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बच्चों की कहानियां व श्रेष्ठ 27 बच्चों की बाल कहानियां


दादी और नानी की मीठी कहानियों का संसार इतना सुंदर और लुभावना है कि बाल-मन उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहता। हर बालक यही चाहता है कि कहानी बच्चों की रात की कहानियां बस चलती ही जाए। हर रात, सोने से पहले, नानी या दादी की गोदी में सिर रखकर बच्चों की बाल कहानियां सुनने की बातें कई बच्चों को परी-कथा जैसी लग सकती हैं। कहानियाँ, जो कि हमारे मन को सुंदर विचार दें, मस्तिष्क को कल्पना की ऊँची उड़ान दें और भावनाओं के जुड़ाव का माध्यम बन जाएँ....ऐसी ही कुछ छोटे बच्चों की मजेदार कहानियां इस संकलन का हिस्सा हैं। अगर आप प्रेरक और शिक्षाप्रद कहानियाँ पढ़ना चाहते है ये देखे - शिक्षाप्रद कहानियों का अनमोल संग्रह


बच्चों की कहानियां (संकलन)


  • किसान की बेटी
  • पैसों का पेड़
  • बुद्धूमल का सपना टूटा
  • गुल्लक: भरी या ख़ाली!
  • देखो गुस्सा न करना
  • सड़क कहाँ जाती है?
  • जापानी नेवल
  • आदित्य
  • खूबियाँ हैं हम सब में
  • चमत्कार
  • कपास के फूल
  • आँसू की बूँद
  • जिन्न
  • ईश्वर
  • राजू
  • बंदर का जिगर

दोस्तों, अब बचपन में बच्चे परिवेश को देखकर परिपक्वता ग्रहण कर सूझ-बूझ से काम लेते हैं। पहले बचपन में बच्चों के बालमन को चमत्कारिक baccho ki kahani अधिक आकर्षित करती थीं। आज बच्चे कम्प्यूटर, लैपटाप, मोबाइल व आधुनिक तकनीकों को बचपन से अपने आस-पास देखते हैं। ऐसी ही कुछ bacho ki kahaniya को बच्चों के बालमन को जानकर, समझकर मैंने लिखा है। कुछ कहानियां तो बिल्कुल सत्य हैं। इसलिए इन को पढ़कर अधिकतर बच्चे इन से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे।

बुद्धूमल का सपना टूटा


तुमने सुना होगा कि दिन में सपने देखना अच्छी बात नहीं है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो दिन में आँखें खोलकर सपने देखते हैं। क्या कहा! आँखें खोलकर कोई सपने कैसे देख सकता है? अरे भाई, देख सकता है- कुछ ऐसे।

एक थे बुद्धूमलजी। अपने नाम की तरह वे सच में बुद्धू ही थे। साथ में कमचोर भी थे। कामचोर यानी जो काम से मन चुराए।

तो एक दिन बुद्धूमलजी की माँ ने उनसे कहा, 'बेटा, तू अब बड़ा हो गया है, कुछ कामकाज सीख। जा, घर से बाहर निकलकर देख, सब लोग कितना काम करते हैं।'

बुद्धूमलजी उस समय आलस में बिस्तर में पड़े हुए थे। उबासी लेते हुए वे उठे और घर ने निकलकर चल पड़े। वे थोड़ी ही दूर चले होंगे, तभी उन्होंने देखा कि एक बूढ़ी माई एक पेड़ के नीचे थककर बैठी हुई है। उसके सामने लकड़ियों का एक बड़ा-सा गट्ठर रखा हुआ था।

बुद्धूमल ने बूढ़ी माई से पूछा, 'ए माई, कुछ काम मिलेगा क्या?'

बूढ़ी माई ने कहा, 'अरे भाई, मैं तो खूद बहुत ग़रीब हूँ। मैं किसी को क्या काम दे सकती हूँ! लकड़ियाँ बेचकर जो पैसे मिलते हैं, उससे ही अपना काम चलाती हूँ। आज चलते-चलते बहुत थक गई हूँ।'

'लाओ, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूँ।' बुद्धूमल ने कहा।

'तुम बड़े ही भले हो, भैया। अगर तुम यह गट्ठर मेरे घर तक पहुँचा दो तो इसमें से कुछ लकड़ियाँ मैं तुम्हें भी दे दूँगी।' बूढ़ी माई बोली।

बुद्धूमल खुश हो गए। उन्होंने गट्ठर सिर पर उठा लिया और चल पड़े। वे सोचते जा रहे थे - कोई बात नहीं, पैसे न सही लकड़ियाँ ही सही। अब इन लकड़ियों को बेचकर मुझे 20-25 रूपए तो मिल ही जाएँगे। उन रूपयों से मैं कुछ बीज खरीदूँगा। मेरे घर के बाहर जो थोड़ी-सी ज़मीन है, उस पर सब्ज़ियाँ उगाऊँगा। उन सब्ज़ियों को बेचकर जो पैसे मिलेंगे उन्हें थोड़ा-थोड़ा बचाकर थोड़ी और ज़मीन ख़रीद लूँगा। उस पर गेहूँ उगाऊँगा। फिर मुझे और बुहत सारे पैसे मिलेंगे। उन पैसों से एक ट्रैक्टर ख़रीद लूँगा। तब खेत जोतने में आसानी होगी। फ़सल को जल्दी से बाज़ार भी पहुँचा सकूँगा। ढेर सारे पैसे और मिल जाएँगे। उनसे एक बढ़िया घर ख़रीदूँगा। सब लोग कहेंगे कि बुद्धूमल कितना बुद्धीमान है।'

बुद्धूमल अपने सपने में इतना खो गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि आगे तालाब है, उनका पैर फिसला और वे छपाक से तालाब में गिर गए। साथ ही लकड़ियों का गट्ठर भी पानी में गिर गया।

बूढ़ी माई चिल्लाई, 'अरे भैया, वह तुमने क्या किया, मेरी लकड़ियाँ गीली कर दीं, अब मैं क्या बेचूँगी! मेरी पूरे दिन की मेहनत बेकार हो गई। अब इन गीली लकड़ियों को कौन ख़रीदेगा?'

बुद्धूमल पानी से बाहर निकले और बोले, 'माई, मुझे माफ़ कर दो। मैं अपने सपने में इतना खो गया था कि मुझे पता ही नहीं चला कि आगे तालाब है। मेरा तो लाखों का नुकसान हो गया माई!'

बुद्धूमल सिर पकड़कर बैठ गए। तब बूढ़ी माई बोली, 'बेटा, दिन में सपने देखना अच्छी बात नहीं है। मेहनत करो और फिर देखो, तुम्हें सब कुछ अपने-आप मिल जाएगा।'

गुल्लक: भरी या ख़ाली!


चुनमुन के पास मिट्टी की एक सुंदर गुल्लक थी, गुड्डे के आकार की। उस गुड्डे के सिर पर एक लंबा छेद था, जिससे चुनमुन उसके अंदर सिक्के डालती थी। उसकी मम्मी रोज़ उसे एक सिक्का देती थीं। चुनमुन गुल्लक को हिलाती थी तो खन-खन की आवाज़ के साथ सिक्के हिलते थे। इससे चुनमुन को पता चल जाता था कि गुल्लक अभी थोड़ी ख़ाली है।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि उसने गुल्लक को धीरे से हिलाया, लेकिन कोई आवाज़ ही नहीं आई। उसने फिर से, थोड़ा ज़ोर-से गुल्लक को हिलाया, फिर भी आवाज़ नहीं हुई। चुनमुन खुशी से चिल्ललाई, 'मम्मी...मेरी गुल्लक भर गई। देखो न! आवाज़ ही नहीं आ रही है।'

चुनमुन के आस-पास बहुत से खिलौने पड़े हुए थे। उन्होंने यह बात सुनी। वे आपस में काना-फूसी करने लगे .... कार बोली, 'सुना तुमने, गुल्लक पूरी भर गई है।‘ 'हां, मैंने भी सुना। कितने सारे पैसे होंगे अंदर!' जोकर बोला।

'काश, मैं इस पैसे वाले गुड्डे से शादी कर पाऊँ, फिर मेरे पास भी ढेर सारे पैसे हो जाएँगे।' गुड़िया ने कहा।

धीरे-धीरे सभी खिलौने इस गुड्डे का बहुत आदर करने लगे। उन्हें उसकी बातें बहुत अच्ची लगती थीं।

खिलौने उसकी तारीफ़ करते और कहते-

'देखो, कैसी राजकुमार जैसी छवि है।'

'अब तो हिलाने से भी आवाज़ नहीं करता।'

'अरे, बड़े लोग ऐसे ही होते हैं।'

'हाँ भई, जब आपके पास पैसा हो तो अपने आप ऐसी सभ्यता आ जाती है।'

इस तरह सब खिलौने उसके आस-पास मँडराते रहते थे।

कुछ दिनों के बाद चुनमुन का जन्मदिन आया। वह बहुत खुश थी, क्योंकि वह समय आ गया था, जब उसे अपनी गुल्लक के पैसे निकालने थे। उसे यह गुल्लक बहुत पसंद थी, इसीलिए मम्मी ने उसके लिए इसी तरह की और गुल्लक लाकर रखी थी - एक और सुंदर गुड्डा।

चुनमुन अपने कमरे में आई और पुरानी गुल्लक को उठाकर नई गुल्लक उसकी जगह रख दी। उसने नई गुल्लक को हिलाकर देखा। उसमें से भी कोई आवाज़ नहीं आई- क्योंकि वह ख़ाली थी। उसमें कोई सिक्का था ही नहीं।

उसके खिलौनों ने देखा कि ख़ाली गुड्डा भी उतना ही सुंदर था, जितना भरा हुआ था। इससे भी कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, यह भी शांत खड़ा हुआ था।

और तब उन्हें समझ में आया कि शांत और सभ्य होने के लिए पैसे वाला होना ज़रूरी नहीं है। इसीलिए वे नए गुड्डे का भी उतना ही आदर करते थे, जितना पुराने, भरे हुए गुड्डे का करते थे।

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देखो गुस्सा न करना


सूरज और हवा एक दिन अपनी बहादुरी की कहानियाँ सुना रहे थे।

सूरज कहता था कि वह ज़्यादा ताक़तवर है और हवा कहती थी कि वह ज़्यादा शक्तिशाली है।

दोनों ने तय किया कि वे एक प्रतियोगिता करेंगे। दोनों एक बड़े से मैदान की ओर मुँह करके खड़े हो गए। उन्होंने निश्चय किया कि इस मैदान से होकर जो पहला यात्री जाएगा, उस पर ध्यान देना है। हवा और सूरज में से जो उस यात्री को कपड़े उतारने के लिए मजबूर कर देगा, वही ज़्यादा ताक़तवर होगा।

हवा ने ज़ोर से चलना शुरू किया। उस व्यक्ति के कपड़े उड़ने लगे। उसका चलना मुश्किल होने लगा। लेकिन उसके कपड़े जितना उड़ने की कोशिश करते थे, उतना ही वह उन्हें और कसकर अपने शरीर पर बाँध लेता था। यह देखकर हवा को गुस्सा आने लगा। वह इतनी ज़ोर से बही कि तुफ़ान-सा आने लगा। अपनी सुरक्षा के लिए वह व्यक्ति एक कोने में खड़ा हो गया। आखि़र हवा थककर चूर हो गई। लेकिन वह उस व्यक्ति का एक भी कपड़ा नहीं उतरवा पाई।

हवा के झोंके रूके तो वह व्यक्ति फिर से आगे बढ़ा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अचानक सूरज तेज़ी से चमकने लगा था और गर्मी बढ़ने लगी थी। बात यह थी कि अब सूरज की बारी थी अपनी कोशिशि करने की।

सूरज ने न तो गुस्सा किया और न ही ज़्यादा ताक़त लगाई। बस आराम से चमकता रहा। आखि़र उस व्यक्ति को गर्मी लगने लगी। गर्मी से परेशान होकर उसने अपने कपड़े उतारे। पास में ही एक नदी बहती थी। नहाने के लिए वह नदी की ओर चला गया।

सूरज जीत गया। हवा समझ गई कि क्रोध करने से कुछ नहीं होता। बस शांत रहकर अपना काम करना चाहिए। जो काम शांत स्वभाव वाले कर सकते हैं, वही काम क्रोधी व्यक्ति के लिए कर पाना मुश्किल होता है।

सड़क कहाँ जाती है?


भीखू हलवाई का बेटा बच्चू एकदम मनमौजी था। मन है तो काम कर लिया नहीं है तो पड़ा रहने दो........हो जाएगा जब होना होगा।

एक दिन उसने दुकान से एक दौना भरकर जलेबियाँ लीं। वह गाँव के बाहर जानेवाली सड़क के किनारे बैठ गया और जलेबियाँ खाने लगा।

तभी वहाँ एक थका-माँदा यात्री आया। वह बच्चू से बोला, 'भैया बड़ी दूर से चलकर आ रहा हूँ। बड़ी भूख लगी है, क्या यहाँ कुछ अच्छा खाने को मिलेगा?'

बच्चू ने उसे एक जलेबी दी और कहा, 'ये लो भैया, जलेबी खाओ और यदि तुम्हें ज़्यादा चाहिए तो भीखू हलवाई की दुकान पर चले जाओ। सब कुछ खाने को मिलेगा।'

यात्री ने देखा कि वहाँ पर दो सड़कें थीं। उसने बच्चे से पूछा, 'अच्छा भैया, यह बताओ कि भीखू हलवाई के यहाँ इनमें से कौन-सी सड़क जाती है?'

यह बात सुनकर जैसे बच्चू को बड़ी तसल्ली मिली। वह हँसकर बोला, 'ए भाई, तुम तो मुझसे भी ज़्यादा आलसी निकले। मेरे बाबा हमेशा कहते थे कि मुझसे ज़्यादा आलसी इंसान हो ही नहीं सकता। लेकिन अब मैं उन्हें बताऊँगा कि उनकी बात ग़लत थी।'

यात्री को समझ में नहीं आ रहा था कि मामला क्या है। उसने तो बस रास्ता ही पूछा था न। इसमें आलसी होने की क्या बात है। ख़ैर, उसने फिर से पूछा, 'यह सब छोड़ों और बताओ कि भीखू हलवाई की दुकान तक कौन-सी सड़क जाती है?'

बच्चू बोला, 'ऐसा है भैया, ये दोनों ही सड़कें कहीं भी नहीं जातीं। बस यहीं पड़ी रहती हैं। हाँ, अगर कुछ खाना है तो थोड़े हाथ-पैर हिलाओ और खुद चलकर इस दाएँ हाथ वाली सड़क पर चले जाओ। सीधे दुकान पर पहुँच जाओगे। और कहीं सड़क के भरोसे रूक गए तो भैया यहीं खड़े रह जाओगे, क्योंकि ये सड़के तो महा आलसी हैं। बरसों से यही पड़ी हुई हैं।'

यह सुनना था कि यात्री का हँसी के मारे बुरा हाल हो गया। हँसते-हँसते वह दाएँ हाथ वाली सड़क पर चल दिया।

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जापानी नेवल


जापान में एक बहुत ही सुंदर जगह है- नारूमी। वहाँ पर एक नदी के किनारे एक नेवला रहता था। यह नेवला नदी के पार जाकर जंगल के जानवरों को परेशान करता था। वह सबको सताता भी रहता था। यदि किसी को चोट लग जाए तो प्यार से उसे मरहम लगाने को देता था। लेकिन यह मरहम नींबू के रस और काली मिर्च से बना होता था। इस कारण मरहम लगानेवाले को और ज़्यादा पीड़ा होने लगती थी। नेवले को यह सब देखकर और भी मज़ा आता था। उसने एक दिन ख़रगोश के साथ ऐसा ही किया। ख़रगोश ने उसी दिन सोचा लिया कि वह दुष्ट नेवले को सबक ज़रूर सिखाएगा।

और एक दिन ख़रगोश को एक बढ़िया उपाय सूझ गया।

उसने दो टोकरियाँ लीं, एक बड़ी और एक छोटी। बड़ी टोकरी के नीचे उसने तारकोल लगा दिया। ख़रगोश दोनों टोकरियाँ लेकर नेवले के पास पहुँचा और उससे बोला, 'चलो, पहाड़ी के ऊपर चलें। वहाँ बहुत मीठे आमों का एक पेड़ है। वहाँ से आम लेकर आएँगे।'

लालची नेवले ने तुरंत बड़ी वाली टोकरी उससे ले ली। ख़रगोश तो यही चाहता था।

पहाड़ी के ऊपर जाकर दोनों ने आमों से टोकरियाँ भर लीं। बड़ी वाली टोकरी भारी हो गई। नेवले ने भारी होने के कारण टोकरी नीचे रख दी। टोकरी के नीचे तारकोल लगा हुआ था। इसलिए टोकरी ज़मीन से चिपक गई। आमों से भरी टोकरी को नेवला छोड़ना नहीं चाहता था। इसलिए उसने पूरा ज़ोर लगाकर टोकरी उठाई। इससे उसके पंजे छिल गए।

ख़रगोश ने उसने कहा, 'दोस्त, तुम्हें दर्द हो रहा होगा। ये लो दवा लगा लो।'

नेवले ने जब दवा लगाई तो दर्द से चिल्लाने लगा।

असल में यह वही नींबू और काली मिर्च का मरहम था, जो नेवला सबको दिया करता था।

नेवला परेशान होकर नदी की ओर भागा। वह नदी पार करके जल्दी अपने घर पहुँचना चाहता था।

नदी के किनारे पर दो नावें खड़ी हुई थीं। एक पुरानी थी और एक नई चमचमाती हुई। वह तुरंत नई नाव में बैठ गया। इस नाव में एक छेद था। नाव डूबने लगी। नेवला किसी तरह नदी पार करके दूसरे किनारे तक पहुँचा। उसके छिले हुए पंजों पर मिर्च का जो मरहम था, उसका दर्द अभी तक हो रहा था। ऊपर से पानी में भीगने के कारण ज़ख्म और ज़्यादा दर्द कर रहे थे।

उस दिन नेवले को इस बात का अनुभव हुआ कि उसकी हरकतों से दूसरे जानवरों को कितनी तकलीफ़ होती होगी। उस दिन से उसने कान पकड़ लिए कि वह कभी किसी को नहीं सताएगा।

आदित्य


एक चित्रकार युवक आदित्य समुद्र के किनारे पर बैठकर चित्र बना रहा था। तभी समुद्र के अंदर से बारह जलपरियाँ बाहर आईं। उन्होंने ध्यान नहीं दिया कि आदित्य भी वहाँ बैठा है। वे सुंदर युवतियों में बदल गईं और तट पर खेलने लगीं। आदित्य छिपकर उन्हें देखने लगा।

थोड़ी देर बाद वहाँ कुछ लोग आते हुए दिखाई दिए। जलपरियों ने वापिस मछलियों का रूप लिया और समुद्र के अंदर चली गई। इस हड़बड़ी में एक जलपरी एक पत्थर से टकराकर गिर पड़ी। उसकी ग्यारह बहनें वहाँ से जा चुकी थीं। लेकिन इस जलपरी के पैर में चोट लगी थी। इसलिए यह वहीं थी। वह अभी तक युवती के रूप में ही थी।

आदित्य ने देखा कि उसे चोट लगी है तो दौड़कर उसके पास आया। आदित्य ने उसे उठने में मदद की। उसके हाथों में लाल रंग लगा हुआ था, जो उठाते वक्त जलपरी के माथे पर लग गया। जलपरी आदित्य के अच्छे स्वभाव से बहुत खुश हुई। उसने आदित्य से कहा, 'आपसे मिलकर मेरे पिताजी को बहुत प्रसन्नता होगी। आप मेरे साथ चलिए।'

आदित्य को जलपरी से प्रेम हो गया था। वह उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गया।

जलपरी उसे अपने साथ समुद्र के अंदर ले गई। उसने आदित्य को अपने पिताजी से मिलवाया। उसके पिताजी समुद्र के राजा थे। जब समुद्रराज ने सुना कि आदित्य ने उनकी बेटी की मदद की है, तब उन्होंने उससे पूछा, 'बताओ बेटा, तुम्हें क्या इनाम चाहिए।'

आदित्य ने इनाम में जलपरी का हाथ माँग लिया। समुद्रराज बोले, 'इसके लिए तुम्हें एक परीक्षा देनी होगी। मेरी बारह बेटियाँ हैं। सब देखने में एक जैसी हैं। तुम्हें पहचानना होगा कि तुम जिससे प्रेम करते हो, वह कौन-सी है?'

बारह जलपरियाँ आदित्य के सामने आकर खड़ी हो गईं। सब एक जैसी थीं। आदित्य सोच रहा था कि कैसे पहचानेगा अपनी जलपरी को। उसने ध्यान से देखा। तभी उसे एक जलपरी के माथे पर लाल रंग लगा हुआ दिखाई दिया। यह वही लाल रंग था, जो उसके हाथों पर लगा हुआ था और उठाते समय जलपरी को लग गया था। आदित्य उसे तुरंत पहचान गया।

उसने परीक्षा पास कर ली थी। उसका विवाह जलपरी से कर दिया गया। लेकिन अब समस्या यह थी कि वह हमेशा पानी के अंदर नहीं रह सकता था और जलपरी हमेशा पानी के बाहर नहीं रह सकती थी।

इसलिए आदित्य ने अपनी पत्नी से एक वादा किया। उसने कहा, 'मैं सुबह होते ही समुद्र के बाहर की दुनिया में जाकर अपने चित्र बनाऊँगा। शाम होते ही मैं तुम्हारे पास इस समुद्र में आ जाया करूँगा।'

आदित्य ने ऐसा ही किया। उसने अपना वादा हमेशा निभाया। ठीक सूर्य की तरह, जो सुबह समुद्र की लहरों से निकलकर आसमान में चमकता है और शाम होते ही लहरों में छिप जाता है। इसीलिए तो हम सूर्य को 'आदित्य' भी कहते हैं!

खूबियाँ हैं हम सब में


जंगल का राजा शेर युद्ध की तैयारी कर रहा था। उसने जंगल के सभी जानवरों की एक सभा बुलाई। हाथी, हिरन, ख़रगोश, घोड़ा, गधा, भालू, बंदर सभी आए।

राजा शेर ने सबको उनके काम सौंपे दिए। केवल ख़रगोश और गधे को काम देना बाक़ी था। शेष जानवर बोले, 'महाराज, आप अपनी सेना में गधा और ख़रगोश को शामिल मत कीजिए।'

'लेकिन क्यों?' शेर ने पूछा।

तब सभी जानवरों की ओर हाथी खड़ा हुआ और बोला, 'महाराज, गधा इतना मूर्ख है कि वह हमारे किसी काम का नहीं है, युद्ध के समय बुद्धीमान व्यक्ति की ज़रूरत होती है।'

फिर भालू बोला, 'और महाराज, ये ख़रगोश तो इतना डरपोक है कि मेरी परछाई से ही डरकर भाग जाता है। ऐसे डरपोक व्यक्ति का युद्ध में क्या काम?'

अब शेर बोला, 'भाइयो, आपने गधे और ख़रगोश की कमज़ोरियाँ तो देख लीं, लेकिन क्या आपने उनकी ख़ूबियों पर ध्यान दिया?'

'हाँ ख़ूबियाँ, देखिए गधा इतनी तेज़ आवाज़ में चिल्ला सकता है कि मेरी दहाड़ भी उसके सामने हल्की लगेगी और ख़रगोश के जितना फुर्तीला क्या कोई और है? इसलिए मैं गधे को उद्घोषक बनाता हूँ और ख़रगोश को 'संदेशवाहक'। हर किसी के अंदर कोई-न-कोई ख़ूबी ज़रूर होती है। बस ज़रूरत होती है तो उसे ढूँढ़ने की।'

बेलो - 'हाँ' कि 'ना'।

चमत्कार


वर्षा का मौसम था। एक बैलगाड़ी कच्ची सड़क पर जा रही थी। यह बैलगाड़ी श्यामू की थी। वह बड़ी जल्दी में था। हल्की-हल्की वर्षा हो रही थी। श्यामू वर्षा के तेज़ हाने से पहले घर पहुँचना चाहता था। बैलगाड़ी में अनाज के बोरे रखे हुए थे। बोझ काफ़ी था इसलिए बैल भी ज्यादा तेज़ नहीं दौड़ पा रहे थे।

अचानक बैलगाड़ी एक ओर झुकी और रूक गई। 'हे भगवान, ये कौन-सी नई मुसीबत आ गई अब!' श्यामू ने मन में सोचा।

उसने उतरकर देखा। गाड़ी का एक पहिया गीली मिट्टी में धँस गया था। सड़क पर एक गड्ढ़ा था, जो बारिश के कारण और बड़ा हो गया था। आसपास की मिट्टी मुलायम होकर कीचड़ जैसी हो गई थी और उसी में पहिया फँस गया था।

श्यामू ने बैलों को खींचा ..... और खींचा .... फिर पूरी ताक़त से खींचा। बैलों ने भी पूरा ज़ोर लगाया लेकिन गाड़ी बाहर नहीं निकल पाई।

श्यामू को बहुत गुस्सा आया। उसने बैलों को पीटना शुरू कर दिया। इतने बड़े दो बैल इस गाड़ी को बाहर नहीं निकाल पा रहे हैं, यह बात उसे बेहद बुरी लग रही थी।

हारकर वह ज़मीन पर ही बैठ गया। उसने ईश्वर से कहा, 'हे ईश्वर, अब आप ही कोई चमत्कार कर दो, जिससे कि यह गाड़ी बाहर आ जाए। मैं ग्यारह रूपए प्रसाद चढ़ाऊँगा।'

तभी उसे एक आवाज़ सुनाई दी, 'श्यामू, ये तू क्या कर रहा है? अरे, बैलों को पीटना छोड़ और अपने दिमाग का इस्तेमाल कर। गाड़ी में से थोड़ा बोझ कम कर। फिर थोड़े पत्थर लाकर इस गड्ढे को भर। तब बैलों को खींच। इनकी हालत तो देख। कितने थक गए हैं बेचारे!'

श्यामू ने चारों ओर देखा। वहाँ आस-पास कोई नहीं था।

श्यामू ने वैसा ही किया, जैसा उसने सुना था। पत्थरों से गड्ढा थोड़ा भर गया और कुछ बोरे उतारने से गाड़ी हल्की हो गई।

श्यामू ने बैलों को पुचकारते हुए खींचा - 'ज़ोर लगा के ......' और एक झटके के साथ बैलगाड़ी बाहर आ गई।

वही आवाज़ फिर सुनाई दी, 'देखा श्यामू, यह चमत्कार ईश्वर ने नहीं, तुमने खुद किया है। ईश्वर भी उनकी ही मदद करते हैं, जो अपनी मदद खुद करते हैं।'

कपास के फूल


एक खेत में कपास के बहुत से पौधे लगे हुए थे। उनमें से एक छोटा-सा पौधा बहुत ही सुंदर था। उसके रूई जैसे फूल बड़े ही सुंदर लगते थे। रात को जब ओस की बूँदें गिरती थीं तो पौधा और भी सुंदर लगने लगता था। वह हमेशा खुश रहता था। उसे गर्व था कि वह एक कपास का पौधा था। इसीलिए उसके फूल भी अपने ऊपर गर्व करते थे।

फिर एक दिन उसे तोड़ लिया गया। उसके फूलों को तरह-तरह की मशीनों में डाला गया। मशीनों के अंदर कभी फूलों को दबाया गया तो कभी खींचा। कभी धोया गया तो कभी सुखाया गया। और जब ये फूल आखि़री मशीन से बाहर निकले तो धागे में बदल चुके थे। फिर इस धागे को करघे पर चढ़ाया गया और आखि़र में एक सुंदर कपड़ा बनकर तैयार हो गया। कपास के फूल खुश थे कि वे इस सुंदर कपड़े का हिस्सा थे।

उसके बाद यह कपड़ा दरजी के पास पहुँचा। वहाँ फिर कुछ परेशानी सहनी पड़ी इन फूलों को। क्योंकि कपड़े को कैंची से काटा गया, सुई से सिला गया और गर्म इस्त्री से दबाया गया। और बनकर तैयार हुआ एक सुंदर फ्रॉक। एक छोटी बच्ची का प्यारा-सा फ्रॉक बन जाने पर कपास के फूल बहुत ही खुश थे।

उस फ्रॉक को प्यारी-सी बच्ची ने ख़ूब पहना। जब फ्रॉक ख़राब हो गया तो उसे झाड़न बना लिया गया और अंत में उसे पुराने कपड़ों के साथ दे दिया गया।

इन पुराने कपड़ों को एक काग़ज़ की फैक्ट्री ने ख़रीद लिया। कपड़ों को बारीक पीसकर फिर तरह-तरह की मशीनों से होकर जाना पड़ा। कपास के फूलों को फिर थोड़ी परेशानी हुई। लेकिन अंत में वे बन गए एक सुंदर काग़ज़। इस काग़ज को एक किताब छापने के लिए प्रयोग किया गया। एक धार्मिक पुस्तक जो मंदिर में भगवान के सामने रखी गई। तो सारी परेशानियाँ सहकर भी कपास के फूल हमेशा संतुष्ट रहते थे न, इसीलिए उन्हें मिला एक ऐसा पवित्र स्थान, जहाँ वे हमेशा के लिए रह गए। सब उन्हें आदर के साथ सिर से लगाते हैं।

कपास के फूलों को आज भी गर्व है कि वे कभी कपास के फूल थे!

आँसू की बूँद


अनाज के एक गोदाम में एक चींटी इधर-उधर घूम रही थी। प्यास के मारे उसका बुरा हाल था। प्यास के मारे उसका बुरा हाल था। उसे लग रहा था कि वह पानी न मिलने के कारण मर जाएगी। तभी एक बूँद उसके ऊपर गिरी और उसकी जान बच गई।

चींटी ने ऊपर देखा। असल में यह बूँद पानी की नहीं थी। बल्कि यह एक लड़की का आँसू था, जिसने चींटी की जान बचाई थी।

चींटी ने देखा वह लड़की बहुत दुखी थी। उसके आगे अनाज का एक ढेर पड़ा हुआ था। उसमें गेहूँ और चावल के दाने मिले हुए थे। वह लड़की गेहूँ और चावल के दानों को अलग कर रही थी और रोती जा रही थी। वह रोते-रोते कह रही थी-

'मेरी ही ग़लती से ये दोनों अनाज आपस में मिल गए हैं। कल तक अगर मैंने ये दोनों अनाज अलग नहीं किए तो मेरा मालिक मुझे बहुत मारेगा। हे भगवान, मैं क्या करूँ? अगर मैं सारी रात भी काम करूँ, तब भी कल तक ये दाने अलग नहीं कर पाऊँगी।'

चींटी ने उसकी बात सुनी। उसने तुरंत अपनी सब साथियों को बुला लिया। देखते-ही-देखते वहाँ हज़ारों चींटियाँ आ गई। आधाी चींटियाँ गेहूँ के दाने ले जा रही थीं और आधी चींटियाँ चावल के दाने उठा रही थीं। उन्होंने गेहूँ और चावल के दो ढेर बनाने शुरू कर दिए।

चींटीयों और उस लड़की ने मिलकर बहुत मेहनत से काम किया।

अगले दिन सुबह जब गोदाम का मालिक वहाँ आया तो लड़की का काम पूरा हो चुका था। उसने लड़की को माफ़ कर दिया।

इस तरह आँसू की एक बूँद ने चींटी और उस लड़की दोनों की जान बचाई।

जिन्न


कमल एक बुद्धीमान युवक था। एक बार वह कहीं जा रहा था। रात होने वाली थी। वह तेज़ी से चलकर जा रहा था। तभी उसने एक हल्की-सी आवाज़ सुनी। कोई कह रहा था - 'बचाओ, बचाओ, मुझे बाहर निकालो।'

कमल ने इधर-उधर देखा। उसे कोई दिखाई नहीं दिया। वह आगे जाने लगा। तभी वही आवाज़ फिर आई। कमल ने ध्यान से देखा तो उसे पेड़ के नीचे एक बोतल पड़ी हुई दिखाई दी। उसे लगा कि आवाज़ बोतल के अंदर से आ रही है। कमल ने बोतल को उठाकर देखा। उसके अंदर उसे एक छोटा-सा चेहरा दिखाई दिया। अंदर कोई बंद था चिल्ला रहा था। 'बचाओ-बचाओ, मुझे यहाँ से बाहर निकालो।'

कमल ने बोतल का ढक्कन खोल दिया। अचानक अंदर से ढेर सारा धुँआ निकला और साथ ही वह व्यक्ति भी। बाहर निकलते ही उसका आकार बहुत बड़ा हो गया। उसने कमल से कहा, 'मैं एक जिन्न हूं। एक दुष्ट जादूगर ने उसे इस बोतल में बंद कर दिया था। अब मैं आज़ाद हो गया हूं। मुझे बहुत भूख लगी है। अब मैं तुम्हें खाऊँगा।'

यह सुनकर कमल थोड़ा घबराया। लेकिन उसने जिन्न को पता नहीें लगने दिया कि उसे डर लग रहा है। उसने जिन्न से कहा, 'तुम मुझे बेवकूफ़ नहीं बना सकते। ज़रा अपना आकार तो देखो। और यह बोतल देखो। तुम इतने बड़े होकर इस बोतल के अंदर भला कैसे आ सकते हो।‘ तुम झूठ बोल रहे हो।'

यह सुनकर जिन्न को गुस्सा आ गया। वह बोला, 'जिन्न कभी झूठ नहीं बोलते। तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं है न, ठीक है मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि मैं इस बोतल के अंदर जा सकता हूँ।'

ऐसा कहकर उसने अपना आकार छोटा किया और धुँआ बनकर बोतल के अंदर चला गया।

कमल तो यही चाहता था। उसने झट से बोतल का ढक्कन वापिस लगा दिया।

फिर कमल उस जिन्न से बोला- 'मैं जान गया हूँ कि जिन्न झूठ नहीं बोलते, लेकिन थोड़े बेवकूफ़ जरूर होते हैं। अब तुम यहीं रहो, इसी बोतल के अंदर।'

कमल ने वह बोतल एक पत्थर से बाँधी और समुद्र में फेंक दी। भारी पत्थर से बँधी होने के कारण बोतल पानी में डूब गई और साथ ही जिन्न भी।

एक बात तो तुम समझ गए होगे कि मुसीबत के समय घबराने से कुछ हल नहीं होता। इसलिए अपनी बुद्धी का उपयोग करना चाहिए, जैसे कमल ने किया।

ईश्वर


एक प्रसिद्ध कवि की मेज़ पर एक क़लम, यानी पैन और एक स्याही की दवात रखी हुई थी।

रात का समय था। कवि महोदय किसी संगीत-कार्यक्रम में गए हुए थे। तभी उनकी मेज़ की चीज़ें अचानक बातें करने लगीं।

दवात बोली, ‘कितने कमाल की बात है! मेरे अंदर से कितनी सुंदर चीज़ें निकलती हैं। कविताएँ, कहानियाँ, चित्र सभी कुछ। मेरी कुछ बूँदें ही काफ़ी हैं, पूरा एक पेज भरने के लिए। मेरा कोई जवाब नहीं।‘

पैन ने यह सुना तो तुरंत बोला, 'यह तुम क्या कह रही हो? अरे, अगर मैं नहीं होता तो कोई कैसे लिखता! तुमसे तो केवल स्याही ली जाती है। सुंदर शब्द तो बस मेरे अंदर से ही निकलते हैं।'

वे दोनों अभी बातें कर रहे थे कि तभी कवि महोदय वहाँ आ गए। ऐसा लगता था जैसे उन्हें संगीत का कार्यक्रम बहुत पसंद आया था, इसलिए वे प्रसन्न थे। आकर सीधे अपनी मेज़ पर आए और लिखने लगे।

'यदि तबला कहे कि उसके अंदर से सुंदर तालें निकलती हैं तो कितना ग़लत होगा! यदि बाँसुरी कहे कि सारे मीठे स्वर उसी के अंदर से निकलते हैं तो मूर्खता होगी। सच तो यह है कि ये सब तो बस वही कहते हैं, जो उनके ऊपर चलने वाले हाथ उनसे करवाते हैं- उस व्यक्ति के हाथ जो इन्हें बजा रहा होता है। और वह व्यक्ति बस वही करता है, जो ईश्वर उससे करवाता है। यानी कि संसार में सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही होता है। हम तो बस ईश्वर के हाथों के खिलौने हैं। जो वह चाहेगा, वही होगा।'

और तब पैन और स्याही को बात समझ में आई। उसके बाद उन्होंने कभी लड़ाई नहीं की।

राजू


एक नगर था अँधेरनगरी। वहाँ के राजा अक्सर उदास रहा करते थे। उनके दरबार के सभी लोग चाहते थे कि वे खुश रहें, क्योंकि जब वे खुश रहते थे तो उनकी प्रजा भी खुश रहती थी।

तरह-तरह के लोग उनसे मिलने आते थे और ये कोशिश करते थे कि राजा को हँसा सके। लेकिन सारी कोशिशें बेकार हो जाती थीं। एक दिन दरबार में एक मसखरा आया।

उसका नाम था- राजू। उसने राजा से कुछ इस तरह से बात की कि राजा को हँसी आ ही गई। बड़ा ही बुद्धीमान था वह। किसी भी बात को मज़ाक में कह देना उसके लिए बहुत सरल काम था। राजा ने निश्चय किया कि वे राजू को अपने पास रखेंगे।

राजू बड़े ही हँसमुख स्वभाव का व्यक्ति था। उसे कभी भी किसी ने दुखी नहीं देखा था। इसीलिए उसे देखकर सभी को बड़ा अच्छा लगता था।

एक दिन राजा अपने दरबार में बैठे हुए थे। तभी उन्होंने राजू के ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने की आवाजें सुनीं। ऐसा लग रहा था कि जैसे वह चीख़-चीख़कर रो रहा हो।

राजा तुरंत उठकर भागे। वे बाहर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि उनके सैनिक राजू की बुरी तरह पिटाई कर रहे थे।

राजा का गुस्से से बुरा हाल हो गया। वे चिल्लाए, 'छोड़ दो उसे, तुरंत!'

सैनिक घबराकर एक ओर खड़े हो गए। तब राजा ने पूछा, 'क्यों मार रहे हो इसे?'

'महाराज, यह राजू आपके सिंहासन पर बैठा हुआ था। यह तो अच्छा हुआ, हमने इसे देख लिया और बाहर ले आए।' सैनकि बोले।

राजा ने कहा, 'राजू पर हमें पूरा भरोसा है। यदि इसने ऐसा किया भी है तो हमारा अपमान करने के लिए नहीं किया होगा। तुम लोग जाओ।'

सैनिक चले गए। लेकिन राजू फिर भी ज़ोर से रो रहा था।

अब राजा को और भी गुस्सा आ गया। वे बोले, 'राजू, अब क्यों रो रहे हो? तुम सही-सलामत तो हो।'

तब राजू बोला, 'महाराज, मैं अपने लिए नहीं आपके लिए रो रहा हूँ।'

'हमारे लिए?' राजा ने आश्चर्य से पूछा।

'जी महाराज, मैं एक बात सोच-सोचकर बहुत ही दुखी हूँ। देखिए, महाराज, इन सैनिकों ने मार-मारकर मेरी क्या हालत कर दी है, जबकि मैं तो केवल कुछ पलों के लिए ही आपके सिंहासन पर बैठा था। और महाराज, आप तो कितने वर्षों से इस सिंहासन पर बैठा करते हैं। आपने कितनी ज़्यादा मार सही होगी।.....अ...उ...उ।'

यह बात सुनकर महाराज को भी हँसी आ गई। उनका सारा गुस्सा गायब हो गया।

बंदर का जिगर


एक नदी में एक मगरमच्छ रहता था। नदी के किनारे पर केले का एक पेड़ था। मगरमच्छ हमेशा केलों की ओर ललचाकर देखता था, लेकिन वह तो पेड़ पर चढ़कर केले तोड़ नहीं सकता था, इसलिए बेचारा कुछ कर नहीं पाता था।

एक बंदर अक्सर मगरमच्छ को केलों के लिए ललचाते हुए देखता था। एक दिन उसने केलों का एक गुच्छा तोड़कर मगरमच्छ के लिए नीचे गिरा दिया। मगरमच्छ ने पेट भरकर केले खाए। फिर जो केेले बचे उनको वह अपनी पत्नी के लिए ले गया। इस तरह बंदर और मगरमच्छ दोस्त बन गए।

मगरमच्छ की पत्नी ने जब इतने बड़े-बड़े और मीठे केले खाए तो मगरमच्छ से बोली, 'मैंने सुना है कि बंदरों का जिगर बड़ा ही स्वादिष्ट होता है और तुम बता रहे थे कि वह बंदर सिर्फ केले खाकर ही अपना पेट भरता है। ज़रा सोचो ऐसे बंदर का जिगर कितना मीठा और स्वादिष्ट होगा। तुम उसे किसी तरह यहाँ ले आओ। फिर हम दोनों आराम से बंदर का जिगर खाएँगे।'

मगरमच्छ को लगा कि अपने दोस्त के साथ ऐसा करना ठीक नहीं है। लेकिन उसकी पत्नी ने उसे इतना लालच दिया कि वह भी ऐसा करने को तैयार हो गया।

अगले दिन सुबह वह बंदर के पास आया और बोला, 'बंदर भैया, कल रात के केले खाने से मेरी पत्नी की तबियत अचानक खराब हो गई। उसने पहली बार केले खाए थे न, इसलिए। भैया, तुम तो रोज़ ही केले खाते हो, ज़रा चलकर देखो न, मेरी पत्नी को क्या हुआ है?'

बंदर ने सोचा कि दोस्त की मदद करनी चाहिए। इसलिए वह मगरमच्छ की पीठ पर बैठ गया। इतनी खुरदुरी और चुभने वाली चीज़ प रवह पहली बार बैठा था।

जैसे ही वह मगरमच्छ के घर पहुँचा, उसने देखा कि मगरमछ की पत्नी तो बिल्कुल ठीक-ठाक है। उसे अंदाज़ा लग गया कि ज़रूर कुछ गड़बड़ है। वह सम्हलकर बैठा रहा।

मगरमच्छ की पत्नी ने जैसे ही बंदर को आते हुए देखा, वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। वह बंदर से बोली, 'मूर्ख बंदर, अब तू नहीं बचेगा। हम तेरा जिगर खाएँगे। हा-हा-हा....'

बंदर को अब पूरी बात समझ में आई। लेकिन वह कुछ कम समझदार नहीं था। तुरंत बोला, 'भाभीजी, अगर ऐसी बात थी तो आप लोगों ने मुझे पहले बोला होता। मेरा जिगर मेरे लिए इतना कीमती है कि जब भी मैं कहीं बाहर जाता हूँ तो उसे पेड़ की ऊँची डाल पर छिपाकर रख देता हूँ। जिगर को लेकर मैं कभी नहीं घूमता। आप लोग मुझे वापस पेड़ तक छोड़ दो, मैं जिगर लेकर अभी वापस आता हूँ।'

मूर्ख बंदर नहीं, मगरमच्छ था। बंदर को पीठ पर बैठाकर वह नदी के किनारे तक आया। बंदर किनारे तक पहुँचते ही कूदकर पेड़ की तरफ़ दौड़ा। मगरमच्छ उसका इंतज़ार करता हुआ किनारे पर ही लेटा रहा।

कहते हैं कि मगरमच्छ अभी तक बंदर का इंतजार कर रहा है। इसीलिए वह नदी के किनारे पर घंटों तक, मुँह खोलकर पड़ा रहता है।

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