महान संत रैदास की वाणियों ने भारतीय सांस्कृतिक धारा को बहुत गहरे तक समृद्ध किया है। सम्पूर्ण भारत में उनके प्रति गहरी संवेदना और समादर है। ये भी देखे- Kabir Ke Dohe with Meaning PDF । हमारी ज्ञान धाराओं को समृद्ध और अक्षुण्य रखने में ऐसे संतों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। निर्गुणी संत-साहित्य हिन्दी-साहित्य का एक परमोत्कृष्ट पक्ष है। इस साहित्य में रैदास का नाम विशेष रूप से देदीप्यमान है। आपको नीचे Hindi Raidas Ke Pad Class 9 PDF उपलब्ध करवाया गया है। इस PDF में सारे पदों के अर्थ एवं प्रश्न-उत्तर दिये गए हैं।
ये वाराणसी के चर्मकार-जाति में उत्पन्न निर्गुणी संत-कवि थे, जिनके नाम पर प्रचलित रचनाओं को शिक्षित-अशिक्षित लोगों सहित हिन्दी-साहित्य के अध्येता आदर के साथ लिखते, पढ़ते, सुनते और सुनाते हैं। इतना ही नहीं, इनको सिख और निर्गुणी संत अपनी परंपराओं में विशेष स्थान देते हैं।
Raidas Ke Pad Class 9 Hindi PDF | रैदास के पद
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रैदास के पद | Raidas Ke Pad Hindi Class 9 PDF |
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भारतीय ज्ञान परम्परा और उसकी संस्कृति के निर्माण में संतों का केन्द्रीय योगदान रहा है। संत के वाणी की भाषा और उसकी क्षेत्रीयता से भारतीय जन मानस में कोई बाधा कभी नहीं रही। उसके केन्द्र में हमेशा से अपने आत्मा को जानने-समझने की दिशा में संतों के विचार और वाणियाँ प्रेरणा का स्त्रोत रही हैं।
संत Raidas जी के काव्य में निहित संगीतात्मक व रसात्मक अभिव्यक्ति का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया गया है। उनके काव्य में जिन उच्च आदर्शों, नैतिक मूल्यों, समाज सुधार संबंधी विचारों आदि के साथ-साथ जिस प्रकार अध्यात्म, दर्शन व मनोवैज्ञानिक संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का समन्वय उपलब्ध होता है, वही उनके काव्य को कला के उत्कृष्ट शिखर पर पहुंचा देता है। काव्यात्मक छंद आदि यदि कहीं भंग होता है तो संगीतात्मक प्रवाह उसे गति प्रदान कर देता है, विपरीत अवस्था में संगीत के प्रवाह में आई शिथिलता को उन्दात्मक या पदात्मक स्रोत प्रश्रय प्रदान कर देता है।
धार्मिक परिप्रेक्ष्य में संत रविदास वंदनीय है। उनके काव्य में जो आकर्षण व गरिमा है उसी के कारण संत रैदास के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते हुए इस काव्य का अध्ययन, मनन-चिंतन व अन्वेषण-विश्लेषण करके उनमें निहित सांगीतिक अभिव्यक्ति को मुखर रुप प्रदान करना अपने आप में उनके प्रति अर्पित श्रद्धांजलि का ही प्रारुप है।
भागवत गीता के समान Raidas Ke Pad में भी प्राणियों से माया के प्रपंच में न फंस कर प्रभु का नाम स्मरण करने का आग्रह किया है। माया धोखा देती है, भ्रमित करती है- वे प्राणियों से कहते है कि हे मानव! तू माया के जाल में क्यों फंसा है वह तो नश्वर है, सांसारिक संबंध भी मनुष्य के जीवित रहने तक ही होते है। जो कुछ इस जीवन में प्राप्त किया है वह इस धरती पर रह जायेगा, तुम हाथ झाड़ कर इस दुनिया से चले जाओगे। यहाँ कोई भी सगा नहीं है, न पुत्र और न पत्नी। मृत्यु होने पर तुझे दूर कर देंगे और शरीर जला देंगे। प्राण जाने के बाद कोई तेरा नहीं होगा। समय जाकर वापस नहीं आता। यह सांसारिक मोह-माया सब थोथरी है अस्तु प्रभु की भक्ति में रम जाओ, माया का त्यागकर प्रभु का स्मरण करो।
देशप्रसिद्ध संतों एवं भक्तों के अन्तर्गत संत रैदास का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। अद्यावधि इनके जीवन से संबंध कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती। इनके माता-पिता, जन्मकाल एवं स्थान, विवाह, संतान, मृत्यु की तिथि एवं स्थान आदि सभी सूचनाएँ अनुमानाश्रित हैं। ऐसी स्थिति केवल संत रैदास के संबंध में ही हो, ऐसा भी नहीं है। अधिकांश विशिष्ट प्रसिद्ध भक्तों एवं संतों का मान्य जीवन-वृत्त जनश्रुतियों और अनुमानों पर ही अवलम्बित है। उदाहरणतः 'रामचरितमानस' जैसे विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास, कृष्णलीला के गायक, भक्तप्रवर सूरदास, प्रेम-दीवानी मीरा आदि संत और कबीरदास जैसे प्रसिद्ध भक्त एवं संतों के जीवन-वृत्त का भी प्रामाणिक संकलन नहीं हो सका है। इस स्थिति का मूल कारण संभवतः यह हो कि ये भक्त एवं संतगण अपने इहलौकिक परिचय एवं ख्याति इनके लिए सर्वथा नगण्य है। अतः इन्होंने अपनी रचनाओं में इस ओर कोई संकेत नहीं किया। यहां तक कि गुरु गोविन्द से अधिक स्वीकार करते हुए भी, उनका भाव-विह्वल स्तवन करते हुए भी, उनके लौकिक परिचय अथवा नाम का उल्लेख तक नहीं किया।
किसी भी प्रसिद्ध भक्त एवं संत के जीवन-वृत्त से संबंध जो भी मान्यताएँ प्रचलित हैं उनका मुख्य आधार अन्य भक्तों एवं संतों द्वारा रचित साहित्य में प्राप्त उल्लेख है। ऐसा प्रचुर साहित्य मिलता है जिसमें किसी एक भक्त अथवा संत द्वारा अन्य भक्तों एवं संतों का प्रसंगवशात उल्लेख किया गया है। ये उल्लेख भी प्रमुखतः इन जीवन और उनकी अपने इष्ट में अविचल निष्ठा, सुदृढ़ समर्पण आदि विशिष्ट गुणों की भावपूर्ण ऐसी अभिव्यंजना है जो जनश्रुतियों पर ही आधारित है। जनश्रुतियों का कलेवर सदा ही परिवर्तनशील एवं वृद्धिगत है, इनमें तथ्य कम और चमत्कारपूर्ण घटनाओं का वर्णन विशेष होता है।
अधिकांश जनश्रुतियों में संत रैदास का पूर्वजन्म में ब्राह्मण होना सिद्ध कर उनकी महत्ता को प्रशस्त करने का प्रयास किया गया है। ऐसे आख्यानों का मूल लक्ष्य कथित भक्त अथवा संत विशेष में अलौकिक गुणों का आरोप कर उनकी अपूर्व महत्ता को स्थापित करना ही होता है।
भक्तों एवं संतों की अधिकांश रचनाएँ मूलतः उनका उद्गार ही हैं, भावावेश में वे गा उठे; उनके ये उद्गार गेय-परम्परान्तर्गत सुरक्षित एवं प्रचारित होते रहे। कालान्तर में उनके शिष्यों एवं भक्तों ने उनको लिपिबद्ध कर लिया। विभिन्न संतों की 'वाणियों' के जो भी संग्रह मिलते हैं वे सब इसी कोटि में आते हैं। लिपिबद्ध होने के पूर्व दीर्घकालपर्यन्त ये रचनाएँ मौखिक-परंपरा का विषय रही हैं। अतः उपलब्ध हस्तलिखित संग्रह-ग्रंथों की प्रामाणिकता भी निर्विवाद नहीं तथापि कालक्रमानुसार न्यूनाधिक मान्य हो सकती है। इन रचनाओं के आधार पर संत रैदास के जीवन-वृत्त से संबंध कोई सूचना नहीं मिलती तदापि उनकी उपासना का स्वरूप स्पष्ट हो उठता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि अन्य संतों की भांति इनमें तो खण्डन-मण्डन की ही प्रवृत्ति थी और न ही रहस्यात्मक वर्ण में ही रूचि थी।
रैदास-काव्य में सत्यम, शिवम् और सुन्दरम् की पूर्ण प्रतिष्ठा हुई है। समाज में व्याप्त घृणा, भेदभाव और टकराव को मिटाकर रैदास ने प्रेम और एकता का जो पाठ पढ़ाया था। युग की क्रांति का प्रभाव उस समय के होने वाले परिवर्तनों की आँधी से नहीं आँका जाता। उसके प्रभावों की सच्ची गवेषणा तो आने वाले युगों में उन परिवर्तनों के सतत प्रवाह में ही की जाती है। यह निर्विवाद सत्य है कि जिस भक्ति का प्रचार रामानन्द ने किया, भक्ति का वही संदेश रैदास ने प्रसारित किया। जो बात कबीर ने कही, वही रैदास ने कही। जो दर्शन गुरु नानक ने हमारे सामने रखा है, वही दर्शन रैदास ने प्रस्तुत किया है। जो आध्यात्मिक दृष्टि अन्य संतों ने अपनायी, वही दृष्टि रैदास की रही है और - जो रैदास ने कहा, वही तुलसी ने भी कहा। जो उद्बोधन रैदास ने समाज को दिया, वही आज के कवि दे रहे हैं।
तुलसी ने जिस राम-राज्य की कलपना अपने काव्य में की थी और आगे चलकर हिन्दी के आधुनिक काल के जिन चोटी के साहित्यकारों ने स्वराज्य का ढिंढोरा पीटा, उसके आदि-प्रवर्तक तो रैदास ही हैं। पूरे निर्गुण भक्ति-काव्य में रैदास के अलावा ऐसा कोई संत-कवि पैदा नहीं हुआ जिसने समृद्धशाली समतावादी स्वराज्य की बात अपने काव्य में उठाई हो।
जहाँ तक समस्त सृष्टि को एक सूत्र में जोड़े रखने वाले प्रेम-तत्व की बात है तो प्रेम का वर्णन, प्रेम की महत्ता की प्रतिस्थापना, प्रेम की आवश्यकता का अनुभव कबीर ने भी अपने साहित्य में किया है किन्तु उनका प्रेम हरि-भक्ति-सम्मत प्रेम है। उनका स्पष्ट कहना है कि जब तक मनुष्य के भीतर हरि के प्रति प्रेम उत्पन्न नहीं होगा, हरि-भक्ति को प्राप्त करने में वह असफल रहेगा। अपनी साखियों में उन्होंने जिस प्रेम की महत्ता प्रतिपादित की है वह ईश्वरीय प्रेम है, ईश्वर को प्राप्त करने का प्रेम है, उसमें पूरी तरह खो जाने का प्रेम है। उनका प्रेम व्यक्ति से, समाज से दूर-बहुत दूर केवल और केवल ईश्वर को प्राप्त करने का प्रेम है, मानवीय प्रेम से उनका कोई लेना-देना नहीं है। जब मानव का मानव से प्रेम नहीं होगा, उसका लगाव नहीं होगा- वहाँ हरि-भक्ति में डूबे रहने पर बल देकर कबीर कौन-से जन-कल्याण की पैरवी कर रहे थे?
मित्रों जब आप Raidas Ke Pad Class 9 PDF पढ़ेंगे तो पाएंगे की रैदास की वाणी यह सिद्ध करती है कि ईश्वर का अनुभव जन्म पर आधारित नहीं है; प्रत्युत परमात्मा का अनुभव प्राप्त कर पाना वर्ग, वर्ण, लिंग, जाति, धर्म आदि सभी द्वंद्वों से निरपेक्ष है।