ऋग्वेद आदि संहिताओं का व्याख्यान ब्राह्मणों में मिलता है; किंतु यह व्याख्यान यज्ञ प्रक्रिया के निर्वहन को सामने रखकर किया गया है और इसमें मानवीय परिसीमित यज्ञ को असीम ब्रह्मन का रूप देकर उसका विश्वात्मक यज्ञ के रूप में किया गया है। ब्रह्मन् शब्द से बने ब्राह्मण शब्द का यथार्थ रहस्य इसी तत्व में है। आरण्यकों एवं उपनिषदों में ब्राह्मणों की यज्ञ प्रक्रिया सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप प्रतिधारण करती गई, यहां तक कि उपनिषदों में पहुंच कर ब्रह्मा भाव के साधनरूप यज्ञ का स्वयं परब्रह्म में पर्यवसान हो गया -
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पहले तीन अध्यायों में एकार्थक शब्दों का संग्रहण है। किंतु चतुर्थ एवं पंचम अध्याय में संकलित पद-संदोह का आपस में नाता व एकरूपता नहीं है। फिर इनमें से अनेक शब्द अति स्पष्ट है, जबकि कतिपय अत्यंत अस्पष्ट। किस आधार पर इन पदों का संकलन किया गया था यह विषय मार्मिक विचार की अपेक्षा रखता है। निश्चय ही वर्तमान निघण्टु में संकलित पद-जात की व्याख्या कर लेने पर भी वैदिक वाङ्मय का अर्थावभास नहीं हो पाता; फलतः संभव है कि प्रस्तुत निघण्टु से कही विपुलतर निघण्टु बने हो, और उनका अपने समय में चलन रहा हो। किंतु आज उनमें से एक भी सामने नहीं है।
निश्चय ही वर्तमान निघण्टु में संकलित पद-जात की व्याख्या कर लेने पर भी वैदिक वाङ्मय का अर्थावभास नहीं हो पाता; फलतः संभव है कि प्रस्तुत निघण्टु से कही विपुलतर निघण्टु बने हो, और उनका अपने समय में चलन रहा हो। किंतु आज उनमें से एक भी सामने नहीं है।
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वर्तमान निघण्टु का सौभाग्य था कि इस पर यास्क ने निरुक्त रचकर इसमें आये शब्दों की वैदिक मंत्रों के उद्धरण देकर व्याख्या की और अपनी व्याख्या-पद्धति में एक ऐसी ओर अपनाई, जिस पर चलकर एक शिक्षा दिया हुआ व्यक्ति वैदिक पदार्थ को समझ सकता है। सस्य इसका यह हुआ कि प्राचीन निघण्टु काल-कवलित हो गये और एकमात्र निरुक्त-पबृंहित निघण्टु चलन में आ गया। यास्क का युग पाणिनि से पहले छठी शती लगभग है। निघण्टु इससे पहले की रचना हो सकती है।
निरुक्त का आरम्भ मीमांसा देने योग्य है: संभव है कि यह समाम्नाय स्वयं यास्क की अपनी रचना हो, और उस पर स्वयं उन्होंने अपनी शैली से निरूक्त के रूप में व्याख्या लिखी।
निघण्टु शास्त्र के पहले 3 अध्यायों में 406 के लगभग समानार्थी शब्दों की तालिका है, जबकि उसके चतुर्थ एवं पंचम अध्याय में 899 के लगभग स्वतंत्र शब्दों का संकलन है। कुछ-कुछ इसी प्रकार की प्रक्रिया बाद के कोशकारों न अपनाई है।
अमरकोश के रूपातनामा टीकाकार सर्वानंद के शब्दों में अमर सिंह ने अपने कोष के संकलन में व्याधि, माधुरी, धन्वन्तरि, वररुचि एवं अन्य कोशकारों से सहायता ली है और त्रिकाण्ड, उत्पलिनी, रत्न कोष एवं माला नामक कोष मौजूद थे। पुरुषोत्तम देव, महेश्वर एवं हेमचन्द्र के अनुसार कात्य अथवा कात्यायन और वाचस्पति की रचनाओं का उपयोग भी अमर सिंह ने किया था।
पुरुषोत्तम देव रचित हारावली में एक श्लोक आता है जिसके अनुसार शब्दार्णव, उत्पलिनी एवं संसारावर्त नामक कोश क्रमशः वाचस्पति, व्याडि और विक्रमादित्य की रचनाएं हैं। राजमुकुट अमरकोश में शब्दार्णव से एक नमूना देते है, जिसे रामनाथ अपनी पत्रिका त्रिकांड शेष में वाचस्पति कोश से उद्धृत बताते हैं।
संभवतः व्याडिकृत कोश का निर्माण-प्रकार वैसा ही रहा हो जैसा कि अमरकोश का है। हेमचंद्र ने जो उद्धरण व्याडि रचित कोष ने अपनी रचना अभिधान-चिन्तामणि की स्वोपज्ञ टीका में दिये हैं उनसे मालूम होता है कि व्याडि की रचना विपुलकाय थी, क्योंकि उन्होंने किरण के प्रकरण में इस प्रकार के तथ्यों पर भी ध्यान दिलाया था कि सूर्य की किरणें विभिन्न ऋतुओं में घटती-बढ़ती क्यों है, चंद्रमा के अश्व कितने है और अप्सराओं का उद्धभव कैसे हुआ था इत्यादि। साथ ही उन्होंने बौद्ध धर्म के कतिपय पहलुओं पर भी तीव्र आलोक डाला था। हो सकता है कि व्याडि बौद्ध रहे हो।
पुरुषोत्तम देव रचित त्रिकाण्डशेष के अनुसार कात्य, कात्यायन और वररुचि एक ही नाम है; किंतु कात्य, जिन्होंने कि एक समग्र कोप का संकलन किया था लिङानुशासन - जिसका अपर नाम लिग्ङशेष विधि है के रचयिता वररुचि से भिन्न प्रतीत होते है; क्योंकि प्राचीन लेखक हर्षवर्धन, वामन और सर्वानंद एक स्वर से लिड्डानुशासन को वररुचि की रचना बताया है, जबकि क्षीरस्वामी एवं हेमचंद्र कात्य से उद्धरण देते हैं - न कि वररुचि से- जो उद्धरण की प्रपूर्ण कोश के लिए प्रतीत होते हैं न कि लिड्डानुशासन से।