भविष्य पुराण 18 महापुराणों के अधीन अधिक महत्व का सात्विक पुराण है, इस पुराण में इतने महत्वपूर्ण विषय है, जिन्हें पढ़कर आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। जिस तरह Shiv Puran भगवान शिव को समर्पित है; वैसे ही वास्तव में भविष्य पुराण सूर्य देवता को समर्पित है। इसके अधिष्टातृदेव भगवान सूर्य है। यह महापुराण हमारे देश के धर्म, कर्मकांड, इतिहास और राजनीति का एक वृहद ग्रंथ है। यह एक ऐसा अद्भुत महापुराण है जिसके श्रवण मात्र से मानव सारे पाप कर्मों से छुटकारा पा जाता है। यह पुराण सभी 14 लोकों में पूजनीय एवं वंदनीय है। आप Bhavishya Puran PDF नीचे दिये गए download लिंक पर क्लिक कर तीन भागों में download कर सकते है.. ⤋⤋
Bhavishya Puran in Hindi PDF
PDF Name |
भविष्य महापुराण | Bhavishya Puran PDF Hindi |
No. of Pages |
2,393 (तीनों खण्डों को मिलाकर) |
PDF Size |
44.2 / 41.8 / 40.1 MB |
Language |
Sanskrit and Hindi |
भविष्य महापुराण में सूर्य भगवान की महिमा और पूजा-उपासना आदि के नियमों का विस्तार से वर्णन होने की वजह से इसे कभी-कभी 'सौर पुराण' भी कहा जाता है। इस महापुराण में अलग-अलग प्रकार के पुनीत व्रतों, उपवासों, उनको करने के नियमों तथा उनसे जुड़े ज्ञानप्रद पौराणिक कथाओं का विस्तृत वैचारिक विवरण है।
इसके अलावा नर-नारी के शरीर के विशेष गुणों, अलग-अलग प्रकार के रत्नों-मणियों के परीक्षण के तरीकों, अनेक प्रभावपूर्ण व परिणामकारी औषधियों और सर्पविद्या का इतना व्यापक चित्रण इस पुराण को छोड़कर अन्य किसी पुराण में मौजूद नहीं है। इसमें भारत के अलग-अलग राजकुलो, विभिन्न धर्म-संस्कारों, उस समय की धार्मिक एवं शिक्षा व्यवस्था तथा स्थापत्य कला का भी विस्तार से वर्णन है।
नीचे मन के विषय में ज्ञानवर्धक बातें बताई गई हैं। इसका संबंध ऊपर डाउनलोड के लिए दिये गए Bhavishya Puran से नहीं है। यह सिर्फ सामान्य रूप से पढ़कर आपके ज्ञान को बढ़ाने के लिए दिया गया है।
मन की बातें
यदि आप सन्यासियों की संगति में रहो, योग और वेदांत की पुस्तकें पढ़ों तो
भगवत गीता का ज्ञान प्राप्त करने के लिये मानसिक संलग्नता उपजती है। परन्तु केवल इस मानसिक संलग्नता ही से आपको अधिक सहायता नहीं मिलेगी। तीव्र वैराग्य और उग्र मुमुक्षत्व तथा आध्यात्मिक साधन के लिये शक्ति, तत्परता से निरंतर अभ्यास और निदिध्यासन की आवश्यकता है। तब कहीं आत्म साक्षात्कार संभव हो सकता है।
जैसे स्थूल शरीर ठोस, द्रव तथा वाष्पमय पदार्थों से बना हुआ है, इसी प्रकार मन भिन्न-भिन्न प्रकार के सूक्ष्म द्रव्यों से बना हुआ है और उनके कंपन की गति भिन्न-भिन्न होती है। राजयोगी तीव्र साधना के द्वारा मन के भिन्न-भिन्न स्तरों का भेदन कर देता है।
मन बाह्य जगत के रूप में प्रकट होता है। कर्ता रूप से मन चेतन है और पदार्थ रूप (कार्य रूप से) यही मन यह संसार है।
शरीर में मन बड़ी द्रुत गति से सारे कर्म करता है और इसी से अस्थिर रहता है, परन्तु स्थूल शरीर में यह कुछ भी नहीं जानता और निश्चेष्ट रहता है।
अनन्तरूप आत्मा संकल्प के द्वारा जो रूप बनता है, वह मन है। पहले इतने विवेक से पीठ मोड़ी और इसलिये पदार्थों की वासनाओं के पर्त में फस गया।
अर्धपरिपक्व ज्ञानी के मन को वासनाओं का त्याग करते हुए बड़ी तीव्र वेदना होती है। यह प्रार्थना करके उन्नत आत्माओं से सहायता की याचना करता है।
जब मन निर्मल ब्रह्म में लीन होता है, उस समय इसे जो सुख अनुभव होता है वह शांत और मधुर हंसी द्वारा प्रकट होता है।
मन सर्वदा डोलायमान और विकार युक्त रहता है। यह मन की चंचल प्रकृति अनेक प्रकार से प्रकट होती है। मन की इस चंचल वृत्ति को रोकने के लिये आपको सचेत रहना होगा। गृहस्थी का मन सिनेमा, थियेटर, सर्कस आदि में भ्रमता है। साधु का मन काशी, वृन्दावन और नासिक में डोलता है। बहुत से साधु साधना काल में एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहते।
मन के चंचल स्वभाव को एक ही स्थान पर रहकर, एक ही साधन पथ पर चलकर, एक ही गुरु का आश्रय लेकर और एक ही योग का अभ्यास करके निग्रह करना चाहिए। जगह-जगह भटकने वाला साधक सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। जब आप एक पुस्तक पढ़ने के लिये उठाओ तो उसे समाप्त करने से पहले दूसरी पुस्तक मत लो। जब आप कोई काम करने लगो तो आप उसे पूर्ण सावधानी से करके समाप्त कर दो, उसके बाद ही कोई दूसरा काम शुरू करो। एक समय में एक ही काम को भली प्रकार करना अच्छा है। यही योगियों की काम करने की राति है।
यदि सारे विचारों को निकाल दिया जावे तो कोई वस्तु नहीं रह जाती जिसे 'मन' कहा जा सके। इसलिये विचार ही मन होते है। फिर विचारों से स्वतंत्र 'संसार' कुछ वस्तु ही नहीं है।
दीप्त प्रकाश, सौन्दर्य, चमत्कारी बुद्धि, भांति-भांति के रंग और रोचक शब्दों से मन आकृष्ट होता है। इन तुच्छ वस्तुओं से भ्रम में मत पड़ो। अंदर खोज करो कि इन सब वस्तुओं का अधिष्ठान क्या है। मन और इस प्रतीतिमात्र विषय जगत के पीछे एक परिपूर्ण और आत्माराम तत्व है। वह तत्व उपनिषदों का ब्रह्म है। वही तत्व प्यारे पाठको! आप हो।
क्योंकि मन आनन्द ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है इसलिए यह सदा आनंद के पीछे भागता है। आप आम को इसलिये पसन्द करते हो कि आम आपको आनन्द देता है। सब वस्तुओं में आप अपने आपको सबसे अधिक प्रेम करते हो इसी से पता लगता है कि आनन्द आत्मा ही का धर्म होगा।
सर्वदा आशावादी, आत्मनिर्भर, साहसी और दृढ़ निश्चय सुक्त मन अपने लक्ष्य पर लगा हुआ पंचतत्वों और पदार्थों में से अपनी कार्य सिद्धि के लिये उपयोगी और सहायक शक्तियां ग्रहण कर लेता है।
मन अंधेरे में टटोलता है। यह भूलता है। यह प्रतिक्षण बदलता रहता है। यदि कुछ दिन तक आहार न मिले तो यह सुचारू रूप से विचार भी नहीं कर सकता। सुषुप्ति में मन की क्रिया नहीं होती। यह मल, वासनाओं और तृष्णाओं से परिपूर्ण है। क्रोध होने पर यह मोह को प्राप्त होता है। भय होने पर कम्प होता है। धक्का लगने पर यह बैठने लगता है। तो आप मन को शुद्ध आत्मा कैसे मान सकते हो।
अति हर्षित मन होने पर शारीरिक और मानसिक व्यथायें मंद हो जाती हैं; क्योंकि शांति से हर्ष प्राप्त होता है। जब व्यथायें शान्त हो जाती है तब शारीरिक और मानसिक आनंद का उदय होता है। आनन्द-युक्त मनुष्य का मन सर्वदा शान्त रहता है।
मन शुद्ध हो जाने पर इसकी संवेदन शक्ति बढ़ जाती है। थोड़े से भी शब्द या भटके से बाधा मालूम होती है और किसी भी दबाव को तीव्र मानता है। आपको मन की शुद्धि के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए। साधक की संवेदन शक्ति विकसित होनी चाहिये तो भी उसको अपने शरीर और नाड़ियों को संयमित रखना चाहिए। ज्यों-ज्यों संवेदन शक्ति बढ़ती जाती है संयम भी अधिकतर कठिन होता जाता है। बहुत शब्दों पर साधारण मनुष्य ध्यान तक नहीं देता परन्तु जिसकी संवेदन शक्ति अत्यंत विकसित हो गई है, उसके लिये अत्यंत सूक्ष्म शब्द भी बड़ी व्यथा पहुंचाता है।
ऐतरेय उपनिषद में बताया गया है कि सृष्टि के आदि काल में ब्रह्मा ने सोचा कि इन समस्त लोकों के लिये मुझे लोकपालों की रचना करनी चाहिये। तब उसने जल में से हिरण्यगर्भ (पुरुष) को संग्रह करके बनाया। उसे ध्यान की अग्नि से तपाया। इस तरह तपाया जाने से उसका हृदय फट गया। हृदय में से मन निकला और मन में से उसका अधिष्ठात देवता चन्द्रमा निकला। मन का अधिष्ठान हृदय है, इसलिये मन हृदय में से निकला। समाधिकाल में मन अपने अधिष्ठान में प्रवेश कर जाता है। सुषुप्ति अवस्था में भी यह हृदय में प्रवेश करता है। तब मन और ब्रह्म के बीच में अज्ञान का आचरण रहता है।
अनादि काल से बहिर्मुख होना मन की बड़ी खोटी आदत है। परमात्मा के पवित्र नामों का निरंतर आचरण करते रहने से मन शुद्ध होता है और अंतर्मुख होने में सहायता मिलती है।
मन सदा ही कुछ न कुछ करते रहना चाहता है। जब अपनी इष्ट वस्तुओं में आसक्त होता है तो इसे आनन्द मिलता है। ताश के खेल में कुछ नहीं है, किन्तु जो अवधान और आसक्ति इसमें रखनी होती है उससे ही आनंद मिलता है। जो मन बचपन ही से बाहरी वस्तुओं में आनंद खोजने की बुरी आदत में पड़ गया है उसे इस स्वभाव से फेरना कठिन है और यह सदा ऐसा ही करता रहेगा, जब तक आप इसके आमोद के लिये कोई उत्तम पदार्थ नहीं दोगे।
मन में शंका होती है। निश्चय भी होता है। ईश्वर के अस्तित्व के विषय में शंका होती है। यह संशय भावना कहलाती है। एक और शंका होती है कि मैं ब्रह्म को प्राप्त कर सकता हूं या नहीं। तब एक पुकार कहती है ईश्वर सत्य है, हस्तामलक के समान सत्य है। वह प्रज्ञाधन, चित्धन और आनंदधन है। मैं उसे प्राप्त कर सकता हूं।
हमने यह बात भली प्रकार समझ ली और ये विचार खूब पक्के हो गये। कुछ विचार धुंधले और अदृढ़ होते हैं, वे आते और चले जाते हैं। हमें विचारों को विकसित बनाना होगा और उन्हें उस समय तक दोहराना और घोटना होगा जब तक वे अन्तःकरण में दृढ़ता से जम जावें। विचारों को साफ करने से मन का भ्रम और मोह जाता रहेगा।
अवधान दो प्रकार होता है- कर्तृवाचक अर्थात आंतरिक विचार संबंधी और कार्यवाचक अर्थात बाह्य पदार्थ संबंधी।
दो विचार आपस में चाहे जितने भी संबंध क्यों न होवें एक ही समय में साथ-साथ नहीं रह सकते।
हमारे अंतःकरण का स्वभाव एक क्षण में एक पदार्थ को एक से अधिक रूप में चेतना के सम्मुख जाने से रोकता है।
अच्छे-अच्छे दार्शनिक और ऋषि इस बात पर एक स्वर से सहमत हैं कि वास्तव में मन एक समय में एक वस्तु से अधिक की ओर ध्यान नहीं दे सकता परन्तु जिस काल में वह ऐसा करता हुआ प्रतीत होता है वह बड़ी तीव्र गति से एक सिरे से दूसरे सिरे तक आगे पीछे दौड़ता रहता है।
संसार से इन्द्रियों द्वारा जो रूपरेखा अंकित होती हैं उनमें से ही मनका उद्गम होता है। सारे संसार का पूर्ण अनुभव प्राप्त करने के लिये इसे अनेक शरीर धारण करने पडेंगे।
अपनी क्रियाओं के अधिकांश को मन स्वयं नहीं जानता है। क्योंकि मन को एक समय में केवल एक ही वस्तु की चेतना हो सकती है, हमारे ज्ञान का एक अंश ही एक समय में हमारी चेतना के सम्मुख आ सकता है।
पशु स्वयं अपने को नहीं जान सकता। इसको केवल स्थूल चेतना होती है। इसको आत्म चेतना का अनुभव नहीं होता। पशु को दुख और पीड़ा की संवेदना होती है। यह अपनी मनोदशाओं का विश्लेषण नहीं कर सकता। मनुष्य केवल जानता ही नहीं अपितु उसे यह ज्ञान होता है कि वह जानता है। यह उच्च मानसिक चेतना या आत्म चेतना है। मनुष्य केवल संवेदन और भावना ही नहीं करता अपितु वह अपने अनुभव को शब्दों द्वारा कुशलता से वर्णन कर सकता है। वह अपने आपको अनुभव करता हुआ जान सकता है। वह अपने को उस संवेदन या भावना से पृथक कर सकता है।
मैं इस पुस्तक को जानता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि मैं इस पुस्तक को जानता हूं। यह आत्मचेतना कहलाती है जो मनुष्यों में विशिष्टतया पाई जाती है।
कुछ आदमी जब अधिक परिमाण में रक्त देखते हैं तो अचेत हो जाते है। कोई-कोई डाॅक्टर चीरफाड़ की क्रिया को नहीं देख सकते वे अचेत हो जाते हैं। यह सब मानसिक दुर्बलतायें हैं। इस सब प्रकार की मानसिक दुर्बलता को विचार द्वारा दूर करना चाहिए।
जब कभी आप मन के किसी पुराने विचार को निकाल कर कोई नया स्वस्थ विचार मन को देना चाहते हो तो मन इसको आसानी से ग्रहण नहीं करता। इसके विरुद्ध प्रबल विद्रोह और झगड़ा करता है। बहुत संख्या में मनुष्य रूढ़ियों के दास हैं। उनमें मनके पुराने स्वभाव और विचारों को बदल देने की शक्ति नहीं होती।
विश्व-मन हिरण्यगर्भ कहलाता है। वह सारे मनों का समष्टि होता है। वह सूत्रात्मा है। व्यक्तिगत मन यद्यपि अन्य पुरूषों के मन से पृथक होता है, और बीच में अति सूक्ष्म पदार्थ का पतला-सा परदा रहता है परन्तु वास्तव में वह इस सूत्रात्मा से तथा अन्य व्यक्तियों के मन के साथ संसर्ग में रहता है।
आशा है आपको Bhavishya Puran PDF in Hindi करने में कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा होगा। अगर आपको Bhavishya Puran Download करने में कोई परेशानी आ रही हो तो हमें यहां संपर्क करें। हम download लिंक जल्द से जल्द सही करने का प्रयास करेंगे।