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[PDF] Shiv Puran PDF in Hindi | शिव पुराण

Hindi PDF of Shri Shiv Puran
शिव पुराण में कथा की अपेक्षा दार्शनिक तत्व कम नहीं है। विद्येश्वर संहिता, रावण संहिता कैलास और वायवीय संहितायें तो दार्शनिक बातों से भरी ही हैं, किन्तु अन्य संहिताओं में भी दार्शनिक तथ्य कम नहीं उपलब्ध होते। यह बात पूर्ण सत्य है कि शिव महापुराण में शैव दर्शन का प्रतिपादन आगमों के साथ ही सांख्य, वेदान्त, तन्त्र, योग आदि दर्शनों के आधार पर ही किया गया है। इस प्रकार शिव पुराण उक्त दर्शनों का एक समवाय सा प्रतीत होता है। यहां से आप संपूर्ण Shri Shiv Puran डाउनलोड करें- DOWNLOAD

शिव महापुराण में प्रधानरूप से वर्ण्य विषय शैवदर्शनों को सांख्य, वेदान्त, योग, तंत्र के सिद्धान्तों एवं मतों के आधार पर ही प्रस्तुत किया गया है।


सांख्य के सैद्धांतिक पक्ष पर विचार करने के पूर्व यहां यह उचित प्रतीत होता है कि उसके उस बाह्य पक्ष पर सर्वप्रथम विचार किया जाय जो कि शिव महापुराण में उपलब्ध होता है।

शिव पुराण के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि इसके निर्माण अथवा वर्तमान स्वरूप के पूर्व सांख्य एवं वेदान्त दर्शन अपनी उन्नति के श्रेष्ठतम स्थान पर आसीन थे। यह काल दोनों की उन्नति का काल था। दोनों ही अपने-अपने सिद्धांत के प्रतिपादन एवं प्रसार में संलग्न थे। ये दोनों ही दर्शन उस समय एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़े थे। किन्तु उस समय तक सांख्य की उत्कृष्टता निर्विवाद थी।

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Shiv Mahapuran में कथा आती है कि - हिमालय ने पार्वती के विवाह के विषय में देखे गये स्वप्न का वर्णन करते हुये अपनी स्त्री से कहा कि - "नारदोक्त वर के लक्षणों को धारण करने वाले एक तपस्वी तपस्यार्थ हमारे नगर के उपकंठ में आये है। उनको भगवान शम्भु बनाकर मैं उनकी सेवा में पार्वती को रखना चाहता था। किन्तु जब उन्होंने मेरी अनुरोध अननुमोदित कर दी तब मेरा उनके साथ सांख्य और वेदान्त के अनुसार महान विवाद हुआ अर्थात मैं सांख्य मत का अवलंबन कर पार्वती को उनके साथ रखने का प्रस्ताव कर रहा था और वे वेदांत मत का अवलम्बन कर मेरी प्रार्थना अस्वीकृत कर रहे थे। अंत में मुझे सफलता मिली और उन्होंने मेरी पुत्री को अपनी सेवा में रख लिया।"

हिमालय का यह स्वप्न तो उस घटना की पूर्व सूचना है, जिसके अनुसार आगे पार्वती एवं शंकर में परस्पर सांख्य एवं वेदान्त के अनुसार शास्त्रार्थ हुआ था और पार्वती, जो सांख्य मत का अवलंबन कर रही थी, जिसमें विजयी हुई थी।

एक स्थल पर सांख्य शास्त्र के प्रवर्तक कपिलमुनि को भगवान विष्णु का अवतार कहा गया है। एक अन्य स्थल पर भगवान शंकर ने ब्रह्मा जी से कहा है कि अष्टम द्वापर में मैं 'दघिवाहन' नाम से अवतार लूंगा। उस समय मैं महर्षि व्यास जी की सहायता करूंगा। उस अवतार में कपिल आसुर, पंचशिख, शाल्वक ये चार योगी पुत्र मेरे ही समान होंगे। किन्तु यहां यह ध्यान रखना चाहिये कि सांख्य ग्रंथों के अनुसार 'आसुरि' और 'पंचशिखाचार्य' महर्षि कपिल के शिष्य है। भगवान शंकर के सहस्त्रनामों में उनका एक नाम कपिलाचार्य भी है।

यह एक बड़ी ही आश्चर्यजनक व असामान्य बात है कि एक ही पुराण में एक स्थल पर कपिल को शंकर के अवतार 'दघिवाहन' का पुत्र कहा गया है और दूसरे स्थल पर भगवान शंकर को ही कपिलाचार्य कहा गया है। और यह तो अति विचित्र बात है कि उसी ग्रन्थ में कपिल के मत की कटु शब्दों में आलोचना भी की गई है। कपिल के शास्त्रों को भ्रामक और उनके पढ़ने वालों को अधम, शठ एवं शिवनिन्दापरायण तथा अन्यथावादी कहा गया है। उनके उपदेशों के सुनने का निषेध भी किया गया है।

इतना होने पर भी जिस समय शिव महापुराण की रचना की जा रही थी और शिव की भक्ति का प्रसार एवं प्रचार हो रहा था उस समय भी सांख्य को जानने वाले, निघण्ट के समान विस्तृत, सामान्य मनुष्यों के लिये दुर्ज्ञेय सांख्य के गीतों को पढ़ते थे। किन्तु फिर भी सामान्य जनता सर्वस्व कामनाओं को पूर्ण करने वाले शिव के स्तोत्रों / रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र की और ही आकृष्ट होने लगी थी।

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अच्छी बातें (केवल पढ़ने के लिए) : यदि गुरू,पिता,नेता, स्वामी एवं पूज्यजनों की महिमा-बड़ाई देख-सुन कर शिष्य, पुत्र, अनुगामी तथा आश्रयीजन प्रसन्न नहीं होते और शिष्य, पुत्र तथा अनुगामी की उन्नति को देखकर गुरू, पिता तथा श्रेष्ठजन संतुष्ट नहीं होते, तो इन सब में परस्पर सुन्दर व्यवहार कैसे हो सकता है। और सुन्दर व्यवहार बिना परिवार तथा समाज का सु़द्वद़ होना और परिवार तथा समाज के सदस्यों को मानसिक प्रसन्नता, निर्मलता, उत्साह एवं सुख-शांति का प्राप्त होना आकाश-कुसुम ही हो जायेगा।

ज्ञान-वैराग्य की लम्बी-चैड़ी बातें बनाने से कोई फल नही होता, जब तक व्यवहार पवित्र न बनाया गया हो। साथी लोग अपना व्यवहार पवित्र रखें या न रखें हमें अपने व्यवहार को समुज्जवल बनाए रखना चाहिए।

जिसका हृदय कोमल है, जिसके मन, वाणी, कर्म सरल हैं, जो निरंकारी, निर्मानी तथा निष्कामी है, उसी का व्यवहार पवित्र रह सकता है। जिन पुरूषो तथा देवियों के सुन्दर व्यवहार से सम्पर्क में आनें वाले लोग पवित्रता, निर्भयता तथा प्रेम की प्राप्ति करते हैं, वे संसार-सागर के रत्न, पृथ्वी के भूषण तथा समाज के प्रकाश स्तम्भ है।

अपने कर्तव्यों को न देखकर दूसरे के कर्तव्यों पर दृष्टी रखना; दूसरे के अधिकार की रक्षा न करना, अपने अधिकार की लालसा रखना; स्वयं सहन न करना दूसरे को सहाने की चेष्टा करना; अपनी कामना की पूर्ति को प्राथमिकता देना, दूसरे की विवेकपूर्ण इच्छा की भी पूर्ति न चाहना; अपने मन को न मारना, दूसरे के मनोभावों को कुचलने की चेष्टा रखना- ये सभी पवित्र व्यवहार के शत्रु है। उपर्युक्त दुर्गुण जिनके पास हैं, वे व्यवहार-कुशल नहीं हो सकते। उनके व्यवहार लोगों को सुख नहीं दे सकते। उपर्युक्त त्रुटियों को निकाल देने पर व्यवहार अपने आप पवित्र हो जायेगा।

कतिपय बातों को छोड़कर महाराज श्री राम के जीवन-व्यवहार गृहस्थों के लिए प्रकाशस्तम्भ हैं। महामना महाराज श्रीराम, महाप्राण महाराज श्रीभरत तथा महातपस्विनी श्रद्वेया मां सीता-इन सबके त्याग, तप, उदारता अत्यन्त सराहनीय हैं। राम-भरत जैसा भाई-भाई में परस्पर त्याग तथा प्रेम की भावना आ जाय तो आज ही समाज का कायापलट हो जाय।

कोई मुसलमान, ईसाई तथा अन्य लोग महाराज श्री राम का नाम सुनकर घबरा न जायं महापुरूषों का जीवन-आदर्शएक जाति, सम्प्रदाय तथा देश मात्र के लिए नहीं होता। जैसे सूर्य, चन्दªमा, पृथ्वी वायु,जल,अग्नि आदि सबके हैं, इसी प्रकार महापुरुष सबके हैं, और उनका मानवीय जीवन-आदर्श सबको समान अनुकरणीय हैं।

महाराज श्री राम और भरत का त्याग और तप, महात्मा ईसा की क्षमा,हजरत मुहम्मद का अत्याचारों के प्रति आजीवन जूझने का साहस,महात्मा बु़द्व की करूणा तथा त्याग, स्वामी दयानन्द की अंधविश्वास के प्रति अनास्था तथा सुधार-दृष्टि, स्वामी विवेकानन्द की समन्वयात्मक दृष्टि, गोस्वामी श्री तुलसीदास जी की अनूठी काव्य-कला तथा विनम्र सुधार-भावना और सदगुरु कबीर का पक्षपात, अज्ञान, अंधरूदि़यों के प्रचार की निर्भय ज्वलंत दृष्टि-इन सबको हम एक ही साथ क्यों न स्वीकार लें!

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