Title : श्री भागवत पुराण
Pages : 170
File Size : 48 MB
Category : Religion
Language : Hindi
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Only for reading purpose: कोई भी काम करना हो, अपने साथियों, परिवार वालों तथा अनुगामियों से राय लेकर करना चाहिए।
अहंकार स्वार्थ या अज्ञानवश लोग अपने साथियों से राय लिये बिना काम करते है। अतएव वे धीरे-धीरे अकेले हो जाते हैं। क्योंकि ऐसे व्यवस्थापक से साथियों का मन उदास हो जाता है। ऐसी स्थिति यदि उसकी बनी रही, तो साथ के सभी लोग अपने-अपने मन के हो जाते हैं। साथियों से राय लेकर काम करने से सबका सहयोग रहता है और राय न लेने से धीरे-धीरे सबके द्वारा असहयोग आन्दोलन शुरू हो जाता है। इससे संगठन बिखर जाता है तथा उन्नति यक जाती है। सबसे राय लेकर काम करने से संगठन मजबूत होता और दिन-प्रतिदिन समाज या परिवार उन्नति की ओर बढ़ता है।
अनुगामियों को श्रेय
परिवार या समाज के मालिक को चाहिए कि वह अपने परिवार के सदस्यों या अनुगामियों में जितनी योग्यता देखता जाय, उन्हें व्यवस्था का उत्तरदायित्व देता चला जाय। अपने ऊपर जिम्मेदारी आने पर ही व्यक्ति के अपने गुण निखरते हैं। जो मालिक, गुरू या मंहत अपने अनुयायियों को सदैव अयोग्य ही माने रहेगा और उन्हें कभी कोई उत्तराधिकार नहीं देगा, उसके अनुयायी उस दिशा में कभी अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकते। काम करने पर ही काम करने की क्षमता और बुद्धी बढ़ती है। तुम अपने अनुयायियों को बुरा कहकर उन्हें कोंचते न रहो, किन्तु उन्हें अपने काम की जिम्मेदारी दो, उन्हें श्रेय दो, वे आगे बढ़ जायेंगे।
असफलता के भय का त्याग
कुछ लोगों को किसी भी नये काम के करने में भय लगता है कि वह असफल न हो जाय। यह ठीक है कि सोच, समझ एवं परिणाम विचार कर काम करना चाहिए, परन्तु जो सदैव असफलता का ही भय पाले रखेगा, वह क्या उन्नति कर सकता है! जो घाटा होने के भय से व्यापार नहीं करता, पतन के डर से भक्ति एवं वैराग्य-पथ नहीं अपनाता और असफलता के डर से किसी उन्नति के काम में हाथ नहीं लगाता, वह जीवन में केंचुवा बनकर रह जायेगा। अतएव स्व-पर हित की दृष्टि एवं आत्मविश्वास रखकर काम करो, सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी।
दोषदृष्टि-त्याग
जो अपने साथियों, अनुगामियों में दोष ढूंढ़ता तथा उनकी चर्चा लोगों में करता रहता है, वह कभी भी व्यवहार में सफल नहीं हो सकता, फिर परमार्थ तो बहुत दूर है। हर आदमी में दोष-गुण होते हैं। उनके दोष देखते रहने से दोष ही दिखते रहेंगे, और यदि उनके सद्गुण देखे जायं, तो उनमें सद्गुण भी काफी दिखेंगे। अपने साथियों, अनुगामियों की बुराई करके कोई पनप नहीं सकता। ऐसे लोग अच्छी राय देने वाले साथियों को भी बुरा ही मानते हैं। अतएव दोष-दृष्टि का त्याग करके सब में सद्गुण देखते हुए व्यवहार बरतना चाहिए।
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सहृदयता
मान लो, किसी में अधिक दोष है या किसी ने बहुत बड़ा अपराध या अनैतिकता का काम कर डाला, परन्तु क्या उससे घृणा करने, उसकी निंदा एवं बुराई करने से वह सुधर सकेगा! डसके साथ सहृदयता का व्यवहार करना चाहिए। उससे घृणा न करके, प्यार करना चाहिए। यदि कोई बड़ा-से-बड़ा अपराधी है, परन्तु वह सुधरना चाहता है, तो वह स्वामी एवं स्वजनों के प्यार से ही सुधर सकता है। ऐसे आदमी को सोचने, समझने और सुधार करने का अवसर देना चाहिए।