जिस प्रकार
Charak Samhita आयुर्वेदिक चिकित्साशास्त्र का प्रमुख ग्रंथ है; उसी प्रकर 'सुश्रुत संहिता' शल्यशास्त्र की एकमात्र अतिविशिष्ट रचना है। इसमें शल्पशास्त्र की मुख्य रूप से चर्चा होना स्वाभाविक है, फिर भी शल्येतर अंगों का पर्याप्त विवेचन इसमें उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त इसमें जीवन के महान आदर्शों का भी यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है। इसी कारण आयुर्वेद को न केवल चिकित्सा का ही शास्त्र कहा गया है अपितु इसकी 'आत्मा का शास्त्र' के रूप में भी पहचान है। शल्यशास्त्र का एकमात्र संहिता ग्रंथ सुश्रुत संहिता है, जिसमें भगवान धन्वन्तरि के उपदेशों को महर्षि सुश्रुत ने संग्रहीत किया है।
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सुश्रुत संहिता के संस्कृत टीकाकारों में डल्हण की 'निबंधसंग्रह' नामक व्याख्या सर्वोत्कृष्ट मानी जाती है। यह संपूर्ण उपलब्ध है। इसमें औषधद्रव्यों का अतिविशिष्ट विवेचन उपलब्ध है। डल्हण बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने सर्वत्र भ्रमण कर जो प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया उसका निबंधसंग्रह में भरपूर उपयोग किया है।
आयुर्वेद और सुश्रुत संहिता | Ayurveda and Sushruta Samhita in Hindi
Ayurved Chikitsa / आयुर्वेद शाश्वत है और उसकी परम्परा अनादि है। इसका प्रादुर्भाव ब्रह्मा से कहने का अभिप्राय यही है। यदि कहीं आयुर्वेद की उत्पत्ति कही गई हो तो वहां अभूत्वोत्पत्ति नहीं है, अपितु उपदेश और अवबोध के द्वारा उसका प्रादुर्भाव मात्र है।
आयुर्वेद प्रागैतिहासिक काल से विद्यमान रहा है। इसके पर्याप्त प्रमाण उत्खनन से प्राप्त सामग्री से मिलते हैं। आयुर्वेद-गंगा की धारा जीवन-स्रोत से अनुस्यूत होकर अनादि काल से प्रवाहित हो रही है जिसके समानान्तर वैदिक धारा है। स्वभावतः इस कारण आयुर्वेद के कुछ तथ्य वैदिक संहिताओं में मिलते हैं। अतः जहां कहीं आयुर्वेद को किसी वेद का उपवेद या उपांग कहा गया तो इसका तात्पर्य इतना ही है कि उस वेद में आयुर्वेदीय तथ्य अधिक उपलब्ध होने के कारण वह उसके अधिक निकट है। उप सामीप्य का बोधक है। सम्भवतः चरक ने इसी कारण आयुर्वेद को
अर्थवेद का उपवेद न कहकर केवल इतना ही कहा कि हमारी भक्ति अथर्ववेद में होनी चाहिए क्योंकि चिकित्सापरक तथ्य उसमें अधिक मिलते हैं।
संहिताएँ इसी शाश्वत परम्परा की संदेशवाहिका हैं। महर्षियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा-परखा और क्रम से एकत्र निबद्ध किया जो संहिता के नाम से प्रचलित हुई।
आयुर्वेदीय शल्पशास्त्र का इतिहास वेदों जितना ही प्राचीन है। वेदों में अनेक शल्यकर्मों का उल्लेख मिलता है। उस काल के देवभिषक अश्विनीकुमार प्रमुख शल्यकर्ता थे। आयुर्वेद के आठ अंगों में शल्यशास्त्र ही प्रधान एवं सर्वप्रथम प्रादुर्भूत अंग है। महर्षि सुश्रुत ने इसकी श्रेष्ठता के तीन प्रमुख हेतु बतलाये है; यथा 1.] रोगनिवारण क्रिया शीघ्र संपन्न होने से, 2.] चिकित्सा में यन्त्र-शस्त्र, क्षार एवं अग्नि का प्रयोग होने से तथा 3.] शालाक्य आदि तत्वों की विशेषताएँ भी इसमें होने से। शल्यशास्त्र 'धान्वंतर संप्रदाय' का तथा कायचिकित्सा 'आत्रेय संप्रदाय' का चिकित्सांग माना जाता है।
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सुश्रुत के सहाध्यायियों ने भी संहिताओं की रचना की थी, किन्तु उसमें सुश्रुत की संहिता प्रमुख रही है और आज यही एकमात्र संहिता-ग्रंथ आयुर्वेदीय शल्यतंत्र का ज्ञान समेटे विश्व में उसका उद्घोष कर रहा है, जबकि अन्य शल्यज्ञ आचार्यों के वचन यत्र-तत्र टीकाओं में मात्र उद्धरण के रूप में दृष्टिगत होते हैं। सुश्रुत संहिता में काशीराज दिवोदास धन्वंतरि के उपदेश निबद्ध हैं जो उन्होंने सुश्रुत प्रभृति शिष्यों को दिये थे। शल्यज्ञान इसका मूल है और प्रतान भी, जो समस्त ग्रंथ में व्याप्त है। इसके साथ-साथ अन्य अंगों का भी विशद वर्णन मिलता है। चिकित्सास्थान में रसायन और वाजीकरण, उत्तरतन्त्र में शालाक्य, कौमारभृत्य और भूतविद्या तथा कल्पस्थान में अगदतन्त्र अन्तर्निहित है। इस प्रकार इसमें आयुर्वेद के आठो अंग हैं, प्रधानता शल्य की है।