसे बिज़नेस के रूप में नहीं देखते थे। डिग्री पूरी करने के बाद देविंदर चेन्नई में नौकरी करने लगे और कपिल एक स्टार्टअप से जुड़ गए।

लेकिन कुछ ही महीनों में उन्हें महसूस हो गया कि अपना वेंचर ही बेहतर विकल्प है। 2013 के दिसंबर में दोनों अहमदाबाद लौट आए और अपनी ब्लॉग साइट को दोबारा शुरू कर दिया। दो-तीन महीने अहमदाबाद में रहने के बाद वे दिल्ली चले आए। पहले छह महीने उन्होंने कंसल्टेंसी प्रोजेक्ट्स और एड कैंपेंन तैयार किया, लेकिन आमदनी उम्मीदों के मुताबिक नहीं बढ़ी। उन्होंने इंजीनियरों की टीम तैयार की और अक्टूबर, 2015 में इसे नए सिरे से लॉन्च किया। यह प्रयास सफल रहा और एक साल के अंदर ही ब्लॉग पढ़ने वालों कि संख्या 1 लाख से बढ़कर 15 लाख हो गई। वे अपनी साइट पर नई तकनीकों से संबंधित तमाम जानकारियाँ, डिजिटल टिप्स, सॉफ्टवेयर, एप और गैजेट उपलब्ध कराते हैं। इस साल की शुरूआत में उनकी कमाई 1 करोड़ रूपए सालाना से ज्यादा हो चुकी थी। अगले साल तक रीडर्स की संख्या 30 लाख पहुंचाने के अलावा वे अपने वेंचर के जरिये लोगों को उत्पाद खरीदने की सुविधा देने की तैयारी कर रहे हैं।

5. 13 वर्ष की उम्र से संभाला फैमिली बिज़नेस, फिर बनाया अपना वेंचर - श्रेयस, तेजस और यशस

माता-पिता के गुजरने के बाद तीनों में से सबसे बड़े भाई श्रेयस ने 13 साल की उम्र में ही अपने छोटे भाइयों की मदद करने के लिए बिज़नेस के क्षेत्र में प्रवेश किया। उनके पिता ने हॉस्पिटैलिटी का बिज़नेस किया था और वे इसी को आगे बढ़ाने लगे। बाद में दोनों भाई पढ़ाई के साथ बड़े भाई का बिज़नेस में हाथ बंटाने लगे। 18 वर्ष की उम्र से तेजस ने स्टॉक और बाजार में निवेश करना शुरू कर दिया था। इस दौरान यशस ने इकोनॉमिक्स ऑनर्स का कोर्स पूरा किया। पढ़ाई के साथ-साथ बिज़नेस चलाना मुश्किल हो रहा था। तेजस ने फाइनेंस से मास्टर्स करने के बाद 2012 से 2015 के दौरान कुछ स्टॉकब्रोकिंग फर्म में काम किया।

इसी दौरान उन्हें स्टॉकब्रोकिंग फर्म शुरू करने का आइडिया आया कि लोगों को स्टॉक में निवेश करने के लिए सुझाव दिया जाए। जब उन्होंने यशस को इस बारे में बताया, तो उन्होंने इससे संबंधित एप्लीकेशन बनाने की सोची। यह एक ऐसा एप होता, जो स्टॉक संबंधित रिसर्च और किस में निवेश कर सकते हैं, जैसी जानकारियाँ उपलब्ध करवाता। इसके लिए उन्हें इंवेस्टर डेटा की जरूरत होती। 2015 में फायर्स नाम की कंपनी से बिज़नेस की शुरूआत की और इसमें तीनों भाइयों ने एक करोड़ रूपए निवेश किए। इसके लिए वे 18 घंटे लगातार मेहनत करते। स्टॉक ब्रोकिंग के लिए आवेदन करने के तीन महीने बाद ही उन्हें लाइसेंस मिल गया। अब वे म्युचुअल फंड पर फोकस कर रहे हैं।

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