Title : शिव आरती
Pages : 5
File Size : 350 KB
File format : PDF
Category : Hindu Dharma / Aarti
Language : Hindi
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अच्छी बातें (केवल पढ़ने के लिए) : पुत्र को माता-पिता ने इस जग में लाया या जन्म दिया, उसकी सेवा की, खिलाया-पिलाया, लिखाया-पढ़ाया तथा तमाम प्रकार से गुणवान तथा प्रतिभासंपन्न बनाया। इस प्रकार माता-पिता का पुत्र पर पर्याप्त ऋण है।
पुत्र पर पिता से भी ज्यादा माता का उपकार है। माता पुत्र को आठ-नौ महीने अपने पेट में रखती है। बहुत कष्ट उठाकर पैदा रकती है। कई संताप को झेलते हुए संतान की परवरिश करती है। रात्रि में जब शिशु बिछौने पर पेशाब कर देता है, तब माता उस गीले में स्वयं सो लेती है, परन्तु शिशु को शुष्क एवं आरामदायक जगह में सुलाती है। बच्चे के ट्टी-पेशाब को माता बड़े प्यार से साफ करती है। माता के प्राण बच्चे में ही बसते हैं। माता अपने हृदय का अमृत-रस दूध पिलाकर शिशु की परवरिश करती है। माता का कितना उपकार पुत्र-पुत्री पर है, यह विचारते ही बनता है।
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दुख है कि बहुत-से बच्चे जवान हो जाने पर माता-पिता की परवाह और देखभाल नहीं रखते। जवानी आने पर विषय की मादकता में पुत्र-पुत्री माई-बाप को भूल जाते हैं। जवान लड़के की जब पत्नी आ जाती है, तब कितने लड़के तो केवल पत्नी के ही मोह में फंसकर माँ-बाप की wardship, आज्ञा-पालन आदि से सर्वथा हट जाते हैं। उन युवकों के लिए पत्नी ही आराध्य देवी हो जाती है। इसका यह meaning नहीं है कि पत्नी को पति स्नेह न दे, उसे स्नेह देना तो आवश्यक ही है। परन्तु माता-पिता के उपकार को भूल न जाय।
आजकल की स्थिति तो और निराली होती जा रही है, और यह स्थिति पढ़े-लिखे तथा धनी-मानी परिवार में अधिक बढ़ती जा रही है कि अपने माता-पिता का समादर लड़के नहीं करते, सास-ससुर से अधिक स्नेह करते हैं। भाई से स्नेह करना दूर होता जा रहा है तथा साले का स्नेह बढ़ रहा है।
विवाहित युवक अपने घरवाले कुटुम्ब का आदर नहीं करते, अपितु ससुरालवालों से अधिक संबंध जोड़ते हैं। इन सब कथनों का तात्पर्य यह नहीं है कि युवक ससुरालवालों से प्रेम न रखें। तात्पर्य है कि सबसे उचित प्रेमभाव रखते हुए अपने परम श्रद्धेय बाप-मां तथा परिवार वालों के प्रति अपना उचित कर्तव्य (duty) पालन करें।
जिस प्यार तथा स्नेह से माता-पिता बच्चे की सेवा एवं पालन करते हैं, उस प्यार तथा स्नेह से बच्चे माता-पिता की मुलाज़मत तो कर ही नहीं सकते; परन्तु उन्हें स्वयं का फर्ज समझकर ही सही, माई-बाप की तामील करनी चाहिए।
एक वृद्ध पिता खाट पर लेटा था। उसका युवक लड़का दूसरी खाट पर बैठा था। ग्राम से एक व्यक्ति आया और युवक लड़के से कुछ बात किया। जब वह प्रस्थान कर गया तब बाप ने पुत्र से पूछा - 'बेटा वह व्यक्ति तुमसे कौन-सी बातें कर रहा था?' लड़के ने उन बातों को बताया। पिता पूरा सुन नहीं पाया, और पुत्र से पुनः पूछा, 'क्या बेटा! क्या कहा?' युवा पुत्र क्रोध में आ गया तथा झिड़क कर गुर्राहट के साथ कहा, 'जब अंधे-बहरे हो गये हो, तो चुपचाप खाट में पड़े क्यों नहीं रहते; क्या टें-टें किया करते हो?'
पिता ने कहा, 'बेटा! वह दिन तुम भूल गया, जब मैं जवान था और तू बच्चा था। मैं तुम्हें गोद में लेकर खेलाता था। जब तू घर पर कौआ बैठा देखता था, तब मुझसे पूछता था कि 'वो क्या है?' मैं कहता था 'कौआ'। इस प्रकार बीसियों बार 'कौआ' बताने में मैं कलमलाता नहीं था, अपितु बड़े प्यार से तुम्हें बताता रहता था। परन्तु तू दुबारा ही पूछने पर क्रोधपूर्ण हो गया।'
उपर्युक्त बातों से लड़का लज्जावश पानी-पानी हो गया, और उसने अपने वृद्ध बाप के चरणों में झुककर मुआफी मांगी। यदि पुत्र माता-पिता की तामील नहीं करता तथा उनकी सद्आज्ञा का पालन नहीं करता है, तो वह अपने लिए अपने बच्चे को भी वही पाठ देता है।