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Rudri Path PDF | सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी पाठ

सदाशिव की भक्ति में Rudrashtadhyayi की विशेष महिमा है। Shiv Chalisa में स्वयं शिव जी ने रुद्री पाठ के मंत्रों द्वारा अभिषेक की कृपा का बखान करते हुए कहा है कि मन, कर्म, तथा वाणी से बिल्कुल निर्मल तथा सभी तरह की अनुरक्ति के बिना भगवान शूलपाणि की खुशी के लिए रुद्राभिषेक करना चाहिये। इससे वह महादेव के अनुग्रह से सभी इच्छाओं को प्राप्त करता है। आप ऐसी परम महिमा वाले Rudri Path PDF पर गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक को नीचे से download करें -

Rudri Path in Hindi PDF

Rudri Path PDF in Hindi
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जो व्यक्ति अपने पूरे देह में भस्म लगाकर, भस्म में शोकर और पाँचों इंद्रियों - आँख, नाक, कान, जीभ और त्वचा पर जीत प्राप्त करके हमेशा Rudri Path करता है, वह व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से छुटकारा पा जाता है। जो पापी व्यक्ति इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर रुद्राध्याय का पाठ करता है, वह पाप से छुटकारा पाकर अद्भुत सुख प्राप्त करता है।

यदि आप ऊपर दिए गए विस्तारित Rudrashtadhyayi पाठ को नहीं पढ़ना तो यहां नीचे दिये गये लिंक से छोटा यानी Laghu Rudri Path डाउनलोड कर सकते है-

Laghu Rudri Path PDF

नीचे 'मन' से संबंधित विषय पर एक ज्ञानवर्धक आलेख दिया जा रहा है। यह आलेख- 'मन की बातें' ऊपर दिये गये Rudri Path से बिल्कुल जुड़ा हुआ नहीं है। इसे सिर्फ आपको पढ़ने के लिए दिया गया है।

मन की बातें


अधिकांश मनुष्य अपने मन को स्वेच्छाचारी और उद्दण्ड बना देते हैं। यह मां-बाप के दुलार में बिगड़े हुए बालक या कुशिक्षित पशु की भांति होता है। हममें से बहुत से मनुष्यों के मन जंगली जानवरों के बाड़े के समान होते हैं, जिनमें प्रत्येक अपने-अपने स्वभाव में वर्तता हुआ अपने मनोनीत पथ पर चलता है। बहुसंख्या के मनुष्य मन को निग्रह करना नहीं जानते।

ब्रह्म या शुद्ध चैतन्य प्रत्येक वस्तुका अधिष्ठान है। वह प्रत्येक वस्तु का साक्षी है। छान्दोग्य उपनिषद में कहा है-

"जब मनुष्य सोचता है तो वह समझता है। बिना सोचे वह जानता नहीं, केवल सोचने के बाद ही वह समझता है।"

जिसे आप छतरी कहते हो वह केवल एक लम्बी छड़ी, काला कपड़ा और कुछ पतली-पतली लोहे की सलाइयों के सिवाय कुछ नहीं है। इसी प्रकार जिसे आप व्यक्तित्व कहते हो वह केवल बाह्य स्थूल शरीर, मस्तिष्क शिराजाल और मन के सिवाय कुछ नहीं है।

आप Rudrashtadhyayi path की तरह नीचे भगवान शिव से जुड़े ये PDF भी डाउनलोड कर जरूर पढ़े:

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मन बराबर बदलता रहता है। आप नित्य नये-नये अनुभव प्राप्त करते रहते हो; जो आपकी धारणाएं और अन्तःकरण और विवेक बुद्धि 1632 में थी वह 1642 में बदल जायेगी। अनुभव के द्वारा मन उन्नत होता है। संसार सबसे अच्छा उपदेशक और गुरु है।

कुएं की ईंटों की मुंडेरी के सहारे रस्सी और डोल से जब आप पानी खींचते हो तो ईट में एक गढ़ा पड़ जाता है और उस गढ़े के सहारे रस्सी बड़ी सुगमता से जाती है। इसी प्रकार एक ही राति से बार-बार विचार करने से निशान मस्तिष्क में पड़ जाते है उन्हीं निशानों के सहारे मन बड़ी सुगमता से जाता है।

किसी वृक्ष की सत्ता आप मन के द्वारा ही जान सकते हो। आपको शुद्ध मन के द्वारा पहिले ब्रह्म तत्व को निश्चयात्मक बुद्धि से भली प्रकार अवगत कर लेना चाहिए। किसी पदार्थ के दर्शन या ब्रह्म को समझने के लिये मन की सहायता सर्वथा अभीष्ट है। ध्यान भी केवल मन से ही होता है।

यदि आप निर्मल मन के द्वारा अकर्ता और निष्काम भाव से कर्म करोगे तो आपका शरीर फलभागी नहीं होगा। मन ही अपने ऊपर सुख और दुख लाता है और पदार्थों की ओर अपनी अत्यासक्ति होने के कारण उनको भोगता है।

मन के अपने प्रकार होते हैं। बंगाली मन भावुक होता है और कला तथा भक्ति-योग्य होता है। मद्रासी मन बुद्धिमय होता है और गणित के योग्य होता है। पंजाबी और मराठी मन वीर और साहसी होता है। बंगाल में श्री गौरांग महाप्रभु और श्री रामकृष्ण परमहंस देव जैसे भक्त हुए है। मद्रास में श्री रामानुजाचार्य और श्री शंकराचार्य जैसे प्रतिभाशाली दार्शनिक विद्वान हुए हैं। पंजाब में श्री गुरु गोबिंद सिंह जैसे वीर उत्पन्न हुए है। साधना और योगपथ मन के प्रकार, स्वभाव और शक्ति के अनुकूल हूआ करता है। रुचियां भी भिन्न-भिन्न होती है।

मछली देखकर बंगाली को अत्यंत हर्ष होता है। खटाई और मिर्च को देखकर मद्रासी के मुंह में पानी भर आता है। पलमीरा का फल देखकर लंका के जाफ़ना तमिल बहुत खुश होते है। मांस देखकर मांसाहारी को बड़ी खुशी होती है। क्या यह रहस्य की बात नहीं है कि एक वस्तु बाहर पड़ी रहे और उसे देखकर ही मुंह में पानी भर आवे। क्योंकि साधारण जीवन में नित्य ही आपको यह अनुभव होता है। आप इस बात का महत्व नहीं समझते। मन बड़ा रहस्यमय है और ऐसी ही माया भी।

जो वस्तु आपको सुख देती है, वही दुख भी देती है। जो भोग इन्द्रियों और पदार्थों के समागम से प्राप्त होते हैं, उनमें निश्चय ही दुख भरा होता है।

पुलिस चौकी में चपरासी दरवाजे पर 10 बजाता है। वह शब्द मनुष्यों और पशुओं के कान में जाता है। पशु भी घण्टे की आवाज दस बार सुनता है। परन्तु मनुष्य उनको गिनते हैं और बुद्धि के द्वारा जान लेते हैं कि 10 बज गये हैं। मनुष्य में यह विशेष ज्ञान होता है और पशुओं में सामान्य ज्ञान होता है। यह विशेष ज्ञान ही मनुष्य और पशु में भेद करता है। इस विशेष ज्ञान के द्वारा वह भलाई, बुराई, ठीक और गलत कर्तव्य और अकर्तव्य की पहचान करता है।

मन निरवयव है। केवल एक ही विचार एक समय में ग्रहण कर सकता है। यह नैयायिक मत वालों का सिद्धांत है। वे वेदान्ती भी जो मन को सावयव बताते हैं और इसके लिए चोर-नारी दृष्टांत देते हैं अर्थात जैसे दुष्टा स्त्री घर का धंधा करती हुई भी अपना मन प्रेमी में लगाये रखती है, वे भी यह मानते हैं कि उसके मन की विशेष वृत्ति प्रेमी में होती है और सामान्य वृत्ति घर के काम में होती है।

आप एक ही समय में विषयाकार वृत्ति और ब्रह्माकार वृत्ति नहीं रख सकते। यह शास्त्र विरुद्ध है। और क्रियात्मक अनुभव भी ऐसा नहीं बताता। जब मन दृष्टि के साथ लगा होता है तो यह केवल देखता ही है; सुन नहीं सकता। यह एक समय में दोनों काम नहीं कर सकता। यह प्रत्येक मनुष्य का नित्य का अनुभव है। अनपढ़ मनुष्य कहते है कि वे एक साथ ही सुन भी सकते है और देख भी सकते हैं। मन बड़ी तीव्र गति से दोनों ओर दौड़ता है और लोग समझते हैं कि मन दोनों काम एक साथ कर सकता है। यह भारी भूल है।

जब आपका मन किसी रोचक पुस्तक में लगा होता है तो यदि कोई जोर से चिल्लाए भी तो आप नहीं सुन सकते क्योंकि मन कान के साथ नहीं था। आप जब किसी विषय पर बड़ा गंभीर विचार कर रहे हो तो आप न सुन सकते हो, न स्पर्श कर सकते हो, और न देख सकते हो। सारी इंद्रियां मन से पृथक होती है। उस समय चित्त के द्वारा अनुसंधान की क्रिया चल रही होती है। हिरण्यगर्भ अथवा कार्य ब्रह्म या सम्भूति ही विश्वमन है। वह विश्व प्राण भी है। वह सारे मनों का समूह है। हिरण्यगर्भ मानो विश्व का विद्युत पावरहाउस है। अनेक जीव भांति-भांति की छोटी-छोटी बत्तियां हैं। पावर हाउस से विद्युत शक्ति का संचार तांबे के तारो द्वारा बत्तियों में होता है। इसी प्रकार हिरण्यगर्भ से शक्ति संचार जीवों में होता है।

लिंग शरीर और अन्तवह शरीर में भेद है। लिंग शरीर 17 तत्वों वाला सूक्ष्म शरीर है। पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच प्राण, मन और बुद्धि ये 17 तत्व है। अन्तवह शरीर अत्यन्त शुद्ध होता है। यह सत्व से पूर्ण होता है और रजोगुण तथा तमोगुण से रहित होता है। इस शरीर के द्वारा योगी एक शरीर से दूसरे शरीर में निवेश करता है। भगवती सरस्वती की कृपा से लीला ने इसी अन्तवह शरीर के द्वारा स्थूल देह से निकल कर ऊर्ध्व लोकों में गमन किया था। आपको यह योग वासिष्ठ में मिलेगा। श्री शंकराचार्य, राजा विक्रमादित्य, हस्तामलक और तिरूमूलार के अन्तवह शरीर था। इसकी सहायता से वे अन्य पुरूषों के देह में प्रवेश करते थे। अन्तवह शरीर वाले योगी का सत्संकल्प या शुद्ध संकल्प होता है।

मनुष्य का अंतरात्मा उसके ज्ञान के अनुसार बनता है, जैसे-जैसे समयानुकूल नया ज्ञान प्राप्त होने पर जब उसका मत परिशोधन होता है वैसे-वैसे उसका अन्तःकरण बनता रहता है। बच्चे का या बर्बर मनुष्य का अन्तःकरण पूर्ण परिपक्व सभ्य मनुष्यों के अन्तःकरण से भिन्न होता है, और सभ्य मनुष्यों में भी ज्ञान का अन्तर इतना होता है कि उनके अपने-अपने अन्तःकरण भिन्न-भिन्न क्रिया पद्धति का निर्देश करते हैं।

सात्विक मनुष्य का अन्तःकरण राजसी मनुष्य के अन्तःकरण से भिन्न होता है। सात्विक मनुष्य का अन्तःकरण बहुत निर्मल और शुद्ध होता है।

मन प्रलोभन दिखाता है और ठगता है। किसी को अपना पक्का मित्र सोचो और वही विचार सत्ता में परिणत हो जाता है। उसी को अपना शत्रु मान लो तो मन उसी भाव को सत्ता में परिणत कर देता है। जिसने मन के कार्य को समझ लिया है और जो इस पर अभ्यास के द्वारा नियंत्रण रखता है वही सचमुच सुखी है।

बचपन में मन की ग्रहण शक्ति अच्छी होती है। परन्तु समझने की शक्ति नहीं होती। 16 वें, 19 वें, 20 वें वर्ष में समझने की शक्ति प्रकट हो जाती है। इस अवस्था में स्मरण शक्ति भी अधिक होती है। 30 वर्ष की अवस्था में मन स्थिर हो जाता है। इससे कम अवस्था में मन में बड़ी चंचलता होती है। 30 वर्ष से कम अवस्था का मनुष्य स्वयं विचार कर निश्चय नहीं कर सकता। उसमें निश्चयात्मक शक्ति नहीं होती। 45 वर्ष के बाद ग्रहण शक्ति घटने लगती है। स्मरण शक्ति भी कम होती जाती है। जो कुछ उसने पहले सीखा है उसे ही धारण कर सकता है। वह नये विज्ञान नहीं सीख सकता। ब्रह्मचर्य मनुष्य की धारणा शक्ति और अन्य मानसिक शक्तियों के विकास में सहायता करता है।

मित्रों ऊपर डाउनलोड के लिए दिए गये Rudri Path PDF की विशेष महिमा है। जो मनुष्य रुद्री पाठ करता है उस पर भगवान शिव की असीम तथा अपार कृपा रहती है।

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