'चाणक्य नीति' आचार्य चाणक्य की सर्वाधिक चर्चित एवं विश्व भर में राजनीति के लिए सराही एवं स्वीकार की गई रचना है। इस ग्रंथ में आचार्य ने राजा से प्रजा तक के लिए महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए हैं, जिन्हें अपनाकर कोई भी व्यक्ति सुखद, समृद्ध, ऐश्वर्य एवं शान्तियुक्त जीवन का आनन्द उठा सकता है। इस नीतिशास्त्र को यहां से डाउनलोड कर पढ़े -
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आचार्य चाणक्य का यह नीति सम्मत ज्ञान प्रत्येक के लिए सुख, शांति एवं विजयश्री की अनुपम कुंजी है। आचार्य चाणक्य ने अपने ज्ञान और अनुभव के बल पर जनमानस के उत्थान हेतु
कौटिल्य अर्थशास्त्र, चाणक्य सूत्र एवं चाणक्य नीति जैसे ग्रंथों की रचना कि।
आचार्य चाणक्य - एक महान और कुशल राजनीतिज्ञ
चाणक्य के जीवन से संबंधित कोई भी प्रमाण पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। जो प्रमाण उपलब्ध भी हैं, उनमें भी कई अंतर होने के कारण मतभेद हैं। ज्ञात प्रमाणों के आधार पर सम्राट चन्द्रगुप्त का शासन काल ईसा से 325 वर्ष पूर्व का था।
चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त को मगध का सम्राट बनाने के विषय में कई कहानियां प्रचलित हैं। इनमें से हम एक-दो कथाओं द्वारा चाणक्य का जीवन-चरित्र स्पष्ट कर रहे हैं-
जैसा कि कहा जाता कि उस समय का मगध राजा महानंद एक विलासी अत्याचारी और घमंडी राजा था। वह रात-दिन कार्य छोड़ सुरा-सुन्दरी के भोग में रमा रहता था, उसका अपने कर्मचारियों पर कोई प्रभाव नहीं था। वह प्रजा के साथ लूटमार एवं अत्याचार किया करते थे। जिससे राज्य की प्रजा बहुत त्रस्त थी, किन्तु राजा का विद्रोह करने की उनका सामर्थ्य नहीं था।
एक दिन चाणक्य किसी कार्यवश राज दरबार में गये, उस समय महानंद नशे में चूर राज नृत्य देखने में लग्न था। उसने तथा उसके मंत्रियों ने चाणक्य की कुरूपता और उनके काले रंग को लेकर उनका उपहास उड़ाना शुरू कर दिया। यह देखकर चाणक्य अत्यधिक क्रोधित हो उठे। क्रोध में आकर उन्होंने भरे दरबार में अपनी चोटी खोल दी और शपथ लेकर कहा कि अब यह चोटी मैं तभी बांधूंगा, जब मगध सम्राट का अंत कर, महानंद के रक्त से अपनी चुटिया को धो लूंगा।
चाणक्य की इन बातों को सुनकर राजदरबार में सन्नाटा छा गया। महानन्द चाहे कितना भी बड़ा अत्याचारी था, परन्तु वह एक विद्वान ब्राह्मण को दंड देने का साहस नहीं कर सकता था। चाणक्य राजदरबार से लौट आए। उन्होंने वापस आकर अपना गुरूकुल बंद कर दिया और अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने हेतु उसका साधन तलाशने निकल गए।
एक अन्य कहानी इस प्रकार से है - मगध नरेश महानंद का महामंत्री विकटार था, जिसके माता-पिता तथा अन्य परिजनों को महानंद ने बंदीगृह में भूख-प्यास से तड़पा-तड़पा कर बेरहमी से मारा था। विकटार अपेन माता-पिता तथा परिजनों की मौत का प्रतिशोध लेना चाहता था। इसलिए व महानंद की चाटुकारी करके महामंत्री बन बैठा। प्रतिशोध की अग्नि उसके मन में धधक रही थी। परन्तु विकटार शांत, खामोश पर प्रतिदिन प्रतिशोध में जल रहा था।
एक दिन नंद ने अपने पिता के श्राद्ध के लिए योग्य ब्राह्मण लाने का दायित्व विकटार को सौंप दिया। विकटार ब्राह्मण की खोज करता हुआ दूर निकल गया, जहां चाणक्य पेड़ों की जड़ में मट्ठा डाल रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख विकटार की उत्सुकता जागी तो उसने उन्हें प्रणाम करके पूछा - श्रीमान्! आप यह क्या कर रहे हैं। तब चाणक्य ने उसे बताया कि मेरे पांव में कांटा चुभ गया था। इनको खत्म करने के लिए इनकी जड़ों में माठा डालकर इनका अंत कर देना चाहता हूं। मैं इनके संपूर्ण वंश का ही अंत कर देना चाहता हूं। यह सुनकर विकटार की आंखों में चमक आ गई। उसे लगा कि यह ब्राह्मण ही तेरे उद्देश्य को पूर्ण कर सकता है। उसे मंजिल मिल गई और तलाश खत्म हुई।
विकटार ने उन्हें नंद के यहां श्राद्ध के आयोजन की बात बतायी और उन्हें वहां चलने को राजी कर लिया। जब श्राद्ध वाले दिन वह चाणक्य को लेकर नंद के समक्ष पहुंचा तो नंद ने चाणक्य का रंग और कुरूपता देखकर उसका अपमान कर दिया। भरी संभा में अपना घोर अपमान देखकर, चाणक्य वहां से उठकर आये और ये प्रतिज्ञा की कि, "मैं नंद वंश का नाश करके रहूंगा।" तब विकटार ने चाणक्य का साथ निभाने का वादा किया और फिर दोनों मिलकर नंद के विरुद्ध षड्यंत्र करने लगे।
चाणक्य अत्यन्त कुटिल राजनीतिज्ञ थे। नंद साम्राज्य से निष्कासित नंद के ही एक परिजन चन्द्रगुप्त से उन्होंने मित्रता कर ली। चन्द्रगुप्त नंद की सेना में एक सैनिक था। कहते हैं कि वह नंद के दासी पुत्रों में से था, किन्तु इस बात के भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। चाणक्य की भांति ही चंद्रगुप्त का वंश-परिचय आज भी अंधकार में है। इनके वंशों के संबंध में जो कुछ भी कहा जाता है, वह केवल अस्पष्ट प्रमाणों के आधार पर ही कहा जा रहा है।
चन्द्रगुप्त को भी नंद ने अपमान करके निकाला था। चन्द्रगुप्त और चाणक्य दोनों ही अपमान की अग्नि में जल रहे थे। एक दिन चाणक्य ने चंद्रगुप्त को प्रजा पर अत्याचार कर रहे सैनिकों को लड़ते देखा। उसने बहादुरी से उन सैनिकों से लड़ाई कर कईयों को मार डाला, शेष अपनी जान बचाकर भाग गए। यह सब देखने के बाद चन्द्रगुप्त चाणक्य अपने काम का लगा तो उन्होंने उसे बुलाकर अपनी बात सामने रखी तो चंद्रगुप्त आश्चर्यचकित होकर यह सोचने लगा कि देखने में यह ब्राह्माण पागल तो नहीं लगता; यह किस बात के बूते पर उसे महानंद के सिंहासन पर बैठने की बात कर रहा है। अंततः चन्द्रगुप्त ने चाणक्य को अपना गुरू बना लिया।
इसके पश्चात चाणक्य ने उसे सैन्य शिक्षा, राजनीति, नीति शिक्षा आदि देने का भार संभाला। चाणक्य ने अपनी नीति से नंद की सेना में विद्रोह की भावना भर दी। एक दिन मौका पाकर मुट्ठी भर सैनिकों के साथ चन्द्रगुप्त ने नंद के राज्य पर आक्रमण कर दिया। देखते ही देखते चन्द्रगुप्त ने राजमहल पर अधिकार कर लिया। नंद को बंदी बनाकर, चाणक्य के सामने लाया गया, तो चाणक्य ने उसे लात मारते हुए कहा - "देख मूर्ख! ब्राह्मण के अपमान का क्या परिणाम होता है।" नंद गिड़गिड़ाकर अपने जीवन की भीख मांगने लगा। चाणक्य के आदेश पर नंद की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई। नंद मर गया। चंद्रगुप्त मगध का सम्राट बन गया और चाणक्य उसके महामंत्री बने।