Title : संभोग से समाधि की ओर
Pages : 123
File Size : 33.7 MB
Author : ओशो
Category : Theology & Philosophy of Religion
Language : Hindi
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Only for reading: कितने लोग तो व्यवहार को बिलकुल न छूना ही मोक्ष का साधन मानते है,
किन्तु बाहर से निष्क्रिय हो जाने से मन निष्क्रिय नहीं होगा। विवेक-वैराग्य की यदि पूरी शक्ति नहीं है तो मनुष्य जितना ही बाहर से निष्क्रिय होता है उतना ही भीतर से नाना संकल्पों वाला तथा क्रियाशील होता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी योग्यतानुसार प्राप्त व्यवहार का कुशलतापूर्वक सम्पादन करे। साथ-साथ विवेक द्वारा सब कुछ छूटने वाला समझकर किसी में मोह न करे।
कितने साधक आलसी बनकर बैठे रहना भजन समझते हैं। ऐसे निकम्मे लोगों से सब प्रकार से समाज का पतन होता है। जो सच्चे साधक हैं वे सदैव कार्यो में लगे रहते हैं, जिनसे उनका और समाज का कल्याण होता है। हमारी जिविका और कल्याण में अनेकों लोग सहायक हैं।
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हमारी जीविका एवं जीवन-निर्वाह में काम आने वाले भोजन, वस्त्र, औषधी, सवारी तथा नाना वस्तुएं है। इसी प्रकार हमारे कल्याण में अनेक महापुरूषों के उपदेश, ग्रन्थ, ग्रन्थों के प्रकाशन आदि सहायक है!
घर में दस प्राणी हों। उनमें तीन-चार व्यक्ति तो काम धन्धा करते रहें और शेष बैठ करके खाना चाहें तो घर का दिवाला पिट जाएगा। परन्तु अपने योग्यतानुसार दसो व्यक्ति काम करते हैं। तो घर खुशहाल रहेगा। कहते हैं। एक के मुये दुइ छूये। अर्थात एक आदमी बड़े कठोर परिश्रम से जितना काम पूरा कर सकता, उसे दो आदमी हाथ लगाते ही पूरा कर सकते है।
जीवन एक स्वप्न है, एक और यह यथार्थ है, परन्तु दूसरी ओर यह कुछ समय के लिए इतना सत्य है कि इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। हम कितना ही कहें कि जीवन स्वप्नवत है, परन्तु भूख लगने पर अन्न की आवश्यकता है। बिना खाये रहा नहीं जा सकता। अतएव हमें व्यावहारिक जगत में खूब व्यवहार-कुशल होना पड़ेगा। व्यवहार को यथायोग्य कुशलतापूर्वक करते हुए हम सब कुछ को स्वप्न तुल्य समझना।
शरीर के साथ ही सारा व्यवहार समाप्त हो जाता है; परन्तु शरीर रहे तक वह इतना यथार्थ है कि उससे आंखें मूंदी नहीं जा सकतीं। महात्मा भी जब किसी भक्त के यहाॅं जाते है तब भक्त पहले व्यवहार की बात करता है। अर्थात आसन, भोजन, शयन आदी का ही प्रबन्ध करता है। शरीर का पूरा व्यवहार कर लेने के बाद परमार्थ के विषय में जिज्ञासा प्रस्तुत करता है। अतएव व्यवहार पहले है, इसलिए उसका सम्पादन कुशलतापूर्वक होना चाहिए। परन्तु सारा व्यवहार परमार्थ की सिद्वि के लिए है। परमार्थ की कमाई न की गई तो सारा व्यवहार बेगारी भरना है।
व्यवहार की शुद्धि बिना परमार्थ उसी प्रकार निष्फल जाता है जैसे खेत को गोड़े, जोते, खाद, पानी आदि दिये बिना उसमें बीज डालने निष्फल होता है। जैसे खेत की सेवा किये बिना उसमें बीज डालने से मनुष्य निराश होता है वैसे व्यवहार का सुधार किये बिना परमार्थ की कमाई निष्फल हो जाती है।