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Swami Vivekananda Biography in Hindi - स्वामी विवेकानंद की जीवनी


महापुरूष जीवनी

युगपर्वतक महापुरूष जन्म लेते हैं। उनका आविर्भाव समाज के हितार्थ होता है, वह समाज की रूढ़िवादी परम्परा का अनुसरण नहीं करते, अपितु समाज को बदल डालते हैं।

वीर संयासी, स्वामी विवेकानन्द ऐसे ही एक क्षण जन्मे ऐतिहासिक पुरूष थे जिन्होंने वर्तमान भारत की नींव डाली। प्राणहीन भारतीय समाज में प्राण फुके और भारत की प्राचीन वेदांतिक परम्परा को आधुनिक युगोपयोगी रूप प्रदान किया तथा अपने विशाल व्यक्तित्व एवं कर्म से पूरी दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ाया।


प्रारंभिक जीवन (Early Life)


विवेकानन्द जी को बचपन में प्यार से सभी नरेन कहते थे। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के (उनके पैतृक घर - 3 गौर मोहन मुखर्जी स्ट्रीट में) एक सुसंस्कृत एवं धनाढ़य परिवार में हुआ था। उनके पिता बहुत बड़े वकील थे, जिस कारण वह अत्यधिक व्यस्त रहते थे। उनकी माँ भक्ति पूर्ण जीवन यापन करती थी तथा विरता से भरे संस्कारों की जीती-जागती प्रतिमूर्ति थी। परिवार के ऐसे माहौल का नरेन्द्र पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। नरेन बचपन में बहुत नटखट तथा शरारती थे, जिससे कभी-कभी माता-पिता को उन्हें संभालने में मुश्किल होती। इस पर उनकी माता भुवनेश्वरी देवी (1841-1911) कहती - "मैं ने भोलेनाथ से एक बेटा मांगा था मगर लगता है उन्होंने उसके बदले एक भूत भेज दिया है!"

स्वामीजी का बचपन राजकुमारों जैसा था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और आगे चलकर उन्होंने उसका खूब विकास भी किया। उनके चेहरे पर हमेशा एक तेज होता था। घोड़े की सवारी, कुश्ती तथा तैराकी उनके प्रिय शौक थे। नृत्य कला में वे निपुण थे एवं बहुत ही कलात्मक नृत्य किया करते। उनकी संगीत में भी विशेष रूचि थी तथा बहुत ही सुरीला गाते थे। स्वामी जी ने लगभग 4 वर्षों तक विभिन्न आचार्यों के साथ मिलकर संगीत का अभ्यास किया था। उनके गायन से प्रभावित होकर ही गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उनको अपना शिष्य स्वीकार किया था।

शिक्षा (Education)

वर्ष 1871 में, 8 साल की उम्र में उनका नामांकन ईश्वर चन्द्र विद्यासागर स्कूल में हो गया, जहां वह 1877 तक पढ़े। उसके पश्चात उनका दाखिला कोलकाता के ही Presidency College में हो गया। उस कॉलेज की प्रवेस परीक्षा में first-division से पास होने वाले वे पहले छात्र थे।

विवेकानन्द जी एक जिज्ञासु और उत्सुक छात्र थे। जो काफी वृस्तृत विषयों जैसे - दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला, साहित्य आदि का अध्ययन किया करते थे। कॉलेज के दिनों में ही उन्होंने इन विषयों पर गहरी पकड़ बनाकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया था। वे हिन्दू धर्म-शास्त्रों जैसे - वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों को पढ़ा करते थे।

स्वामी जी ने कोलकाता के ही General Assembly's Institution से पश्चिमी तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र तथा यूरोपीय इतिहास का गहन अध्ययन किया। वर्ष 1881, में उन्होंने Fine Arts की परीक्षा उत्तीर्ण कि तथा वर्ष 1884 में Bachelor of Arts की डिग्री प्राप्त कर ली। जब वे पश्चिमी दर्शनशास्त्र को पढ़ रहे थे तभी उन्होंने संस्कृत की अनेक प्रसिद्ध रचनाओं और बंगला साहित्य को भी खुब पढ़ा।

William Hastie (जो General Assembly's Institution के प्रधानाध्यापक थे) ने एक बार कहा था -

"नरेन्द्र अपूर्व बुद्धि का विद्यार्थी है। मैंने पूरी दुनिया का भ्रमण किया है, परन्तु मैंने कभी इतना प्रतिभासंपन्न और संभावनाओं वाला लड़का नहीं देखा। यहां तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों में भी नहीं!"


स्वामी रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द (Guru Ramakrishna Paramhansa)


गुरु रामकृष्ण से स्वामी जी का पहला परिचय 18 वर्ष की आयु में हुआ था। उनके एक मित्र सुरेंद्रनाथ के यहां समारोह था और इसी समारोह में रामकृष्ण भी आये हुए थे। यही नरेन्द्र ने एक बहुत ही सुन्दर धार्मिक भजन गाया। रामकृष्ण की दिव्य दृष्टि ने स्वामी जी को देखा तथा अपना शिष्य बना लिया। उसके बाद वो विवेकानन्द को अपने साथ दक्षिणेश्वर लेकर आ गए।

कुछ वर्षों बाद विवेकानन्द पिता के अकास्मिक मृत्यु के कारण संकट में पड़ गए। घर में कोई कमाने वाला नहीं होने के कारण घर कि आर्थिक स्थिति बहुत खराब होने लगी। ऐसी विपदा से घिरने के बाद वे बहुत निराशा से घिरने लगे तथा संन्यास लेने का विचार करने लगे, परन्तु गुरू से विचार-विमर्श के पश्चात उन्होंने अपना निर्णय बदल लिया।

रामकृष्ण ने कहा - "मुझे मालूम है कि तुम इस दुनिया में नहीं रहना चाहते, परन्तु जब तक मेरी श्वास चल रही है तब तक संन्यास न लो। यही मेरी गुहार है।"

15 अगस्त, 1886 को गुरु रामकृष्ण ने देह त्याग दिया। गुरु के चले जाने के बाद, उन्होंने उनके द्वारा प्रदान की गई शिक्षाओं को मूर्त रूप देने का प्रयास आरम्भ किया। फिर क्या था, विवेकानन्द निकल पड़े भारत भ्रमण पर। इसी दरम्यान जब वे दक्षिण के राज्यों में यात्रा कर रहे थे तो उन्हें शिकागो में होने वाले धर्म सम्मेलन के विषय में पता चला और इस तरह 31 मई 1893 को वे करोड़ों भारतीयों का स्नेह लिये हुए बंबई से शिकागो के लिए रवाना हो गए।

शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन (Speech at Parliament of the World's Religions)

अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए स्वामी जी शिकागो सम्मेलन में पहुंच गए। इस सम्मेलन में उनकी बोलने की बारी अंत में आई वो भी मात्र 5 मिनट के लिए।

उन्होंने जैसे ही बोलना प्रारंभ किया, उनके पहले शब्द थे - "अमरीका के मेरे भाईयों और बहनों"। उनके इन्हीं शब्दों ने वहां बैठे हजारों श्रोताओं का दिल जीत लिया। उनके शब्दों ने जैसे लोगों के दिमाग पर जादू कर दिया था। लोग घंटों बैठे उनके भाषण सुनते रहे।

अगर आप भी उस प्रसिद्ध भाषण को पढ़ना चाहते है तो उसे आप यहां पर पढ़ सकते है।

यह अपरिचित हिन्दू युवक उस दिन उस महती धर्म सभा के सदस्यों का हृदय सम्राट बन गया। अन्य सभी धर्मों के प्रतिनिधियों की तुलना में स्वामी ती के व्याख्यान से सभी श्रोता अधिक आकृष्ट हुए। वे उत्सुक हो गए, भारतीय दर्शन की उस अमूल्य निधि 'वेदान्त-रत्नं' को प्राप्त करने के लिए।

17 दिन चले इस सम्मेलन में पूरे अमेरीका में विवेकानन्द ही छाए रहे। शिकागो में उन्हें 'तूफानी हिन्दू' कहा गया। स्वामीजी की इस सफलता ने भारत के लोगों में भी आत्मविश्वास भर दिया।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना (Foundation of Ramakrishna Mission)

विवेकानन्द ने 1 May, 1897 में कलकत्ता के पास बेलूर नामक गंगा-तटवर्ती ग्राम में रामकृष्ण मिशन का मुख्य केन्द्र स्थापित किया। उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा पाकर देश-विदेश के अनेक भक्तों ने आकर शिष्यत्व ग्रहण किया। उन दोनों द्वारा प्रदत्त धनराशि से एक ट्रस्ट की स्थापना हुई और धीरे-धीरे भारत के सभी प्रमुख नगरों में 'रामकृष्ण मिशन' के केन्द्र स्थापित हो गए। भारत के प्राचीन पंथी, कट्टरवादी वेदांत के पंडितों ने विवेकानन्द की कर्ममुखी साधना की समालोचना की।

विवेकानन्द के समालोचक, एक अध्यापक ने उनसे कहा था कि "दान और सेवा-व्रत भी 'मायिक' (माया से उत्पन्न) हैं और हमारा प्रयास होना चाहिए - 'मायातीत' स्थिति की उपलब्धि करना अर्थात मोक्ष ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए।" इस प्रश्न के उत्तर में स्वामी विवेकानन्द ने व्यंग्यात्मक शब्दों में कहा था कि "ऐसी स्थिती में तो मोक्ष, भी माया है। मोक्ष का प्रयास ही क्यों करें? वेदांत कहता है कि आत्मा नित्य-मुक्त है, तब मुक्ति किसकी होगी?"

वेदांत का आदर्श....

स्वामीजी के द्वारा भारतीय जनजीवन का जो पुनर्गठन हुआ। उसका आदर्श वेदांति है। उन्होंने वेदांत के महान तत्वों को केवल एकांत में चर्चा का विषय नहीं बनाए रखा। वह अरण्य और गुफा, कंदराओं का विषय न होकर हमारी कर्मभूमियों में अवतरित हो गया। सदियों से दासता की श्रृंखला से पीड़ित, इस आत्म विस्मृत जाति को उन्होंने झकझोर कर जगाया। विवेकानन्द की प्रेरणा से जाग्रत भारतवासियों को भविष्य में चलकर लोकमान्य तिलक व महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आन्दोलन का अमृतमय संदेश मिला। एक स्वप्नदृष्टा ऋषि की भांति स्वामीजी ने आज से अनेक वर्ष पूर्व ही उसकी घोषणा कर दी थी। उन्होंने कहा था कि अब समय आ रहा है, जब भारत सबका नेतृत्व करेगा।

पढ़े - कर्मयोगी स्वामी विवेकानन्द जी के जीवन की प्रेरक कहानियाँ

स्वामीजी का प्रत्येक भाषण नव्य भारत का उद्बोधन मंत्र था, विवेकानन्द ने ही हमारे अन्दर स्वदेश प्रेम का बीज अंकुरित किया। उन्होंने एकान्त में बैठकर श्रवण, मनन और निदिध्यासन का आदेश न देकर कहा कि किसी अदृश्य देवता की खोज में न भटक कर, अपने सामने उपस्थित विराट देशमातृका का 'वंदे मातरम' की ध्वनि से आह्मन करना चाहिए।

4 जुलाई 1902 को मात्र 39 वर्ष की अल्प आयु में ही उन्होंने अपना देह त्याग दिया। परन्तु जो महान कार्य वह कर गए वह एक महान कर्मयोगी ही कर सकता है, अन्य कोई नहीं। स्वामीजी वर्तमान भारत के अग्रदूत थे। उन्होंने त्याग और वैराग्य से पहले साधारण व्यक्ति के लिए 'कर्म' पर बल देना आवश्यक समझा। उस महान तापस-सम्राट, ज्ञान के ज्योतिपुंज स्वरूप, वीर साधक स्वामी विवेकानन्द को भावी भारत के निर्माता के रूप में कभी भी नहीं भूल सकता।

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