Title : कौटिल्य अर्थशास्त्र
Pages : 456
File Size : 16.9 MB
Category : Economics
Language : Hindi
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'कौटिल्य अर्थशास्त्र' के बारे में
अर्थशास्त्र से वर्तमान में इकोनॉमिक्स का अभिप्राय लिया जाता है। किन्तु कौटिल्य अर्थशास्त्र का इकोनॉमिक्स से संबंध नहीं है। यह बात आपके मन में पूर्णतया स्पष्ट हो जानी उचित है।
अपने ग्रन्थ के आरम्भ से आचार्य विष्णुगुप्त कौटिल्य ने जिनका एक नाम चाणक्य भी था, लिखा है - "मनुष्य से परिपूर्ण धरती को प्राप्त करना और प्राप्त की हुई धरती की रक्षा से सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों ने जिन अर्थशास्त्रों की रचना की थी, प्रायः उन सबका संग्रह करके मैं इस शास्त्र की रचना कर रहा हूं। ...यह विस्तृत ज्ञान देने वाला है और इसमें अर्थशास्त्र का ज्ञान इस प्रकार वर्णित है कि वह आसानी से समझ में आ जाता है।"
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इसी तरह ग्रन्थ के अंत में चाणक्य ने लिखा है - "यह शास्त्र समस्त तन्त्रयुक्ति से परिपूर्ण है। इस लोक तथा परलोक के नियमों का पालन करने के लिए इस ग्रंथ की रचना किया गया है। यह शास्त्र लोगों के हृदय में धर्म, धन और काम की ओर रूझान पैदा करता है और उसकी रक्षा की व्यवस्था करते हुए अर्थ के खिलाफ अनर्थ को नष्ट करता है।"
कौटिल्य के स्वयं के इस कथन से बात स्पष्ट हो जाती है। वास्तव में यह ग्रन्थ राजा और प्रजा के परस्पर कर्तव्यों आदि के विषय में है। राजा और प्रजा में जो एक सामाजिक समझौता है, उसके सम्बन्ध में एक सैद्धान्तिक बात वर्तमान काल के समाजशास्त्र तथा राजनीति के ग्रन्थों से भी सीखी समझी जा सकती है।
राजा और प्रजा दो पक्ष हैं। प्राचीन काल में उस सामाजिक समझौते के आधार पर राजा धर्म के अनुसार प्रजा के निजी अधिकारों की रक्षा करने के वचन से बंध गया तो प्रजा भी लोक-रक्षा का भार स्वीकार करने के बदले राजा को समाज का स्थिति रक्षक समझ कर उसे अन्न का षष्ठ भाग आदि कर रूप में और अपराधी के दोषानुसार विहित अर्थदंड आदि देने को तैयार हो गई। यही बात इस कौटिल्य अर्थशास्त्र में विस्तार से वर्णित की गई है।
यह अर्थशास्त्र राजतंत्रात्मक राज्यों के विषय का अवलम्बन करके लिखा गया ग्रन्थ है। इसमें वर्णित राजतन्त्र अनियंत्रित राजा के आधिपत्य का समर्थक नहीं। इसके मतानुसार राजा का सर्वप्रथम और श्रेष्ठ कर्तव्य है प्रजा-जन का हित और उनके लिए सुख-सुविधा का विस्तार करना। साथ ही प्रजा के जीवन तथा उसकी सम्पत्ति की रक्षा के लिए समाज में वैध व्यवहार और कानून की श्रृंखला सुव्यवस्थित करने के लिए सदा सचेष्ट रहना राजा का महान दायित्व है। उसका द्वितीय श्रेष्ठ कर्तव्य है समीप तथा दूरवर्ती राजाओं के कार्यकलाप पर दृष्टि रखना और आवश्यक होने पर उनके साथ युद्ध अथवा समझौता करना।
आचार्य कौटिल्य का यह दृढ़ विश्वास है कि वर्णाश्रम धर्म का सुचारू रूप में पालन होने पर स्वर्ग तथा मोक्ष की भी प्राप्ति की जा सकती है। स्वधर्म का उल्लंघन होने पर समाज में कर्म संकर तथा वर्ण संकर का प्रसार होता है और ऐसा होने पर सारा समाज उच्छिन्न हो जाता है। इसलिए राजा का मुख्य कार्य यही है कि वह प्रजा को स्वधर्म से भ्रष्ट न होने दे।
राजा के अन्य कर्तव्यों में कौटिल्य ने उसका काम-क्रोध आदि 6 दुश्मनों पर जीत प्राप्त कर विद्यावृद्ध पुरूषों का सत्संग करके अपनी बुद्धि विकसित करने की ओर संकेत किया है। कर्तव्यनिष्ठा के द्वारा राजा को अपने धर्म पर चलना चाहिए। गुप्तचरों की नियुक्ति द्वारा अपनी दृष्टि का विस्तार करे, उद्यम द्वारा प्रजाजनों का योगक्षेम साधन करे। विद्योपदेश द्वारा उन्हें विनयी और सुशिशित बनाए। उचित उद्योगों में पूँजी लगाकार लोकप्रियता प्राप्त करे और समाज के हित साधन द्वारा अपनी जीविका का उपाय करे।
राजा के अमात्य, सचिव और मन्त्री आदि को कैसा व्यवहार करना चाहिए उसके लिए कौटिल्य ने उनको सावधान किया है। उनका कहना है कि राजा के साथ में रहने वाले इन लोगों का व्यवहार आग से खेलने के समान होना चाहिए, क्योंकि राजा रूपी अग्नि केवल किसी एक प्रदेश को भस्म करके भी शान्त नहीं हो जाती। यदि राजा किसी के प्रतिकूल हो जाए तो उसके पुत्र-कुलपुत्र समेत समस्त परिवार को नष्ट कर सकता है और यदि अनुकूल हो जाए, तो वह सबकी उन्नति भी कर सकता है।
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भारत में राजशासन नहीं लोगों का शासन है। किन्तु शासक तो गणतन्त्र में भी होता ही है। वह राजा के स्थान पर होता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजा और राज्य प्रशासन के विषय में जो-जो वर्णन किया है वह हम इस गणतंत्र प्रणाली में प्रत्यक्ष घटित होता देखते हैं।
इस दृष्टि से कौटिल्य का यह अर्थशास्त्र कालातीत है। इसकी जितनी उपयोगिता ग्रन्थ रचयिता के अपने काल में थी उतनी ही उपयोगिता इसकी आज भी है। यदि इसके अनुसार राजव्यवस्था चलाया जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य इसलोक के साथ-साथ अपना परलोक भी सुधार सकता है।