कितना भी बड़ा पात्र हो, उसमें समुद्र नहीं आ सकता, किन्तु समुद्र भी एक ग्रह में समा जाता है। स्वयं ग्रह अपने सौर-मंडल में समा जाता है और सौर-मंडल अपनी आकाशगंगा में। इस ब्रह्माण्ड में पता नहीं कितनी आकाश-गंगायें समायी हुई हैं, किन्तु इस प्रकार बढ़ते हुए हम उस ओर चलते जाते है, जो हमारी किसी भी परिकल्पना व अवधारणा से परे है... अचिन्त्य।
शिव की अवधारणा एवं स्तुति उसी अचिन्त्य के अध्ययन का एक प्रयास है -
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इस जग में जो दृष्टिगोचर है, वह सब अनित्य व है मिट जाने वाला है; तो फिर नित्य क्या है? भारतीय मनीषा इसी को शिव कहते है। शिव इन्द्रियों के अनुभवों से भी परे हैं। कुल मिलाकर वह अचिन्त्य, नित्य और निराकार हैं... उन्हें हम महाशून्य कहें कहें या अनन्त; महाशून्य शब्द का प्रयोग इसलिए, क्योंकि यह गणित वाला शून्य या ज़ीरो नहीं है। इस असीम जगत में किसी भी चीज की सही पोजीशन बताने के लिए एक प्रेक्षक चाहिए और वह प्रेक्षक, अपने सापेक्ष ही उस वस्तु की स्थिति बता पायेगा... किन्तु यदि कहीं कोई प्रेक्षक हो ही नहीं, तो किसी भी वस्तु के होने का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। संभवतः महाशून्य की परिकल्पना यहीं जन्म लेती है।
शिव स्त्री भी हैं, पुरुष भी हैं, कुछ भी हैं, कुछ भी नहीं हैं। रूप बदलता है और अंत में उन्हीं में खो जाता है। भारतीय मनीषा बताती है, उसके अनुसार शिव न स्त्री-लिंग है, न पुलिंग, न नपुंसक-लिंग और न उभय लिंगी ही है। वह उसे प्राणलिंगी बताती है। इसी
शिव व शिव पुराण की खोज उन मनीषियों को सत्य और वास्तविक सुंदरता की ओर ले गयी। कल्याणकारी उसे ही माना जाता है जो शुभ है तथा शुभ वही है जो कल्याणकारी है और शिव तो सदैव कल्याणकारी है, तो शिव ही सुंदर हुआ। भारतीय मनीषा, ईश्वर के मात्र तीन आयामों सत्य, शिव और सुन्दर को लेकर आगे बढ़ी, क्योंकि ईश्वर पर काल का कोई दुष्प्रभाव या प्रभाव पड़ता ही नहीं, वह समय से निरपेक्ष है।
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भगवान शिव का महामृत्युंजय मंत्र
शिव के चित्रों में प्रदर्शित उनका नीला कंठ, त्रिशूल, मस्तक पर अर्धचंद्र, गले में सर्प, बाघ की खाल, उनका योग-मुद्रा में बैठा होना और उनकी जटाओं में गंगा की धारा, इन सबके अपने अर्थ हैं, पर विस्तार के भय से यहां पर उनकी चर्चा नहीं की जा सकती... विभिन्न भावनाओं के प्रतीक ये सभी, शिव की परिकल्पना है।
लेकिन मैं स्वयं शिव पर लिखने वाला हूं कौन? जो उस असीमित व्यक्तित्व पर कलम उठाने चला हूं। शिव पर कलम उठाने का प्रयास मेरे लिये ऐसा ही है, जैसे चींटी का गंगोत्री तक पहुंचने का प्रयास करना। इसका रीजल्ट पूर्व से निश्चित है। बहुत सावधानी से ध्येय तक पहुंचने की अभिरुचि करने पर, वह कहीं न कहीं अपनी मौजूदगी खो ही देगी। हां, यदि कोई समर्थ व्यक्ति अपने हस्त में लेकर उसे गंगोत्री तक पहुंचा दे तो बात अलग है।
यह हाथ ईश्वर की कृपा का ही हो सकता है और फिर भी वहां तक पहुंचने के बाद वह स्वयं भी रह ही कहां जायेगी? उसका अस्तित्व तो उसी गंगोत्री में विलीन हो ही जायेगा।
शिव या शिवत्व क्या है, यह यथा-सम्भव पूर्ण रूप से विद्वानों की मीमांसा का विषय है; मैं तो उनके भौतिक रूप की कल्पना को लेकर जो साहित्य है, उस परिप्रेक्ष्य को लेकर कलम चलाने का प्रयोग कर रहा हूं। उन तक मेरी पहुंच इतनी ही तो है।