चालीसा का नाम : शिव चालीसा
पृष्ठ : 14
फाइल साइज : 3.2 MB
श्रेणी: हिंदू धर्म
भाषा: हिन्दी
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पढ़ने हेतु : इस बात से कितना अचंभा होता है कि पति-पत्नी जीवन भर साथ में रहते हैं, परन्तु कितने ही पति-पत्नी एक दूसरे को जीवन में कभी नहीं समझ पाते। यही कारण है कि वे एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते या वाद-विवाद करते रहते हैं। जीवन भर साथ-साथ रहते हुए भी यदि पति पत्नी को न समझ पाये तथा पत्नी पति को न समझ पाये, तो यह उनका घोर अज्ञान नहीं तो क्या है! यही बात पिता-पुत्र, सास-बहू, देवरान-जेठान, अफसर-मातहत, गुरु-शिष्य, सिद्ध-साधक सबके लिए लागू होती है।
एक दूसरे को समझने-बुझने के लिए मनोविज्ञान की आवश्यकता है। अगले आदमी को समझने के लिए यह विचार करना होगा कि उसका मन कैसा है! साथी या दूसरे के मन में उद्वेग न आये, ऐसा काम करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है। मनुष्य अज्ञानवश अपने ही निजी व्यक्तित्व को नहीं समझ पाता, फिर दूसरों के मन को समझने से रहा।
आदमी अपने तथा दूसरे के मन को कुछ समझ भी लेता है, किन्तु यदि उसमें अहंकार की मात्रा अधिक है, तो वह झुक न पाने से उलझन वाला काम करता है। अहंकारी आदमी का ज्ञान भी अज्ञान का काम करता है। आदमी का अहंकार उसे विनम्र नहीं होने देता, और विनम्र हुए बिना व्यक्ति झुक नहीं सकता और झुके बिना कोई व्यक्ति न वजनदार होता है और न दूसरे के दिल को जीत सकता है। अहंकारी आदमी विनम्रता को अपनी तौहीनी समझता है, किन्तु आदमी की तौहीनी उसका अहंकार ही करता है।
अहंकारी आदमी तत्काल नहीं समझ पाता, किन्तु धीरे-धीरे पूरी सत्ता ही उसके विरुद्ध हो जाती है। अहंकारी को टूटना है, और विनम्र को उठना है, खिलना है, स्थिर रहना है और सबके हृदय का हार बनना है। अतएव अहंकार को छोड़े बिना कोई सुन्दर एवं सुलझा हुआ व्यवहार नहीं कर सकता।
जिसमें अहंकार की मात्रा कम भी हो, किन्तु यदि वह प्रलोभन से ग्रस्त है, तो अच्छा व्यवहार या बर्ताव नहीं कर सकता। लोभी आदमी स्वार्थी होता है और स्वार्थी का व्यवहार दूषित हुए बिना नहीं रह सकता। अतः प्रलोभन को जीतकर साथियों में अच्छा व्यवहार बरता जा सकता है। जो अपने ही खाने, पीने, आसन-बिस्तर या भोग-विलास के लिए स्वार्थी होगा, वह दूसरे के साथ उत्तम व्यवहार नहीं कर सकता। सेवा ही तो उत्तम व्यवहार है और उसमें ज्ञान, निर्ममता के साथ त्याग की आवश्यकता पड़ती है।
संदेह, संशय, शंका ऐसे घुन है जो भीतर-भीतर चाल कर आदमी को खोखला बना देते हैं। पति को पत्नी पर संदेह रहता है, पत्नी को पति पर, पिता को पुत्र पर संदेह है तो पुत्र को पिता पर इसी प्रकार अन्य लोगों में भी संदेह के कीड़े लगे रहते हैं जिससे हर रिश्ते-नाते एवं संबंध कड़वे बने रहते हैं।
संदेह मन का पाप है। हमें दूसरे पर संदेह रहता है कि वह हमारी हानि करने पर तुला है और हम उससे भयभीत /
शनि देव और आतंकित रहते हैं। ठीक यही दशा उसकी हमारे प्रति रहती है। किन्तु ज्यादातर तथ्य यह होता है कि न तो हम उसकी हानि करते हैं और न वह हमारी; किन्तु दोनों दोनों पर संदेह करते हैं और दोनों दोनों से भयभीत रहते हैं।
हममें नैतिकता का बल जितना ही कम होगा, हम उतना ही संदेह से घिरे रहेंगे। हमारे मन में प्राणी-मात्र के प्रति जितनी ही करुणा-दया की भावना बढ़ती जायेगी, हम जितना ही नैतिक गुणों से पूर्ण होते जायेंगे, उतना ही संदेहरहित स्वस्थ चित्त होते जायेंगे। संदेह-रहित स्वस्थ चित्त का व्यक्ति ही सबसे सुन्दर व्यवहार कर सकता है।