आप भविष्य में एक शिक्षक बनने की कल्पना करते हैं। आप अध्यापक क्यों बनना चाहते हैं? अध्यापक बनकर आप क्या-क्या करना चाहते हैं? विद्यार्थियों और पाठ्यक्रम के विषय में, परीक्षा पद्धती अनुशासन आदि के संबंध में आप क्या सोचते हैं? इसे रूप-रेखा मानकर एक निबंध लिखिए।
मनुष्य केवल यथार्थ की कड़वाहट से ही अपना अनुभव प्राप्त नहीं करता है, अपितु कल्पना के लोक में विचरण करता हुआ, मानव कभी दुखों से छुटकारा पाता है और कभी अपनी आशाओं के खिलते हुए फूलों को देखता है। यद्यपि मैं अभी एक विद्यार्थी हूँ, तथापि मैं अध्यापक बनने की लालसा अपने मन में रखता हूँ।
मैं अध्यापक क्यों बनना चाहता हूँ?
मेरे घर में शिक्षकों को विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। मेरे पिता के अध्यापक जब कभी हमारे घर आते तो मेरे पिता जी अति श्रद्धा से उनके चरणों का स्पर्श करते और उनके अध्यापक उनके शीश पर आशीर्वाद तथा प्यार भरा हाथ रखते थे। यह देखकर मैं भी श्रद्धा से उनके चरण छूता और वे मुझे प्यार करते। मेरे पिता जी अब प्रथम श्रेणी के न्यायाधीश हैं और उनके शिक्षक अब रिटायर हो गए है, तथापि मेरे पिता जी को अब भी प्यार से पुकारते हैं। इसके साथ मेरे माता-पिता जी ने भी मुझे यही संस्कार दिए हैं। मेरे अध्यापक मुझे सदैव ''गॉड ब्लेस यू'' का आशीष देते हैं तो मैं सचमुच हर्षित होता हूँ। हमारी संस्कृति की पुस्तकों में तथा कवियों की रचनाओं में गुरू को माता-पिता तथा ईश्वर से भी अधिक सम्मान दिया गया है। कबीरदास जी ने तो गुरू को ईश्वर से बड़ा बताकर कहा है कि यदि गुरू और ईश्वर दोनों खड़े हों तो मैं पहले ईश्वर के नहीं, गुरू के चरणों का ही स्पर्श करूँगा, क्योंकि गुरू ने ही मुझे ईश्वर की पहचान कराई है। आधुनिक युग में
विद्यार्थी और समाज भी गुरू को इतना आदर नहीं देते हैं। वे भूल जाते हैं कि गुरू के बिना उनके बच्चों को शिक्षा कौन देगा ? फिर क्या सभी शिक्षक एक जैसे होते हैं। आज भी तो ऐसे आदर्श अध्यापक हैं, जो अपने विद्यार्थियों से बहुत प्यार करते हैं और उन्हें जीवन का सत्य समझाते हैं, उन्हें आदर्श मार्ग पर चलने, प्रगति करने तथा अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं।
शिक्षक बनकर मैं बच्चों के साथ सदैव मानवीय व्यवहार करूँगा। मैं जानता हूँ कि आज-कल बच्चे कई बातों को जल्दी नहीं समझते हैं, अतः मैं क्रोध न करके उन्हें कई बार समझाने का प्रयास करूँगा। सबसे पहले तो मैं उन्हें पढ़ाई के प्रति प्रेरित करूँगा। यह सबसे बड़ी समस्या है कि अध्यापक कक्षा में आते तो हैं, पढ़ाते भी हैं लेकिन बालकों की मानसिक स्थिति और अन्य परिस्थितियों को मद्देनज़र न रखकर, वे सभी को एक जैसा समझने की भूल कर लेते हैं। विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम के संबंध में मैं अधिकारियों को अवश्य लिखूँगा कि इस बोझिल पद्धती से बच्चों को मुक्त करें। आरंभिक कक्षाओं में तो केवल भाषा का ही ज्ञान करवाएँ और वह भी अत्यंत रोचक विधि के द्वारा। विद्यार्थियों से मैं सबसे बड़ी उम्मीद यह रखूँगा कि वे विद्या को केवल नौकरी प्राप्त करने का साधन समझने की भूल न करें, अपितु इससे आत्मा और मस्तिष्क का विकास करने का प्रयास करें। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति जीवन, समाज और विश्व की परिस्थितियों को समझता है, पहचानता है और उनके अनुसार जीवन व्यतीत करने की सोचता है। अतः जीवन का सही अर्थ समझ क रवह जीवन को बोझ नहीं मानता है।
आदर्श शिक्षक बनकर मैं क्या परिवर्तन चाहूँगा?
शिक्षक और विद्यार्थी वर्ग के मध्य में आज जो दूरी बन गई है, उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अध्यापक उससे केवल अपने विषय से संबंधित प्रश्नों की बात करता है। यदि विद्यार्थी से उसकी स्थिति, माता-पिता, परिवार आदि के संदर्भ में भी जानकारी प्राप्त कर उसके दुख में सहानुभूति पूर्ण व्यवहार किया जाए तो निश्चय ही विद्यार्थी का हृदय ऐसे अध्यापक के प्रति विनम्रता और आदर से भर जाता है। मैं इन्हीं बातों को अनुभव करता हूँ। विद्यार्थी आपस में जब मिलकर बातें करते हैं तो ऐसे अध्यापक की प्रशंसा करते हैं। घर में भी माता-पिता से अच्छे और बुरे दोनों अध्यापकों की चर्चा करते हैं।
अनुशासन का जीवन में सबसे बड़ा महत्व है। आज के भौतिकतावादी युग में इन तथ्यों को महत्व नहीं दिया जाता है। लेकिन यह जीवन के सत्य से जुड़े हुए मूल्य हैं। मैं अपने विद्यार्थियों में अनुशासन की भावना को विकसित करने का अथक प्रयास करूँगा। यथा, ठीक समय पर ठीक वस्त्र पहन कर काम करके तथा पाठ याद कर स्कूल में आना। स्कूल में शिक्षक तथा विद्यार्थी वर्ग के साथ उचित व्यवहार, घर जाकर भी गृह कार्य और अध्ययन के प्रति उत्तरदायित्व को समझना। माता-पिता और परिवार के सदस्यों के साथ, पड़ोस और मित्रों के साथ, अजनबी लोगों के साथ, दीन दुखियों के प्रति कर्तव्य जैसे गुण विद्यार्थियों में अवश्य विकसित करवाऊँगा। समय का मूल्य समझना और अध्ययन के प्रति निरंतर जागरूक रहना तो पहले स्थान पर आते हैं। इनके महत्व को समझे बिना तो शिक्षा ग्रहण करना कदापि संभव हो ही नहीं सकता है। परीक्षा में नकल के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना आज अत्यंत आवश्यक है। इससे विद्यार्थी अपने पाँव पर अपने आप ही कुल्हाड़ी मारने हैं। विद्यार्थियों में खेल-कूद के अतिरिक्त, भाषण एवं वाद-विवाद प्रतियोगिता, लेख एवं निबंध, कला एवं विज्ञान शरीर एवं स्वास्थ्य रक्षा आदि के प्रति रूचि उत्पन्न कराना भी मैं अपना कर्तव्य मानूँगा।
उपसंहार
शिक्षक तो विद्यार्थी के लिए पिता, भाई और मित्र के समान होता है। अतः मित्र जैसे व्यवहार से उसे जीतना, भाई जैसे व्यवहार से उसे प्यार करना तथा पिता जैसे व्यवहार से उसे विकसित होने देना और अध्यापकीय रूप से उसे शिक्षा एवं दिशा देना ही मैं अध्यापक के रूप में अपनी सफलता मानूँगा।