मानव सामाजिक प्राणी है। जीवन के आरंभ से अंत तक वह सदैव एकाकी जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है। बचपन में माता की गोद पहले उसका साथ देती है और धीरे-धीरे परिवार के सदस्य उसके साथ होते हैं। किशोर अवस्था में जब वह घर से बाहर निकलने लगता है तो उसे मित्र ही प्रिय लगते हैं। जीवन के यौवन में जब वैवाहिक जीवन में प्रवेश करता है तो उसकी सहचरी उसकी मित्र बनती है और पुनः उसकी संतति साथ जुड़ जाती है। परिवार के सदस्यों के साथ ही जब अन्य लोगों से साथ होता है, तो उनमें से कुछ लोग विशेष प्रिय होते हैं और उनसे मैत्री आरंभ हो जाती है। मित्र की प्राप्ति वस्तुतः जीवन को नया रूप देती है। जीवन को सुखमय प्रगतिशील बनाने में मित्र सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण साधन है।
मित्रता का अर्थ
मित्रता का साधारण शाब्दिक अर्थ है- वह प्रिय व्यक्ति जो हमारे सुख-दुख में हमारा साथ देता है। उसकी धारणा, उसका चिंतन हमारे हित के लिए होता है। यदि जीवन में दुख न हों, किसी प्रकार की विपत्तियों का सामना न करना पड़े और सभी सुख-साधन हों, तथापि मित्र का अभाव इनसे पूरा नहीं होता है। मैत्री के लिए दोनों व्यक्तियों का स्वभाव, गुण, आदत एक होना भी आवश्यक नहीं होता है। मित्र की सबसे बड़ी पहचान होती है कि वह हमारा शुभेच्छु, हितचिंतक होता है। मित्रता का अर्थ है- दो व्यक्तियों के बीच का वह पावन संबंध, जो स्वार्थ भावना से दूर होता है और जो सदैव एक-दूसरे के हित के लिए तत्पर रहते हैं। मित्र केवल सुख का ही साथी नहीं होता, वह केवल विपत्ति में सहायता करने वाला ही नहीं होता, मित्र केवल हमारे गुण-दोषों की ही परख करने वाला व्यक्ति नहीं होता है, अपितु वह जीवन में उत्साह और नई चेतना प्रदान करने वाला निष्पाप, निष्कपट व्यक्ति होता है, जो हृदय की गहराइयों से और भावना के पवित्र बंधन से हमारे साथ अटूट रूप से जुड़ा रहता है। तुलसीदास जी के शब्दों मेंः-
निज दुःख गिरिसम रज करि जाना। मित्रक दुःख-रज मेरू समाना।
अर्थात सच्चा मित्र अपने पहाड़ जैसे दुख को धूल के कण के समान समझता है, परंतु अपने मित्र के धूल के कण जैसे छोटे से भी दुख को पर्वत से भी बड़ा मानता है।
आदर्श मित्र के लक्षण
मित्रता वह नहीं होती है, जो स्वार्थ के आघातों से टूट कर बिखर जाती है। आदर्श मित्र तो स्वार्थ के क्षुद्र बंधनों से ऊपर होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मित्र के विषय में लिखा है-
''विश्वास-पात्र मित्र जीवन की औषधि है। सच्ची मित्रता में उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख होती है, अच्छी-से अच्छी माता-का-सा धैर्य और कोमलता होती है।''
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अर्थात् सच्चा मित्र एक अनुभवी वैद्य की भाँति हमारे दुर्गुण और बुराई रूपी बीमारी की भली-भाँति परख करता है तथा औषधि बनकर उनसे हमें बचाता है। उसका हृदय माँ के हृदय की भाँति हमारे प्रति संवेदनशील होता है, लेकिन अत्यंत धैर्य के साथ वह हमारे हित-अनहित को पहचान कर साथ देता है।
तुलसीदास जी के शब्दों में-
धीरज, धर्म, मित्र अरू नारी, आपत्तिकाल परखिए चारी।
अर्थात धैर्य, धर्म, मित्र तथा पत्नी की पहचान दुख के समय में होती है। सच्चा मित्र सभी प्रकार के दुख में साथ देता है। सुख के समय अथवा धन-संपत्ति पास होने पर अनेक मित्र बन जाते हैं, लेकिन आपत्ति संकट, परेशानियों में साथ देने वाला व्यक्ति ही सच्छा साथी होता है। रहीम के शब्दों में:-
कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
विपत्ति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत।।
मानव जीवन में मित्रता की बहुत ही उपयोगिता है, जिसके अभाव में जीवन नीरस और दुखमय बन जाता है। मित्रता मनुष्य के हृदय को जोड़ती है, प्राणों के तार मिलाती है। यही कारण है कि मित्रता की स्थिति में मनुष्य एक-दूसरे के सुख-दुख में उसका साथ देता है। बहुत-से ऐसे मित्र हुए हैं, जिन्होंने अपने मित्र के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए हैं।
मानव जीवन में मित्रता से अनेक लाभ होते हैं। मित्र के समान समाज में सुख और आनंद देने वाला दूसरा कोई नहीं है। दुख के दिनों में मित्र को देखते ही हृदय में शक्ति आ जाती है। अधीरता प्राणों के भीतर से भाग जाती है और निराश मन के अंदर आशा की ज्योति जलने लगती है। जिस प्रकार सत्य, धर्म, बुद्धि मनुष्य को पाप से बचाते हैं, उसी प्रकार सच्चा मित्र संकट के समय में अपने मित्र को उभारता है। मित्र एक मज़बूत ढाल के समान होता है, जो विपत्ति के समय में अपने मित्र की रक्षा के लिए सामने आकर डट जाता है। सच्चा मित्र
एक शिक्षक की भाँति होता है। जिस प्रकार शिक्षक अपने शिष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाता है, उसी प्रकार एक सच्चा मित्र अपने मित्र को पाप के गर्त से दूर ले जाता है। जब मनुष्य पर संकट आता है, तो उसकी बुद्धि भाव-शून्य हो जाती है। ऐसे समय में मित्र का उपदेश अधिक कल्याणकारी होता है। एक मित्र ही अपने मित्र को उन्नति की ओर ले जाने में सहायक होता है। मित्रता स्वयं विवेक, शक्ति और साधनों की जन्मदात्री है। मित्र जीवन का सबसे बड़ा अंग होता है।
जीवन के उत्थान-पतन, निमार्ण-संहार में मित्र (मित्रता पर निबंध) जिताना सहायक होता है, उतला दूसरा कोई नहीं होता। अतः मित्र बनाते समय बड़ी सतर्कता बरतनी चाहिए। आजकल लड़के-लड़कियाँ बिना सोचे-समझे मित्र बना लेते हैं। फलस्वरूप उन्हें लाभ के स्थान पर हानि का सामना करना पड़ता है। पाश्चात्य संस्कृति के विनाशकारी प्रभाव से आज हमारे समाज में चरित्रहीनता का विष फैल गया है। इसलिए आज मित्र के चुनाव में बड़ी सतर्कता बरतनी चाहिए। मित्र बनाने से पूर्व उसके आचरण पर अवश्य दृष्टि डाल लेनी चाहिए, जिससे बाद में पछताना न पड़े।
आदर्श मित्र अपने मित्र को पाप से दूर करता है, उसके गुणों को प्रकट करता है, कल्याणकारी कार्यों में अपने मित्र को लगाता है, आपत्ति में साथ देता है। हमारा देश आदर्श मित्रता के लिए विश्व में प्राचीन इतिहास में अपना अद्वितीय स्थान रखता है।
महान भारत के महापुरूष भगवान् श्री कृष्ण ने सुदामा जी के साथ जो आदर्श मित्रता स्थापित की थी, वैसा दृष्टांत अन्य किसी देश में नहीं मिलता है। श्री राम और सुग्रीव की मित्रता भी स्मरणीय है।
उपसंहार
जीवन फूलों से भरी सेज नहीं है, अपितु इसमें अनेक प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ता है। मनुष्य अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार अपना हित चाहता है, तथापि वह पूर्ण नहीं होता है। मित्रता उसकी अपूर्णता को पूर्ण करती है। मैत्री स्थापित करने में कभी भी शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। भली प्रकार से परख कर जब मित्रता हो जाती है, तो उसे छोटी-छोटी बातों पर बहस करके, तुनक-मिजाजी से मित्रता पर संदेह नहीं करना चाहिए। मित्र सदैव अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। वह हमारे दुर्गुणों को छिपाता है और गुणों को प्रकट करता है, कविवर तुलसी के शब्दों में-
कुपंथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुण प्रगटहि, अवगुणहि दुरावा।।