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[PDF] Bhagwat Geeta in Hindi PDF | संपूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता ई-बुक
महाकाव्य महाभारत में कुल 18 पर्व है, जिसमें 'श्रीमद्भगवद्गीता' छठे पर्व यानी भीष्म पर्व का भाग है। भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता को सभी शास्त्रों से युक्त कहा गया है। विद्वान ऐसा मानते हैं कि गीता में सभी चारों वेदों तथा शास्त्रों का निचोड़ निहित है। भीष्म पर्व में इसकी सार्थकता और महत्ता को बताते हुए यह बताया गया है कि जिसने श्रीमद्भगवद् को पूरा पढ़ लिया, उसे अन्य ग्रंथों की अध्ययन करने की कोई विशेष जरूरत नहीं होती। यहां आप गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित Shrimad Bhagwat Geeta का सम्पूर्ण नया संस्करण pdf में डाउनलोड कर सकते है - DOWNLOAD

गीता में हर दशा एवं स्थिति में एक तरह होने पर यानी समता (parity) पर जोर दिया गया है।
दुनिया में आज के समय में यदि गीता को इस ढंग से अध्ययन किया जाये तो पूरी मानवता का भला होगा। श्रीमद्भगवद्गीता में मानवों में समता, मानव एवं प्राणियों में समता और सारे प्राणियों में समता का वर्णन है। इस संबंध में गीता के भीष्म पर्व का छठा तथा 32वां श्लोक विशेष ध्यान देने योग्य है।

मनुष्य की क्या गति क्या है? इस प्रश्न पर आज का आदमी विशेष रूप से ज्यादा चिन्तित दिखाई देता हैं हालांकि आम आदमी यह बहुत अच्छी तरह जानता है कि जो जिस तरह का कर्म करेगा, वह उसी तरह का फल पाएगा। मनुष्य की यही प्रकृतिस्थ गति है। फिर भी मनुष्य इसका परिणाम जानते हुए भी सही कर्म नहीं करता और अंततः ज्यादा दुख ही भोगता है।

Geeta में प्राणियों के गुण तथा कर्म के अनुसार उनकी उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ, इन 3 गतियों का वर्णन किया गया हैं। कर्म योग एवं सांख्य योग की नजर से अच्छे भाव से किया गया कर्म और भक्ति करने वाले की गति तथा सामान्य रूप से सभी जीवों की गति का भी इसमें उचित उल्लेख किया गया है।

अपनी रचना के समय से ही श्रीमद्भगवद्गीता जन-सामान्य को प्रेरित करती आई है। वर्तमान समय का मनुष्य समस्याओं से ग्रस्त होकर गीता की ओर जाने का सोचता तो है, परन्तु वह गीता की ओर कितना जा पाता है, यह उसके कर्मों की गति से निर्धारित होता है।

दुनिया की लगभग 80 से ज्यादा भाषाओं में भगवद्गीता का अनुवाद हो चुका है। इसे पूरे विश्व में एक प्रमाणिक शास्त्र माना जाता है।
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श्रीमद्भागवत गीता का एक संदेश - दूसरों का हित करना सबसे बड़ा धर्म


इस विशाल सृष्टि में मानव ऐसा प्राणी है, जिसमें विवेक का प्राधान्य होता है। अपने विवेक के माध्यम से उसने अनेक प्रकार के उद्यम करके वैज्ञानिक और तकनीकी उन्नमि की है। इस उन्नति का लक्ष्य जीवन को सुखी बनाना है। सुख प्राप्त करने की उसकी यह अभिलाषा धीरे-धीरे बढ़ती चली जाती है। जब सुख के साधन केवल भौतिक सुखों तक ही सीमित रह जाते हैं, तो धीरे-धीरे स्वार्थ और 'स्व' की भावना बढ़ने से मनुष्य दूसरों के हित-अहित की चिंता किए बिना अपने ही सुख-साधनों को बढ़ाने में जुट जाता है।

इससे समाज के साधन-हीन वर्ग निरंतर शोषण की चक्की में पिसने लगते हैं। समाज में असंतुलन उत्पन्न होने और शोषण बढ़ने से असंतोष, अराजकता एवं अनैतिकता को बल मिलता है। प्रकृति भी इस मानवीय शोषक का शिकार होती है और अंततः इससे प्राकृतिक आपदाएं भी आने लगती है। मानव का पूर्ण और प्राकृतिक जीवन केवल लिप्सा, भोग और कामनाओं के जाल में घिर जाता है। इससे मानवता के समर्थक दुख पाते है। लेकिन इसका एक पक्ष और भी है, कि निजी स्वार्थ से उठकर कुछ लोग मानवता की भलाई में ही अपने जीवन को समर्पित कर देते हैं।

परहित का अर्थ:- परहित दो शब्दों के योग से बना हैं - पर हित। पर का अर्थ है - अपनों से अतिरिक्त कोई भी दूसरा तथा हित का अर्थ है- भलाई। अतः इस शब्द का अर्थ है - दूसरों की भलाई। दूसरों का अर्थ है - वे लोग, जो हमारे अपने नहीं हैं, जिनसे हमारा कोई स्वार्थ नहीं है। कभी-कभी हम अपने नाते-रिश्ते के लोगों प्रति भी करूणा की भावना रखकर उनका हित करते हैं। लेकिन अपने प्रियजन-परिजन, नाते-रिश्तेदारी का हित करना वास्तव में मनुष्य का नैतिक कर्तव्य होता है। इसे सहायता रूप में जाना जा सकता है। इसका भी महत्व होता है और यह सद् कर्म है, मानवीयता है और मानव का धर्म भी है।


लेकिन परहित इससे भिन्न अर्थ संकेतित करता है। जब अपने हित-अहित, लाभ-हानि का ध्यान रखे बिना, दूसरे लोगों का हित, उनकी भलाई की जाती है तो यही कर्म परहित कहलाता है। परहित करने वाला व्यक्ति परोपकारी होता है। सभी प्रकार की कामना और इच्छाओं को त्यागकर ही वह दूसरों की सेवा करता है।

भारतीय संस्कृति में पाप और पुण्य की चर्चा भी होती है। व्यवहार और चरित्र के धरातल पर ये दो मूल्य माने गए हैं। अपना हित सोचना मानव का कर्तव्य है और धर्म भी। लेकिन अपने हित के कार्यों को इस प्रकार करना कि दूसरों को किसी प्रकार की हानि न उठानी पड़े, यह उससे भी श्रेष्ठ कर्म है। इनके अतिरिक्त तीसरा पक्ष भी है- अपने हित-अहित की चिंता किए बिना, जब कोई मानव दूसरों की सेवा या सहायता करता है तो यह श्रेष्ठ कर्म परहित होता है।

विश्व इतिहास और साहित्य में इस प्रकार के अनेक चरित्र हुए हैं, जिनमें ईसा मसीह, बुद्ध, गांधी, नानक, दयानंद सरस्वती, राम कृष्ण, भगत सिंह, चंद्रशेखर, सुभाषा आदि महान व्यक्तित्व हैं। इन महान चरित्रों में यही समानता देखी जाती है कि इनके कार्यों से लोगों को पीड़ा और दुख से मुक्ति मिली तभी वे सुख ओर बढ़े हैं।

परहित और जीवन:- मनुष्य का अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी और संतान की सेवा करना सबसे प्रथम कर्तव्य है। यथा-योग्य इनका भरण-पोषण उसका धर्म बन जाता है। उसके कर्तव्य की सीमा यहीं तक सीमित नहीं रहती है, अपितु अपने सगे-संबंधियों के प्रति भी उसका कुछ कर्तव्य होता है। यहीं त कवह सीमित नहीं रहता है, उसे समाज के प्रति भी उत्तरदायी बनना होता है। समाज के साथ ही देश और अंततः विश्व के प्रति वह किसी न किसी रूप में जवाबदेही बनाता है।

वर्तमान विश्व में आज जो अराजकता, अनैतिकता, हिंसा, उग्रवाद, प्राकृतिक आपदाएं तथा युद्ध का जो संकट छाया हुआ है, उसके मूल में परहित की अपेक्षा 'स्वहित' को ही कर्म माना गया है। आज का स्वार्थी और लिप्सा में डूबा हुआ व्यक्ति दूसरों का शोषण कर अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में डूबा हुआ है। छोटी-छोटी बातों के लिए, क्षुद्र स्वार्थ के लिए हत्या कर देना साधारण-सी बात मानता है। सामाजिक असंतोष, प्रदर्शन, आगजनी, हड़ताल, घेराव आदि शब्द इस व्यवस्था से उपजे हुए हैं।

मनुष्य विवेकशील होने के साथ-साथ संवेदनशील होता है। अन्य जीवधारियों से उसे ये तथ्य अलग कर देते है। पशु में भी भूख, काम की भावना होती है। इनकी पूर्ति के लिए उसे कोई भी बंधन नियम और व्यवस्था को नहीं समझना पड़ता है। मानव की सामाजिक भावना उसे व्यवस्था में बांधती है। अतएव परहित ही वह आधार है, जो सबके ही सुख का कारण होता है।

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