किसी राष्ट्र के भावी निर्माता उसके बच्चे और किशोर बनते हैं। ये राष्ट्र की आशा के प्रतीक हैं। ये देश के भविष्य का भव्य भवन तभी बन पाएँगे, जब इनकी नींव गहरी और सुदृढ़ होगी।
विशाल प्रासाद, गगन चुंबी अट्टालिकाएँ तथा भव्य भवन जितने मनमोहक तथा आकर्षक होते हैं, उतनी ही उनकी नींव गहरी होती है। रेत का महल गिर जाता है। मानव तभी भव्य प्रासाद के समान निर्मित हो सकता है, यदि विद्यार्थी जीवन की नींव दृढ़ होगी। माली अपने कठोर परिश्रम से उपवन को सुंदर फूलों से सजाता है और मनुष्य सुंदर गुणों को अर्जित कर जीवन को सुखमय बनाता है। ये गुण विद्यार्थी जीवन में ही प्राप्त किए जा सकते हैं।
विद्यार्थी तथा अनुशासन का अर्थ
विद्यार्थी शब्द विद्या+अर्थी इन शब्दों के योग से बना है। जिसका अर्थ है- विद्या पाने वाला व्यक्ति, विद्या का अभिलाषी, ज्ञानार्जन की आकांक्षा रखने वाले बालक का विद्यार्थी जीवन ही उत्तम तथा आदर्श है।
हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों ने जीवन को चार अवस्थाओं में बाँटा है। इनमें से प्रथम विद्या प्राप्त करने की अवस्था है, जिसे हम विद्यार्थी जीवन कहते हैं। पढ़ना-लिखना, कला-कौशल सीखना, युद्ध विद्या में निपुण होना, ज्ञान प्राप्त करना, अच्छे संस्कार अपनाना, इसी आयु में पूरी तरह संभव होता है, क्योंकि बाल, किशोर और युवा अवस्था में बुद्धि तीव्र, मन निर्मल, मस्तिष्क साफ एवं बलवान और शरीर स्वस्थ है। विद्यार्थी जीवन मुख्यतया पाँच वर्ष से लेकर पच्चीस वर्ष तक होता है।
अनुशासन का महत्व और अनुशासनहीनता के दुष्परिणाम
अनुशासन शब्द शासन शब्द के साथ 'अनु' उपसर्ग जोड़ने से बना है, जिसका अर्थ है- एक विशेष शासन पद्धति के अनुसार चलना अथवा किसी कार्य के लिए निर्धारित नियमों का पालन करना। क्योंकि विद्यार्थी अपने विद्यालय में विद्या ग्रहण करता है। अतः इन्हीं संस्थाओं के बनाए हुए नियमों का पालन करना ही अनुशासन कहलाता है। अनुशान के दो रूप होते हैं - आरोपित अनुशासन तथा आत्मिक अनुशान। आरोपित अनुशासन संस्था द्वारा निर्धारित होता है और इसमें अनुशासनहीनता के लिए दंड विधान होता है। आत्मिक अनुशासन से बुद्धी और विवेक, चरित्र और संस्कार उपजाता है, जिसमें आत्मा की पीड़ा का दंड-विधान होता है। आरोपित अनुशासन का प्रभाव अल्पकालिक होता है, लेकिन आत्मिक अनुशासन दूरगामी और स्थायी होता है।
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सृष्टि का क्रम भी एक निश्चित अनुशासन में बँधा होता है, जैसे सूर्य का उदित और अस्त होना, ऋतु-चक्रों में परिवर्तन होना आदि। यह क्रम जब भी भंग होता है, तब ही अव्यवस्था, अशांति और दुख उत्पन्न होते हैं। मानव शरीर और इसके अंग अनुशासन बद्ध होकर ही कार्य करते हैं। हमारे हृदय का निरंतर स्पंदन करना अनुशासन है, जिसके भंग होने का अर्थ मृत्यु है। विद्यार्थी जीवन का लक्ष्य केवल विद्या अर्जन करना है, अतः इसमें चित्त-वृत्ति को स्थिर और शांत रखकर ही अध्ययन किया जा सकता है। इस संदर्भ में संस्कृत के इस श्लोक से उसकी गतिविधियाँ समझी जा सकती हैं:
काक चेष्टा वको ध्यानम्, श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी, गृह त्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणम्।।
अर्थात् विद्यार्थी को कौवे के समान गतिविधी वाला, बगुले के समान ध्यान वाला, कुत्ते के सामान नींद वाला, कम भोजन करने और घर त्यागने वाला होना चाहिए। विद्यार्थी के ये लक्षण केवल इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं, कि इस अवसथा में वह पूर्ण समर्पण के साथ अध्ययन करे।
इन गुणों को अपनाने का अर्थ है, अनुशासनबद्ध रहकर अध्ययन करना। विद्यार्थी जीवन में अनुशान के बिना सफल-जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जब विद्यार्थी आत्मानुशान में रहता है तो अपने गुरूजनों के प्रति श्रद्धा का भाव रखकर उनके पास से अधिक ज्ञान अर्जित करने की ओर तत्पर होता है। ऐसा विद्यार्थी अन्य प्रकार के सांसारिक आकर्षणों और भटकनों से अपने आपको अलग रहता है और अपना मूल्यवान समय व्यर्थ नहीं गँवाता है। अपने सहपाठियों के साथ भी उसका व्यवहार अनुशासित रहता है। प्रेमपूर्ण व्यवहार, मैत्री-भावना से उसमें सहयोग की प्रवृत्ति आती है। छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने से, अपनी बुद्धी और वैभव के प्रदर्शन की भावना से या दादागिरी, उद्दंडता जैसे अशोभनीय कार्यों से वह अलग रहता है और व्यर्थ के मानसिक क्लेश से पीड़ित नहीं होता है। उसका सस्तिष्क लड़ाई-झगड़ों से दूर रहकर, शांत-भाव और स्थिर बुद्धी से अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्ति में संलग्न रहता है। स्पष्ट है कि अनुशासन की भावना विद्यार्थी के लिए उसके ज्ञानार्जन में सहायक और लाभदायक सिद्ध होती है।
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अनुशासनहीनता जीवन को पतन की ओर ले जाती है। अनुशासनहीन विद्यार्थियों को शिक्षक कभी प्यार और सहयोग नहीं देते हैं तथा विद्यालय में भी वे सबके द्वारा घृणा की दृष्टि से देखे जाते हैं। गुरूओं के प्रति अश्रद्धा रखकर वह कुमार्ग गामी बनते हैं, अनेक प्रकार के दुर्व्यसन अपनाते हैं, लौकिक आकर्षणों में फँसकर जीवन की महत्वपूर्ण अवस्था में ही टूट जाता है। अतः उसका जीवन समाज के लिए बोझ और अभिशाप बन जाता है। वर्तमान युग में इस प्रकार की स्थिति देखी जाती है और यही कारण है कि आज का विद्यार्थी विध्वंसक बन तोड़-फोड़ करता है, हड़ताल और पदर्शनों में भाग लेता है। जीवन में भी वह सफल नागरिक नहीं बनता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में विद्यार्थियों ने स्वतंत्रता शब्द का प्रयोग अनुचित रूप में किया है। आज स्कूल और कॉलेजों में पढ़ने वाले वद्यिार्थी स्वयं ही अपने विद्यालय के भवन को आग लगाते हैं और तोड़-फोड़ करते हैं। विद्यार्थी को इस विखंडन के मार्ग की ओर कभी भी बढ़ना नहीं चाहिए।
उपसंहार
राष्ट्र की प्रगति और विकास के लिए सभी नागरिकों को अनुशासित होना चाहिए। अनुशासन केवल विद्यार्थी के लिए ही अनिवार्य नहीं होता, अपितु प्रत्येक मानव और प्रत्येक प्राणी के लिए यह आवश्यक है। इससे समाज में शांति बनी रहती है, न्याय-व्यवस्था दृढ़ होती है और समाज समृद्धि की ओर अग्रसर होता है। विद्यार्थी जीवन क्योंकि भविष्य निर्माण की आधार-शिला होता है, अतः अनुशासन के माध्यम से जीवन को व्यवस्थित कर विद्यार्थियों को उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ना चाहिए।
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