Title : हिंदी साहित्य का इतिहास
Pages : 653
File Size : 170 MB
Author : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
Category : Literary Theory & History
Language : Hindi
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"हिंदी साहित्य का इतिहास" रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित हिंदी साहित्य के इतिहास पर अब तक का सबसे प्रामाणिक और सर्वश्रेष्ठ इतिहास लेखन हैं।
सबसे पहले रामचंद्र शुक्ल ने इसे हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा था। जिसे बाद में इसकी उपयोगीता को देखकर शुक्ल जी ने एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। उन्होंने यह कार्य काफी लंबे समय में पूर्ण किया। जब वे काशी हिन्दू विश्वविघालय में पढ़ाया करते थे तब उन्होंने छात्रों को पढ़ाने के लिए हिंदी साहित्य के इतिहास पर संक्षिप्त नोट तैयार किया था। जिसने आगे जाकर उनके इस कृति को पूर्ण करने में भरपूर मदद की। इसी समय अंतराल में 'हिंदी शब्दसागर' का लेखन भी पूर्ण हो गया और यह फैसला किया गया की भूमिका के रूप में 'हिंदी भाषा का विकास' और 'हिंदी साहित्य का विकास' सम्मलित किया जाएगा।
आचार्य शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य का विकास' एक निश्चित समय के अंदर लिखा। परंतु इस कार्य से वे संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने आगे चलकर हिंदी साहित्य के इतिहास और विकास पर एक वृहत रचना कि जो शब्द सागर के प्रकाशन के छः महीने बाद 1929 ई. में प्रकाशित किया गया।
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केवल पढ़ने के लिए:
आदमी भौतिक पदार्थों को बहुत महत्व देता है जो जीवन की उपरी सतह पर हैं; किन्तु जिसका प्रभाव बराबर मन पर पड़ता है। उस व्यवहार के महत्व को वह समझ नहीं पाता है। इसका परिणाम होता है कि वह व्यवहार को मधुर बनाये रखने के लिए सावधानी नहीें बरतता और साथियों में तनाव करके निरंतर भोगता है।
विश्वास और प्रेम पारिवारिक तथा सामाजिक भित्ति की मजबूती के लिए सीमेंट है। विश्वास और प्रेम के उठ जाने पर दो व्यक्तियों का संबंध भी कसैला हो जाता है और विश्वास तथा प्रेम के होने से बड़े-बड़े परिवार तथा समाज के अन्तर्सम्बन्ध भी मधुर होते हैं।
पारस्परिक विश्वास और प्रेम को क्षीण करने वाले संदेह एवं संशय हैं। मनुष्य का मन जितना कमजोर होता है उतना ही उसमें संशय होता है। साथियों के भिन्न स्वभाव, रूचि, मान्यता एवं व्यवहार से संशय उत्पन्न होता है। संसार के अधिकतम लोग संशय-ग्रसित होते हैं। एक ही परिवार तथा समाज में रहने वाले अभिन्न व्यवहार के लोगों के मन में एक दूसरे के प्रति सन्देह की भावना जगती रहती है। अधिकतम सन्देह एवं संशय एक दूसरे को न समझने से ही होते हैं।
मन में संशय आने पर अच्छे-से-अच्छे सम्बन्ध भी खराब हो जाते हैं। संसार में जहां तक कलह देखा जाता है उसके मूल में गन्दा स्वार्थ तो है ही, किन्तु संशय का स्थान कम नहीं है। लोग भ्रम-वश संशय में पड़कर अपने प्यारे-से-प्यारे तथा हितैषी लोगों पर भी संदेह करने लगते हैं और उन्हें अपना विरोधी या वैरी मान लेते हैं। ऐसी भ्रान्ति जब मन में आती है तब माता-पिता से, पुत्र-पुत्री से, भाई से, गुरू से, शिष्य से, मित्र से, पड़ोसी से या अन्य किसी भी स्वजन से हम अपना व्यवहार कसैला बना लेते हैं।
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विश्वास और प्रेम को कमजोर बनाने वाले स्वार्थ तथा सन्देह हैं। हमें अपने स्वार्थ को जीतना चाहिए और सन्देह का त्याग करना चाहिए। जिनके स्वभाव का परिचय हो गया है, जिनका हमारा राज-दिन का सम्बन्ध है, जिनको लेकर हम किसी रचनात्मक कार्य में लगे हैं, उन पर सन्देह करने तथा उनसे प्रेम घटाने से हम सहकारी कार्यों में उन्नति नहीं कर सकते और न अपने मन को शांत रख सकते हैं।