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[PDF] Hindi Vyakaran PDF Book (Free Download)

सम्पूर्ण हिन्दी व्याकरण
Title : हिन्दी व्याकरण
Pages : 592
File size : 115 MB
Author : Unknown
Category : Language
Language : Hindi
To read : Download
For support : contact@motivationalstoriesinhindi.in

आज-कल व्याकरण पर बाजार में अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। लेकिन फिर भी हमें इन पुस्तकों को लिखने की
आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि जब भी कोई छात्र यह प्रश्न करता है कि वह हिन्दी व्याकरण के लिए कौन सी किताब को पढ़े तो हम उसे कोई प्रमाणित पुस्तक का नाम नहीं बता पाते। कुछ पुस्तकें है भी तो वह विद्यार्थियों की जरूरतों को ध्यान में रखकर नहीं लिखी गई हैं तथा बहुत ही विस्तार पूर्वक लिखी गई है। जिन्हें पढ़ने के बाद छात्र उब जाते है तथा व्याकरण की कोई बात समझ नहीं पाते।

ऐसी परिस्थिति में छात्रों के लिए ऐसी पुस्तक की नितान्त आवष्यकता थी जिसकी भाषा सरल, विवेचन स्पश्ट और विषय का प्रतिपादन संक्षिप्त रूप में किया गया हो। Vyakaran की एक ऐसी ही पुस्तक को ऊपर डाउनलोड कर पढ़ने के लिए दिया जा रहा है।

More: हिंदी साहित्य का इतिहास - रामचंद्र शुक्ल (pdf book)

Only for reading purpose: अहंकार प्रबल होने से अपने विचारों एवं इच्छाओं को कटते देखकर आदमी सहन नहीं कर पाता है और वह जिनको समझता है कि अमूक-अमूक मेरे मार्ग में अवरोधक बनते हैं, उनके प्रति मन में वैर बना लेता है, फिर उनके प्रति असंतुलित वाणी का भी प्रयोग करने लगता है।

यदि अपने साथियों में से एक या कई के किसी विचार गलत हैं, तो उन्हें प्रेम तथा समझदारी से समझाने की चेष्टा करना चाहिए। यदि उन्हें आत्मीयता से प्रेमपूर्वक समझाया जायेगा, तो अधिकतम आशा है कि सफलता अवश्य मिलेगी। यदि किसी विषय में तुम्हारे तथा दूसरों के अर्थात दोनों के विचार अपने-अपने दृष्टिकोण से सही है तो तुम दूसरे के ही विचारो का समर्थन कर दो। इससे अमंगल तो कुछ नहीं होगा और व्यवहार उत्तम बना रहेगा। यदि तुम्हारे ही विचार गलत हैं, तो तुम्हे निर्ममतापूर्वक छोड़ ही देना चाहिए।

अपने पुराने साथियों के भिन्न दृष्टिकोण एवं विचारों से घबराकर उनसे असन्तुष्ट होना तथा नये-नये आदमियो से व्यवहार बद़ाने की चेष्टा करना अपनी मानसिक कमजोरी है और इस रवैया से व्यवहार बिगड़ता है। नये लोगों के पास भी मन तो है ही उनकी दृष्टि तथा विचार भी कुछ भिन्न होना स्वाभाविक है। उनके पास भी अपनी कुछ इच्छाएं होंगी।

अतएव जो समस्या पुराने साथियों में है, वही दस दिनों के बाद नये साथियों में पनपेगी। साथियों को बदलते रहने का तरीका अच्छा नही होता। यह अपनी असहनशीलता का परिणाम होता है। ऐसा बरताव करके हम व्यवहार में सफल भी नही हो सकते। हां, समाज में नये साधकों एवं सदस्यो को भरती करना अलग बात है। यह तो होना ही चाहिए।

यह भी सच है कि यदि कोई अपने अहंकार एवं कामनाओं के वश होकर पारिवारिक एवं सामाजिक नियमों का बराबर उल्लंघन ही करता जाता है, और समझाने-बुझाने का भी उस पर कोई प्रभाव नही पड़ता है, तो ऐसे व्यक्ति को परिवार एवं समाज से अलग कर देना ही कल्याणकर है। परिवार या समाज में समय-समय पर उन्मादी व्यक्तियों का उदय होना असम्भ्व नही है। अतएव वहां यह कर्तव्य हो जाता है कि यदि वे समझा-बुझाकर रास्ते पर नहीं लाये जा सकते हैं तो उनको परिवार एवं समाज से अलग कर देना हितकर है। साथियों में परस्पर मधुर व्यवहार न रहने से तनाव बना रहता है और परस्पर का तनाव नरकवास होता है।

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