विद्वत्ता, ज्ञान, सूझबूझ और हाजिर जवाबी में लाजवाब व्यक्ति, कर्नाटक राज्य में विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में विदूषक थे- तेनालीराम। अपनी बुद्धि-चातुर्य के बल पर विरोधियों को मात देने वाले आत्मविश्वासी, कठिन परिस्थितियों में जूझने को तत्पर रहने वाले थे- तेनालीराम। मित्रों, तेनालीराम माँ काली और श्री हनुमान के बहुत बड़े भक्त थे। आप यहाँ से हनुमान जी का संपूर्ण सुंदरकांड पाठ PDF में डाउनलोड कर सकते है। तेनालीराम महाराज कृष्णदेव राय के ऐसे दरबारी रत्न थे, जो अपने विरोधियों को उनकी ही चालों में फँसाकर महाराज और जनता की वाह-वाही लूटने के साथ ढेरों इनाम भी पाते। वे अपने कारनामों से विरोधियों का सिर झुका देते और निरपराध लोगों की रक्षा करते थे। कैसे करते तेनालीराम यह सब? जानें, अनोखे किस्से पढ़कर और करें भरपुर मनोरंजन|
कुँए की शादी
विजयनगर साम्राज्य में राजा कृष्णदेव राय के राज्यकाल के दौरान दिल्ली सल्तनत पर मुहम्मद सुल्तानों का शासन था। सुल्तान अत्यन्त शक्तिशाली और पूरे उत्तर-भारत का शासन करते थे। अ बवे भारत के अन्य भागों पर भी कब्जा करना चाहते थे खासतौर पर उन भागों पर जहाँ हिन्दू राजा राज्य कर रहे थे। इसके लिए वे कोई भी तरीका अपना सकते थे।
एक बार दिल्ली के सुल्तान ने राजा कृष्णदेव राय को परेशान करने के इरादे से उन्हें एक दूत द्वारा शादी में आने का निमन्त्रण भिजवाया।
जब महाराज ने शादी का निमन्त्रण पढ़ा तो वे ही नहीं, पूरा दरबार भौंचक्का रह गया। उस निमन्त्रण पत्र में लिखा था -
हम अपने राज्य के नये खुदे कुएँ की शादी कर रहे हैं। इस शादी में हम आपके शहर के सभी कुँओं को आमन्त्रित करते हैं कि वे इस शुभावसर पर हमारी खुशी में शरीक होकर हमारा सम्मान बढ़ायें। इस शुभावसर पर उनकी उपस्थिति प्रार्थनीय है।
स्थान: दिल्ली
दिनांक: 24.07.18
निमन्त्रण भेजने वाले
दिल्ली के सुल्तान
बात यहीं खत्म नहीं होती थी। उस निमन्त्रण-पत्र के साथ एक चेतावनी पत्र और था, जिसमें लिखा था कि राजा कृष्णदेव राय के लिए सभी कुँओं को शादी में भेजना अनिवार्य है। न भेजने पर उन्हें और उनके राज्य को दिल्ली के सुल्तान के कोप का भोजन बनना पड़ेगा।
ये दोनों पत्र पढ़ कर महाराज को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। निमन्त्रण बहुत ही बेतुका था। सभी जानते थे कि कुँए एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते। परेशान होकर महाराज ने दरबारियों और अष्टदिग्गजों की मदद माँगी, पर कोई भी कुछ न बता सका कि इस समस्या को किस प्रकार सुलझाएँ, जिसमें दिल्ली और विजयनगर के बीच लड़ाई छिड़ने से बच जाये।
कहीं से कोई रास्ता न सूझने पर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को बुलाया और उसे पूरी बात बतायी। सारी बात सुनकर तेनालीराम ने महाराज से कहा, "महाराज! इस निमन्त्रण-पत्र के द्वारा दिलली का सुल्तान हिन्दुओं को जलील करना चाहता है। आप तो जानते ही हैं कि हिन्दूधर्म में नये खुदे कुँओं की प्राण-प्रतिष्ठा करने की प्रथा है। सुल्तान ने जान-बूझकर प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन को विवाह का नाम देकर आपको यह निमन्त्रण पत्र भेजा है।" कुछ रूक कर तेनालीराम बोला, परन्तु चिन्ता की कोई बात नहीं है। न तो निमन्त्रण-पत्र, न ही वह चेतावनी-पत्र हमारा कुछ बिगाड़ सकता है। आप बेफिक्र रहें।
कल तक मैं इस समस्या का कोई न कोई समाधान निकाल लूँगा।
अगले दिन राजदरबार में दिल्ली के सुल्तान के दोनों पत्रों की चर्चा गरम थी। सभी लोग परेशान थे और इस समस्या का हल अपनी-अपनी समझ से निकालने की कोशिश कर रहे थे। राजा कृष्णदेव राय के आते ही सब चुप हो गये। जब महाराज राजगद्दी पर बैठ गये, तो तेनालीराम खड़ा हुआ और बोला, 'महाराज! मैंने दिल्ली के सुल्तान के पास भेजने के लिए यह जवाब तैयार किया है।'
आप सब भी सुनें|
सेवा में,
श्रीमान दिल्ली के सुल्तान
आपके द्वारा भेजे गये निमन्त्रण का बहुत-बहुत धन्यवाद। हम आपके कुँए की शादी की आपको बधाई देते हैं। हम तहेदिल से आपके शुक्रगुजार हैं कि आपने इस शुभ अवसर पर हमें याद किया और इसमें सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित किया। निमन्त्रण मिलते ही हमने अपने राज्य के सभी कुँओं को इसकी सूचना पहुँचा दी, परन्तु वे सभी नाराज हैं कि आपके कुँए उनके विवाह में सम्मिलित नहीं हुए थे।
इसलिए, हमारी आपसे विनती है कि एक बार आप अपने कुँओं को यहाँ निमन्त्रण देने के लिए हमारे दूत के साथ भेज दें। इस निमन्त्रण के बाद हम आपको आश्वासन देते हैं कि हमारे कुँए आपके कुँए के विवाह में अवश्य आयेंगे। हम भी उनके साथ दिल्ली अवश्य पधारेंगे।
आशा है, शीघ्र ही आपके कुँओं से भेंट होगी।
सधन्यवाद
श्री कृष्णदेव राय
महाराजाधिराज विजयनगर साम्राज्य
पत्र का मसौदा सुनकर पूरा दरबार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
महाराज ने एक दूत के साथ यह सन्देश-पत्र दिल्ली के सुल्तान के पास भेज दिया। पत्र पढ़ते ही दिल्ली का सुल्तान चकरा गया और उसके मुँह से निकला, "हम कुँओं को तुम्हारे साथ कैसे भेज सकते हैं?"
दूत क्या जवाब देता, बेचारा चुपचाप सिर झुकाए खड़ा रहा। सिर धुनते हुए सुल्तान ने दूत को खाली हाथ वापस भेज दिया। अब उसने हिन्दुओं को नीचा दिखाने या उनका मजाक उड़ाने का इरादा छोड़ दिया था।
शिक्षा (Tenali's Moral): समझदारी और चालाकी में जमीन-आसमान का अन्तर है। कई बार सामने वाले को सबक सिखाने के लिए चालाकी से भी काम लेना पड़ता है।
आम का पौधा
राजा कृष्णदेव राय के विजयनगर के सिंहासन पर बैठने से पहले उत्तरी भारत के अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद-बिन-तुगलक जैसे सुल्तानों ने कई बार दक्षिण पर हमला किया।
राजा कृष्णदेव राय के राजगद्दी सँभालने के बाद ये हमले काफी कम हो गये, क्योंकि पूरे दक्षिण भारत के साम्राज्य की छत्रनीति और साम्राज्य के सुरक्षा प्रबन्ध अत्यन्त कड़े थे।
जब राजा कृष्णदेव राय विजयनगर साम्राज्य पर शासन कर रहे थे, तब दिल्ली में बाबर का राज्य था। बाबर मुगल सल्तनत का प्रथम बादशाह था, जो मध्य एशिया से भारत आया था। मुगल सल्तनत की नींव भारत में बाबर ने ही डाली थी।
बाबर ने राजा कृष्णदेव राय के दरबार में उपस्थित अष्ट दिग्गजों की बहुत प्रशंसा सुनी थी, खास तौर पर राजविदूषक तेनालीराम की। तो बाबर ने राजा कृष्णदेव राय से भेंट करने की ख्वाहिश पेश की। इसकी बाबत एक पत्र लेकर बाबर ने अपना दूत हम्पी भेजा, जो अपने साथ तेनालीराम को दिल्ली ला सके। महाराज की अनुमति लेकर तेनालीराम उस दूत के साथ दिल्ली दरबार पहुंच गया। दिल्ली में तेनालीराम को एक आरामदेह शाही मेहमानखाने में ठहराया गया। अगले रोज तेनालीराम को बादशाह बाबर से मिलना तय हुआ।
तेनालीराम के मिलने से पूर्व, बादशाह बाबर ने अपने मन्त्रियों को ताकीद की, "हमने तेनालीराम की बहुत तरीफ सुनी है। वह राजा कृष्णदेव राय का राजविदूषक है। हमने उसे दिल्ली दरबार में आमन्त्रित किया है। कल सुबह वह यहाँ दरबार में आयेगा। ध्यान रहे, तुम सबको उसके किसी भी मजाक या किसी बात पर बिल्कुल हँसना नहीं है। हम देखना चाहते हैं कि वह कितना चतुर है। अगर हमारे रोकने के बावजूद वह हमें हँसा देता है, तो हम उसे मान जायेंगे और ढेरों ईनाम भी देंगे।" दरबारियों ने सिर हिलाकर बादशाह को जता दिया कि वे समझ गये हैं कि तेनालीराम की किसी भी बात पर हँसना नहीं है।
अगले दिन तेनालीराम समय पर दिल्ली दरबार पहुंच गया। वहाँ उसने अनेक चुटकुले सुनाये, मजाक किये, पर न कोई दरबारी और स्वयं बादशाह सलामत एक बार भी हँसे। किसी ने उसकी बातों पर कोई टिप्पणी भी न की। ऐसा लगातार पन्द्रह दिनों तक चलता रहा।
पन्द्रह दिन बीतने पर एक रोज तेनालीराम दिल्ली नहीं गया। उसने वेश बदला और बादशाह बाबर का पीछा करने लगा।
तेनालीराम ने देखा कि बादशाह बाबर नित्यप्रति प्रातः काल यमुना नदी के किनारे घूमने जाते हैं। उनके साथ राज्य का प्रधानमन्त्री भी होता है।
अगली सुबह तेनालीरम ने एक वृद्ध पुरुष का वेश बदला। अपने हाथ में एक आम का पौधा और फावड़ा लेकर तेनालीराम यमुना नदी के तट पर जा खड़ा हुआ और बादशाह के आने का इन्तजार करने लगा।
ज्यों ही तेनालीराम ने बादशाह को अपनी ओर आते देखा, उसने आम का पौधा लगाने के लिए जमीन खोदनी प्रारम्भ कर दी। जब बाबर ने देखा कि एक बूढ़ा आदमी जमीन खोद कर आम का पौधा लगा रहा है, तो वह उसके पास आया और पूछा, "बड़े मियाँ! क्या मैं पूछ सकता हूं कि आप यह क्या कर रहे हो?" मैं आम का पौधा लगा रहा हूं - तेनाली ने कहा।
"पर मियाँ, तुम तो इतने बूढ़े हो। इन पौधों को रोपने से तुम्हें क्या फायदा। जब तक इस पर फल आयेंगे, तुम तो अल्लाह को प्यारे हो चुके होगे। फिर इस बुढ़ापे में इतनी मेहनत क्यों कर रहे हो?" बादशाह ने समझाया।
"बादशाह सलामत! मैंने अब तक अपने पूर्वजों के रोपे पेड़ों के आम खाये हैं। मेरे रोपे पेड़ के आम मेरे से आगे आने वाली पीढ़ी खायेगी। यह पौधा मैं अपने लिए नहीं, अपने बच्चों के लिए लगा रहा हूं।" बूढ़ा आदमी बोला।
बादशाह को उस बूढ़े की समझदारी भरी बातें बहुत पसन्द आयीं। तुरन्त उन्होंने सोने के सिक्कों से भरी थैली निकालकर उसे ईनाम के तौर पर दे दी। ईनाम पाकर उस बूढ़े ने बादशाह का बहुत शुक्रिया किया और बोला, 'हुजूर! आप एक नेकदिल बादशाह हैं। लोग तो अपनी मेहनत का फल कई बरसों के बाद पाते हैं, पर आपने तो मुझे मेरी मेहनत का फल पहले ही दे दिया। दूसरों की मदद करने के विचार ने मेरा बहुत फायदा किया है।'
बादशाह बाबर नम्रता से बोले, "मियाँ! हमें तुम्हारे विचार बेहद पसन्द आये। तुम्हारी सोच ने हमें अत्यन्त प्रभावित किया है। ये लो, यह दूसरी थैली भी हमारी ओर से ईनाम समझ कर रखो।"
"बादशाह सलामत रहें। हुजूर बहुत-बहुत शुक्रिया।" बूढ़ा आदमी बोला, "यह पेड़ तो बड़ा होकर वर्ष में एक बार ही फल देगा, पर आपने तो मेरे हाथ एक साथ दो बार भर दिये। मैं सदा आपका आभारी रहूंगा।"
"मियाँ एक बार फिर हम तुम्हारी बातों से बहुत प्रभावित हुए हैं। तुम्हारी बातें मलहम की तरह ठण्डक देती हैं। ये लो, यह तीसरी सोने की थौली भी तुम्हारा इनाम है।" बादशाह ने बूढ़े को एक थैली और थमा दी।
यह देखकर बादशाह के साथ आये प्रधानमंत्री की आँखे खुली रह गयीं। वह बादशाह के कान में फुसफुसाते हुए बोला, हुजूर! चलिए यहाँ से। यह बूढ़ा आदमी अत्यन्त ही चतुर और होशियार मालूम पड़ता है। इस प्रकार बहला-फुसला कर यह आपका सारा खजाना लूट लेगा।
प्रधानमंत्री की बात सुनकर बादशाह ठठाकर हँसे और ज्यों ही पलट कर जाने लगे, वह बूढ़ा आदमी बोला, "हुजूर, एक बार पीछे मुड़ कर देखेंगे।"
यह सुनकर बादशाह और प्रधानमंत्री दोनों ने घूमकर उस बूढ़े आदमी की ओर देखा, तो वहाँ हाथ में नकली दाढ़ी पकड़े तेनालीराम खड़ा था। बादशाह बाबर ने तेनालीराम को देखा, तो जोर से हँस दिये, "तेनाली! आज हम समझ गये कि तुम्हें दुनिया का सबसे बेहतरीन विदूषक क्यों माना जाता है। तुम वास्तव में चतुर हो। तुम्हारा कोई मुकाबला नही कर सकता। तुमसे तो प्रधानमंत्री जी भी डर गये। हा......हा....हा।"
अगले दिन बादशाह ने तेनालीराम को दरबार में बुलाकर खास तौर से सम्मानित किया। यह खबर आग की तरह हर ओर फैल गयी। हम्पी में जब राजा कृष्णदेव राय को इस घटना का पता चला, तो उनका सीना गर्व से चैड़ा हो गया। तेनालीराम ने विजयनगर साम्राज्य का मान रख लिया था और उनकी नाक ऊँची कर दी थी। उन्हें गर्व था कि तेनालीराम उनके दरबार का अष्टदिग्गज है।
शिक्षा (Moral) : जैसा सब सोचते हैं, उससे हट के सोचना, जो कोई न करता हो, ऐसे काम करना, यही विजेता के गुण हैं।
डंडे की करामात
एक गांव में एक औरत रहती थी। वह प्रतिदिन शाम को अपने पति को दस जूते मारा करती थी।
इस औरत की एक बेटी भी थी। जब वह शादी के लायक हुई तो उसके लिए वर की खोज होने लगी। लड़की रूपवती थी, परन्तु जूता मारने में मां की नकल करने का लोागों को उसकी ओर से डर था। इसलिए उसके साथ कोई विवाह नहीं करना चाहता था।
नगर-नगर और गांव-गांव में इस जूता मारने वाली औरत की चर्चा फैल रही थी।
इधर तेनाली राम की कीर्ति भी कम न थी। उसके शत्रु उससे वैर रखते थे। ऐसे लोगों ने किसी न किसी बहाने तेनाली राम को नीचा दिखाने का विचार किया। तेनाली राम के रिश्तेदार भी उससे बहुत जलते थे, इसलिए उन्होंने भी अपना बैर निकालने के लिए यह अच्छा अवसर समझा।
एक दिन तेनाली राम सारे कामों से निबट कर अपने घर में बैठे थे। उस समय एक पुरोहित उनसे मिलने आया। तेनाली राम ने उस को बहुत आदरपूर्वक बिठाया।
थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद पुरोहित ने कहा - "वह रमाबाई अपने पति विष्णु शर्मा को नित्य दस जूते मारा करती है, उसको तो आप जानते होंगे। उसकी एक बहुत रूपवती बेटी है। उससे कोई विवाह नहीं करता। सबको यही भय है कि उसमें माता से आचरण न हों। यदि आप उससे विवाह कर लें तो आप की बहुत प्रशंसा होगी।"
तेनालीराम ने उसका मतलब समझ लिया और कहा - "आपका कहना ठीक है, परन्तु मेरा एक विवाह हो चुका है और दूसरा करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, इसलिए मैं यह विवाह नहीं कर सकता। किन्तु हां, मेरा एक छोटा भाई है जो इन दिनों काशी पढ़ने गया है, यदि उस के साथ उस लड़की का रिश्ता हो सकात हो तो मैं तैयार हूं।"
यह सुनकर पुरोहित जी प्रसन्न होते हुए रमाबाई के घर गए और अपने आने का मतलब कह सुनाया। सुनते ही रमाबाई बहुत प्रसन्न हुई और उसने तेनाली राम के भाई को अपनी लड़की देना स्वीकार कर लिया। विवाह का दिन निश्चित करने की भी उसने पुरोहित को अनुमति दे दी। पुरोहित ने तेनालीराम के पास जाकर विवाह का दिन भी निश्चित कर दिया।
तेनालीराम का कोई भाई न था। जब विवाह पक्का हो गया, तब वह एक अनाथ बालक को ढूंढ़ने लगे। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते दो तीन दिन में उनको एक बीस वर्ष का युवक मिल गया जो बहुत पढ़ा लिखा था और पेट पालने की चिंता में विजयनगर आया हुआ था।
तेनालीराम ने उस युवक को अपने घर पर टिका लिया और एक दिन कहा - "मैं रमाबाई की कन्या से तुम्हारा विवाह करा दूंगा और तेरे जीवन निर्वाह का उचित प्रबंध भी करा दूंगा। परन्तु इन सब बातों के लिए तुम्हें मेरा भाई बनना पड़ेगा, यदि तुम्हारी इच्छा हो तो मैं उपाय करूं।"
तेनालीराम की यह बात सुनकर युवक अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने यह सहर्ष स्वीकार किया।
थोड़े ही दिनों के बाद विवाह की तैयारी हुई और भाँवरें पड़ीं।
जिस दिन लड़की ससुराल जाने को तैयार हुई, उसी दिन उसकी मां ने एक जूता उसे दिया और शिक्षा दी - "बेटी, जो तू मेरी सच्ची लड़की है तो मुझ से भी अधिक अपने पति पर प्रभाव जमा लेना। मैं तो हर रोज उसे दस जूते मारती हूं, परन्तु तुझ को बहादुर मां की बेटी उसी समय मानूंगी जब कि तू अपने पति को पन्द्रह जूते रोज मारे, और यदि तू मेरे कहने के अनुसार नहीं चलेगी तो मैं जन्म भर तेरा मुंह भी नहीं देखूंगी।"
लड़की ने यह बात स्वीकार कर ली।
रमाबाई ने अपने पति को उसे पहुंचाने के लिए भेजा।
लड़की के ससुराल में पहुंचते ही तेनालीराम ने ऐसा रूप बना लिया जिससे वह थरथर कांपने लगी। उसके पति को भी तेनालीराम ने चिड़चिड़े स्वभाव का बन कर रहने को समझा दिया था। तेनाली राम और अपने पति, इन दोनों के स्वभाव में चिड़चिड़ापन और क्रोध देख कर उस लड़की ने भय के मारे जूता चुपके से कोने में डाल दिया और मारने का विचार उस समय छोड़ दिया।
एक दिन भोजन के पश्चात तेनाली राम और विष्णु दोनों बात कर रहे थे। उस समय तेनाली राम ने बिल्कुल अनजान बनकर विष्णु की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा - "तुम्हारी पीठ पर ऐसे गड्ढ़े क्यों पड़ रहे हैं?"
यह सुनकर विष्णु ने सारी बात कह सुनाई। तेनाली राम ने सुन कर बहुत खेद प्रकट किया और कहा, "एक उपाय मुझे सूझा है, तुम करो तो बताऊं?"
उसने इस बात की हामी भरी। तेनाली राम ने उसको चार मास तक अपने यहां रख कर नित्यप्रति प्रातःकाल सूर्य को साष्टांग दंडवत प्रणाम करते रहने के लिए कहा।
वह तेनाली राम की आज्ञानुसार नित्यप्रति यह व्यायामक रने लगा। तेनाली राम उसको खाने के लिए अच्छा पौष्टिक भोजन देता था, जिससे चार मास में उसका शरीर हष्ट-पुष्ट हो गया।
जब वह खूब हष्ट-पुष्ट हो गया, तब तेनाली राम ने लुहार को बुलवा कर एक सुन्दर डंडा बनवाया। इस डंडे में बांस के ऊपर उचित स्थानों पर लोहा लगवा कर उसको ठीक लुहांगी बना दिया।
तेनालीराम ने वह लुहांगी उसको दे कर उसका नाम 'गुरू भाई' रखा और काम पड़ने पर उसको किस प्रकार काम में लाना चाहिए उस को बतला दिया और घर भेज दिया।
अपने पति को पांच मास बाद आया हुआ देखकर रमाबाई को बहुत हर्ष हुआ। उसने पांच मास तक के जूतों का हिसाब कर रखा था।
पति को हष्टपुष्ट देखकर वह मन में बहुत प्रसन्न हुई। यद्यपि वह बेचारा बहुत दूर से थका हारा आया था, परन्तु उसको इस बात से कोई मतलब नहीं था।
उसने आते ही उसको जूता मारने के स्थान पर बैठने की आज्ञा दी। बेचारा पति अपने डंडे को छिपाये हुए उस स्थान पर जा बैठा।
औरत ने जूता मारने के लिए ज्यों ही हाथ बढ़ाया, त्यों ही पति ने रमाबाई को ऐसे जोर से डंडा मारा कि उसका सिर फट गया।
डंडे के लगते ही वह चीखी, 'अरे रे, मार डाला!' और जमीन पर गिर पड़ी।
तब पति ने दूसरा डंडा मारा जिसके लगते ही वह और जोर से चिल्लाने लगी।
उसकी चिल्लाहट सुनकर अड़ोस-पड़ोस के आदमी इकट्ठे हो गये, और उसको मारने से रोका।
अपने पति का रौद्र रूप देखकर वह डर गई और उस दिन से उसकी आज्ञा मानने लगी।
जब लोगों ने यह बात सुनी कि तेनाली राम की युक्ति से विष्णु ने अपनी दुष्ट स्त्री से छुटकारा पाया है तो वे उसकी बुद्धी की प्रशंसा करने लगे और उन्होंने उस दिन से तेनाली राम से बैर रखना छोड़ दिया।
किसी ने सच कहा कि डंडे के आगे तो भूत भी भाग जाता है।
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