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देशभक्ति की 3 अनमोल कहानियाँ | Desh Bhakti Stories in Hindi

स्वतंत्रता संग्राम की कहान अनेक वीरों के वीरगाथाओं से भरी पड़ी है, ऐसे ही क्रांतिकारियों में पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, स्वराज की देवी जीजाबाई और रानी लक्ष्मीबाई हैं जिनका नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। भले ही लोग स्वतंत्रता-संग्राम में इनके योगदान को पूर्ण रूप से न जानते हो परन्तु हम इतना अवश्य जातने हैं कि वे सभी इस स्वतंत्रता संग्राम के पहले क्रांतिकारियों में एक थे और उनके नाम से बड़े-बड़े अंग्रेज पुलिस अधिकारी एवं शासक तक कांप उठते थे।


अपने क्रांतिकारी जीवन में इन्होंने कदम-कदम पर अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी। उन्होंने सुखी जीवन का त्याग करके कँटीला रास्ता चुना, अपना जीवन देश पर बलिदान कर दिया। भले ही वे अपने जीवन में आजादी का सूर्योदय न देख पाए लेकिन गुलामी की काली घटा को अपने क्रांति-तीरों से इतना छलनी कर गए कि आखिरकार उस काली घटा को भारत की भूमि से दुम दबाकर भागना पड़ा। तो आइए हम ऐसे ही वीरों के जीवनगाथा को पढ़ते है-

भारत के स्वाभिमान के लिए संघर्ष करते रहे बिस्मिल


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पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897, तद्नुसार शुक्रवार ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी (निर्जला एकादशी) विक्रमी संवत् 1954 को दत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। शिक्षा के दौरान ही इनकी मुलकात आर्य समाज के स्वामी सोमदेव से हुई। उनसे प्रभावित होकर बिस्मिल आर्य समाज के पक्के अनुयायी हो गये। अपने क्रांतिकारी जीवन में ये अंग्रेजों से लुका छिपी का खेल खलते हुए भारतमाता को आजाद कराने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देते रहे।

बिस्मिल की एक विशेषता थी कि वे किसी भी स्थान पी अधिक दिनों तक ठहरते न थे। कुछ दिन रामपुर में जागीर में रहकर अपनी सगी बहन शास्त्री देवी के गाँव कोसमा जिला मैनपुरी में भी रहे। उनकी अपनी बहन तक उन्हें पहचान न पायीं कोसमा से चलकर बाह पहुँचे कुछ दिन बाह रहे फिर वहां से पिनहट! आगरा होते हुए ग्वालियर रियासत स्थित अपने दादा के गाँव बरबई (जिला मुरैना मध्यप्रदेश) चले गये और वहाँ किसान के भेष में रहकर कुछ दिनों हल चलाया। जब अपने घर वाले ही उन्हें न पहचान पाये तो पुलिस की क्या औकात! पलायनावस्था में रहते हुए उन्होंने 1918 में प्रकाशित अँग्रेजी पुस्तक दि ग्रेण्डमदर ऑफ रशियन रिवोल्यूशन का हिन्दी-अनुवाद इतना अच्छा किया कि उनके सभी साथियों को यही पुस्तक बहुत पसन्द आयी। इस पुस्तक का नाम उन्होंने कैथेराइन रखा था। इतना ही नहीं, बिस्मिल ने सुशीलमाला सीरीज से कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की थीं। जिनमें मन की लहर नामक कविताओं का संग्रह!, कैथेराइन या स्वाधीनता की देवी-कैथेराइन ब्रश्कोवस्की की संक्षिप्त जीवनी, स्वदेशी रंग व उपरोक्त बोल्शेविकों की करतूत नामक उपन्यास प्रमुख थे। सरकारी ऐलान के बाद राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने वतन शाहजहाँपुर आकर पहले भारत सिल्क मैनुफैक्चरिंग कम्पनी में मैनेजर के पद पर कुछ दिन नौकरी की उसके बाद सदर बाजार में रेशमी साड़ियों की दुकान खोलकर बनारसीलाल के साथ व्यापरा शुरू कर दिया।

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल द्वारा रचित गज़ल - सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है कांग्रेस जिला समिति ने उन्हें ऑडीटर के पद पर वर्किंग कमेटी में ले लिया। सितम्बर 1920 में वे कलकत्ता कांग्रेस में शाहजहांपुर काँग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। कलकत्ता में उनकी भेंट लाला लाजपत राय से हुई। लाल जी ने जब उनकी लिखी हुई पुस्तकें देखीं तो वे उनसे प्रभावित हुए। उन्होंने उनका परिचय कलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करा दिया जिनमें एक उमादत्ता शर्मा भी थे जिन्होंने आगे चलकर सन् 1922 के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहनी का खुलकर समर्थन किया और अन्ततोगत्वा गांधी जी से असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित करवा कर ही माने। इस कारण वे युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गये।

समूचे देश में असहयोग आन्दोलन शुरू करने में शाहजहाँपुर के स्वयंसेवकों की अहम् भूमिका थी। किन्तु 1922 में जब चौरीचौरा काण्ड के पश्चात् किसी से परामर्श किये बिना गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया तो 1922 की गया कांग्रेस में बिस्मिल व उनके साथियों ने गांधीजी का ऐसा विरोध किया कि कांग्रेस में फिर दो विचारधारायें बन गयीं- एक उदारवादी या लिबरल और दूसरी विद्रोही या रिबेलियन। भारतवर्ष को ब्रिटिस साम्राज्य से मुक्त करने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल बड़े महान क्रान्तिकारी थे, जो बहुत गरीब परिवार में जन्म लेकर और साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरूषार्थ के बल पर हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया जिसमें एक-से बढ़कर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे। बिस्मिल की पहली पुस्तक सन् 1916 में छपी थी जिसका नाम था- अमेरिका स्वतन्त्रता का इतिहास। बिस्मिल के जन्म शताब्दी वर्ष 1996-1997 में यह पुस्तक स्वतन्त्र भारत में फिर से प्रकाशित हुई जिसका विमोचन भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। इस सम्पूर्ण ग्रन्थावली में बिस्मिल की लगभग दो सौ प्रतिबन्धित कविताओं (kavita/poems) के अतिरिक्त पाँच पुस्तकें भी शामिल की गयी थीं।

भारत के अमर शहीदों ने भारत की स्वतंत्रता शौर्य, सम्मान, वैभवशाली भारत का सपना देखा था। वे सपने हमें भी देखना चाहिए।


स्वराज की देवी थी 'जीजाबाई'


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हिन्दू-स्वराज्य के निर्माता, शिवाजी की माता जीजाबाई का जन्म यादव-कुल में , सन् 1597 ई. में, सिंदखेड नामक एक गांव में हुआ था। यह स्थान आजकल महाराष्ट्र के विदर्भ मंडल के अंतर्गत बुलढाणा जिले में आता है। उनके पिता का नाम लघुजी जाधव तथा माता का नाम महालासाबाई था। उनके पिता एक शक्तिशाली सामंत थे।

जीजीबाई का विवाह मालोजी के पुत्र शाहजी भोंसले से हुआ था। शाहजी भोंसले चतुर तथा नीती-कुशल व्यक्ति थे। पहले वे अहमदनगर के सुलतान की सेवा में थे, किन्तु बाद में, जब अहमदनगर पर शाहजहाँ ने अधिकार कर लिया, तब 1636 ई. में उन्होंने बीजापुर में नौकरी कर ली और अपनी नीति-कुशलता के द्वारा वहां पर यथेष्ट यश उपार्जित किया। उनको कर्नाटक में एक विशाल जागीर भी प्राप्त हुई। प्रारंभ में जीजाबाई के पिता लघुजी और श्वसुर मालोजी के परिवारों में घनिष्ठ मित्रता थी, किन्तु बाद में यह मित्रता कटुता में बदल गई।

जीजाबाई धर्मपरायण, पतिपरायण, त्याग और साहसी स्वभाव वाली स्त्री थी। एक बार उनके पिता मुगलों की ओर से लड़ते हुए शाहजी का पीछा कर रहे थे। जीजाबाई उस समय गर्भवती थीं। शाहजी उनको शिवनेरी के दुर्ग में, एक मित्र के संरक्षण में छोड़कर आगे बढ़ गए, शिवनेरी, महाराष्ट्र राज्य के जुन्नर गाँव के पास स्थित एक प्राचीन किला है। इसको अहमदनगर के सुलतान ने जीजाबाई के श्वसुर को जागीर में दिया था। जाधवराव शाहजी का पीछा करते हुए जब उस दुर्ग में पहुंचे, तो वहां शाहजी नहीं मिले किन्तु जीजाबाई मौजूद थी। वह अपने पिता के समक्ष आईं और बड़ी वीरता से कहा- ‘मेरे पति आपके शत्रु हैं, इसलिए मैं भी आपकी दुश्मन हूँ। आपका दामाद तो यहां नहीं, कन्या हाथ लगी है, उसे ही बंदी बना लो और जो उचित समझो, सजा दो।‘ लघुजी ने उनको अपने साथ मायके चलने को कहा, किन्तु जीजाबाई ने अपने पिता की इस बात पर पानी फेरते हुए उत्तर में कहा कि आर्य नारी का धर्म पति के आदेश का पालन करना है। शिवाजी का जन्म इसी शिवनेरी दुर्ग में हुआ था।

 जीजाबाई एक तेजस्वी महिला थी, जीवन भर पग-पग पर कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए उन्होंने धैर्य नहीं खोया। उन्होंने श्विाजी को महान वीर योद्धा और स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र का छत्रपति बनाने के लिए अपनी सारी शक्ति, योग्यता और बुद्धमता लगा दी। शिवाजी को बचपन से बहादुरों और शूरवीरों की कहानियां सुनाया करती थीं। गीता और रमायण आदि की कथायें सुनाया करती थीं। गीता और रामायण आदि की कथायें सुनकर उन्होंने शिवाजी के बाल-ह्नदय पर स्वाधीनता की लौ प्रज्जवलित कर दी थी। उनके दिए हुए इन संस्कारों के कारण आगे चलकर वह बालक हिन्दू समाज का संरक्षक एवं गौरव बना। दक्षिण भारत में हिन्दू स्वराज्य की स्थापना की और स्वतन्त्र शासक की तरह अपने नाम का सिक्का चलवाया तथा छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम से ख्याति प्राप्त की।

वीर माता जीजाबाई छत्रपति शिवाजी की माता होने के साथ-साथ उनकी मित्र, मार्गदर्शन और प्रेरणास्त्रोत भी थी। उनका सारा जीवन साहस और त्याग से भरा हुआ था। उन्होंने जीवन भर कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए भी धैर्य नहीं खोया और अपने पुत्र 'शिवा' को संस्कार दिए जिनके कारण  वह आगे चलकर हिंदू समाज का संरक्षक 'छत्रपति शिवाजी महाराज' बना। जीजाबाई यादव उच्च कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली थी। जीजाबाई जाधव वंश की थी और उनके पिता एक शक्तिशाली सामन्त थे। शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। बचपन से ही शिवाजी युग के वातावरण और धटनाओं को भली प्रकार समझने लगे थे। इसलिए माता जीजाबाई की साधना सफल हुई। 'शिवाजी' ने महाराष्ट्र के साथ भारत के बड़े भू-भाग पी स्वराज्य की स्वतंत्र पताका फहराई जिसे देखकर 17 जून 1674 में जीजाबाई शांतिपूर्वक परलोक सिधारीं। जीजाबाई ने ही वीर शिवाजी के ह्नदय में 'स्वराज' का बीजारोपण किया था। जीजाबाई स्वराज्य की देवी थी।


वीरता, अदम्य साहस की देवी थी - रानी लक्ष्मीबाई


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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को वाराणसी में हुआ था, मराठी ब्राह्मण परिवार से संबंधित लक्ष्मीबाई का वास्तविक नाम मणिकर्णिका था, लेकिन सब उन्हें मनु के नाम से पुकारते थे। इनके पिता मोरोपंत तांबे बिठूर के पेशवा की राज सभा में काम करते थे। मनु जब चार वर्ष की थीं तभी उनकी माता का देहांत हो गया था। पेशवा ने मनु का पालन-पोषण अपने पुत्री की तरह किया। वह उसे छबीली कहते थे, मणिकर्णिका की शिक्षा घर पर ही संपन्न हुई थी। राज सभा में पिता का प्रभाव होने के कारण मनु को अन्य महिलाओं से ज्यादा खुला वातावरण मिल पाया। तात्या टोपे, जो पेशवा के पुत्र को प्रशिक्षण दिया करते थे, मनु के भी सलाहकार और प्रशिक्षक बने।

मनु ने बचपन में उनसे घुड़सवारी, निशानेबाजी, आत्मरक्षा का प्रशिक्षण ग्रहण किया था। वर्ष 1842 में झांसी की रानी बनीं। विवाह के पश्चात उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई रखा गया। वर्ष 1851 में झांसी की रानी लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम दामोदर राव नावेलकर रखा गया। अंगेजी षडयंत्र के कारण मात्र चार महीने की आयु में ही दामोदर राव का निधन हो गया। कुछ समय बाद गंगाधर राव ने अपने चचेरे भाई के बेटे आनंद राव को गोद ले लिया। हालांकि गंगाधर राव पुत्र वियोग में दर्द से उबर नहीं पाए जिसके चलते 21 नवंबर, 1853 को उनका देहांत हो गया। अठारह वर्ष की आयु में लक्ष्मीबाई विधवा हो गयी थीं। उस समय अंग्रेजों की यह नीति थी कि जिस राजा का उत्तराधिकारी नहीं होगा, उसके राज्य को अंग्रेजों के अधीन कर लिया जायेगा। आनंद राव उनके दत्तक पुत्र थे, इसलिए उन्हें राजा का उत्तराधिकारी नहीं माना गया। अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को 60,000 रूपए पेंशन लेकर किला छोड़ कर जाने का आदेश दिया।

वर्ष 1857 में यह अफवाह फैल गई कि भारतीय सैनिकों को जो हथियार दिए गए हैं, उनमें गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया गया है। इस बात से भारतीय सैनिक अंग्रेजी सरकार के विरोध में आ गए और उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से देश को आजाद करवाने का प्रण ले लिया। हजारों सैनिकों ने इस प्रण को निभाते हुए अपनी जान दे दी। यह विद्रोह मेरठ से शुरू होकर बरेली और दिल्ली में भी पहुंचा। हालांकि संपूर्ण भारत से तो अंग्रेजी सरकार को नहीं हटाया जा सका लेकिन झांसी समेत कई राज्यों से अंग्रेजों को हटा दिया गया। इस विद्रोह के बाद झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने दोबारा अपने राज्य पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया और अपने राज्य को अंग्रेजों से बचाने के लिए भी हर संभव प्रयत्न किए। मार्च 1858 में सर हारोज ने लक्ष्मीबाई को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया लेकिन लक्ष्मीबाई ने अपनी झांसी को बचाने के लिए अकेले जंग का ऐलान कर दिया। लगातार तीन दिनों तक गोलीबारी होने के बावजूद अंग्रेजी सेना किले तक नहीं पहुंच पाई। जिसके परिणामस्वरूप हारोज ने पीछे से वार करने का निर्णय लिया। विश्वासघात का सहारा लेकर हारोज और उसकी सेना 3 अप्रैल को किले में दाखिल हो गई। अपने बारह वर्ष के बेटे को पीठ पर बांधकर लक्ष्मीबाई को वहां से भाबना ही पड़ा। लगातार चौबीस धंटे का सफर और 102 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद लक्ष्मीबाई कालपी पहुंची। कालपी के पेशवा ने स्थिति का आकलन कर लक्ष्मीबाई की सहायता करने का निर्णय लिया। पेशवा ने रानी को जरूरत के अनुसार अपने सेना और हथियार देने का फैसला किया। 22 मई को हारोज ने कालपी पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का सामना झांसी की रानी ने पूरी दृढ़ता से किया। यहां तक कि ब्रिटिश सेना भी उनके आक्रमण से घबरा गई थी। लेकिन दुर्भाग्यवश 24 मई को हारोज ने कालपी पर अधिकार कर लिया। राव साहेब पेशवा, तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर जाने का फैसला लिया, लेकिन ग्वालियर के राजा अंग्रेजो के साथ थे। लक्ष्मीबाई ने युद्ध कर राजा को हरा दिया और किला पेशवा को सौंप दिया।

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 17 जून को हारोज ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया, लेकिन झांसी की रानी ने आत्म-समर्पण का रास्ता न चुनकर सेना का सामना करने का निश्चय किया। झांसी की रानी अपने घोड़े पर नहीं बल्कि किसी और घोड़े पर बैठकर युद्ध लड़ रही थीं। वह पुरूषों के कपड़े में थी इसलिए घायल होने के बाद उन्हें कोई पहचान नहीं पाया। उनके भरोशेमंद सहायकों द्वारा उन्हें पास के ही वैध के पास इलाज के लिए लेजाया गया और उन्हें वही पर गंगाजल पिलाया गया. रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम इच्छा थी कि उनके शव को कोई भी अंग्रेज हाथ ना लगा पाए। 18 जून 1858 को 23 वर्ष की छोटी सी आयु में ही लक्ष्मीबाई ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। कुछ समय पश्चात उनके पिता मोरोपंत तांबे को भी अंग्रेजों द्वारा फांसी दे दी गई। लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव अपनी मां के सहायको के साथ वहां से भाग गए। हालांकि उन्हें कभी उत्तराधिकारी  नहीं मिला लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें पेंशन देने की व्यवस्था की थी। दामोदर राव इन्दौर में जाकर रहने लगे। 28 मई 1906 को 58 वर्ष की उम्र में दामोदर राव का भी निधन हो गया। उनके वंशजों के उपनाम के रूप में झांसीवाले ग्रहण किया।

रानी लक्ष्मीबाई एक वीर और साहसी महिला थीं। भले ही उनकी उम्र ज्यादा नहीं थी। लेकिन उनके निर्णय हमेंशा परिपक्व हुआ करते थे। अंतिम श्वास तक वह अंग्रेजों से लोहा लेती रही। उन्होंने स्वतंत्रता के लिए प्रयासरत लोगों के लिए एक आदर्श उदाहरण पेश किया था। हारोज ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि उन्होंने जितने भी विरोधियों का सामना किया उनमें सबसे अधिक खतरा उन्हें लक्ष्मीबाई से ही था। वह सबसे अधिक साहसी और दृढ़ निश्चयी थीं।


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