धरती पर कुछ महान लोग ऐसे होते हैं, जो पूरे संसार में एक उदाहरण बन जाते हैं। न जाने कितने दशक गुजर जाते हैं, लेकिन ऐसे महान लोगों के जीवन की कहानियाँ और उनके प्रेरणादायी विचार हर दिन सूर्य के प्रकाश की तरह सारे विश्व में चमकते रहते हैं। महात्मा गांधी एक ऐसे ही महान व्यक्तित्व थे। यहां गांधी जी के जीवन से जुड़े कुछ
छोटे-छोटे प्रसंग दिये जा रहे हैं। उनके जीवन की ऐसी अनेक घटनाएं और प्रसंग हैं, जो नवजवानों के साथ-साथ बड़ों को भी शिक्षा देते हैं। इन्हें जरूर पढ़े।
पहला प्रसंग: फूल से भी कोमल
सन् 1930 में दांडी कूच से 1-2 माह पहले साबरमती आश्रम में चेचक का रोग फूट पड़ा था। आश्रम के सभी लोगों को अच्छे से मालूम था कि गांधी जी चेचक का टीका लगवाने के विरूद्ध हैं। इस कारण आश्रम में रहने वाले अभिभावकों ने अपने बच्चों को चेचक का टीका नहीं लगवाया था। आश्रम के कुछ बच्चे चेचक से पीड़ित हो गये थे। महात्मा गांधी ने अपनी तरफ से पूरी सावधानी रखी थी और रोगियों को संभालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। चिकित्सकों ने भी इस संबंध में उनके उपायों को उचित बताया था। लेकिन फिर एक के बाद एक आश्रम के तीन बच्चे इस भयानक रोग से मृत्यु के गाल में समा गये।
आश्रम में सबसे पहले एक 9 साल की लड़की की मौत हुई। इससे महात्मा गांधी के दिल को सदमा पहुंचा। दुख से रात भर वे जागते रहे। मध्य रात्रि में वे उठे और एक लालटेन जलाकर अपने बिस्तर पर बैठ कर कुछ लिखने लगे।
उसी वक्त आश्रम की एक बहन भी नींद से ऊठी। मध्य रात्रि में महात्मा गांधी को बिस्तर पर बैठकर लिखते देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। वे गांधी जी के समीप जाकर बोली: 'बापू, इस समय क्या लिख रहे हो? क्या कोई महत्वपूर्ण कार्य याद आ गया है? मेरे लिए कोई कार्य हो तो जरूर बताये। मैं अभी आपकी मदद करने को तैयार हूं।'
गांधी जी (उस बहन की तरफ बिना देखे ही) : 'नहीं, तुम अभी जा कर आराम से सो जाओ। मैं स्वयं ही यह कार्य अभी पूरा कर लूंगा।'
इसके कुछ दिन बाद आश्रम में जब संध्या प्रार्थना चल रही थी तब एक और बच्चा चेचक से मर गया। उस रात पुनः फिर गांधी जी नहीं सोए। पूर्व के जैसे फिर रात को उठे और बैठकर कुछ लिखने लगे।
दो-तीन दिन बाद फिर एक बच्चा भगवान के घर चला गया। लगातार होने वाली बच्चों की मौत से महात्मा गांधी चिन्ता में डूब गये। उस दिन भी गांधी जी मध्य रात्रि में कुछ लिखने के लिए बैठ गये। आश्रम की बहन महात्मा गांधी जी के रात्रि जागरण और दुःख से भली-भांति परिचित थी। उनसे ये सब देखा नहीं गया, इसलिए वे भी आधी रात को गांधी जी के सामने जाकर खड़ी हो गयी। उन्होंने धीरे से गांधी जी से पूछाः 'बापू, आपको क्या हो जाता है? आश्रम के हर बच्चे की मृत्यु होने पर आप आधी रात को जाग कर लिखने में डूब हो जाते हैं।'
गांधी जी थोड़ी आह भरकर बोले : 'और भी मैं क्या कर सकता हूं? मैं रात में आराम से सो नहीं सकता। फूल की कोमल कलियों जैसे छोटे-छोटे बच्चे असमय काल के गाल में समा जा रहे हैं। मैं उनकी मृत्यु को चुपचाप देखता रहता हूं; उन्हें बचा नहीं पाता। उनकी मृत्यु का बोझ अब मेरे मन पर पड़ने लगा है। चेचक का टीका न लगवाने की मेरी सलाह आश्रम के बच्चों के अभिभावकों ने मानी और उन्हें उसका टीका नहीं लगवाया। परन्तु अब एक के बाद एक बच्चे इस तरह हमें छोड़ कर जा रहे है। यह सोचकर कर ही मेरा मन बेचैन हो रहा है कि कहीं ये सब मेरी अज्ञानता और झक्कीपन का नतीजा तो नहीं है।'
वह बहन बोली: 'ये बात क्या मैं एक महात्मा के मुंह से सुन रही हूं? आपने इस बीमारी का उचित निदान किया है और इससे आश्रम के बच्चों को बचाने के लिए आप ठीक इलाज कर रहे हैं। फिर इतनी चिंता किस बात की? इसके बाद भी अगर मृत्यु को आना ही है, तो इस संसार में उसे कौन रोक सकता है? मौत मनुष्य जाति का शाश्वत मित्र है। यह व्यवहार आप जैसे महात्मा को शोभा नहीं देता। आपका हृदय इतना कमजोर कैसे हो गया?'
गांधी जी बोले: 'हां, मैं अपनी दुर्बलता स्वीकार करता हूं।' इतना बोलकर वे कुछ समय के लिए चुप रहे।
दुःख और मायूसी से भरी हुई आंखों से इधर-उधर देखकर फिर बोलने लगे :
'देश के लोग मुझे महात्मा कहते हैं। लेकिन एक महात्मा के पास भी भावनाएं होती हैं, दिल होता है। आदमी चाहे कितना भी साहसी और निर्लिप्त हो, फिर भी क्या उसका हृदय कोमल नहीं हो सकता?'
गांधी जी के इन बातों पर वे बहन कुछ कह न सकीं। फूल से भी कोमल हृदय वाले महात्मा की बातें सुन रही थी।
अगले दिन आश्रम के लोगों के सामने अपनी पीड़ा और व्यथा प्रगट करके महात्मा गांधी ने अपने हृदय का बोझ हल्का किया। अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया: 'मेरा स्वयं टीकाकरण में जरा भी विश्वास नहीं है। इसकी वजह से मौत भी आ जाये, तो भी मैं पूरी तरह तैयार हूं। लेकिन मैं अब खुद की राय आश्रम के सारे लोगों पर बिल्कुल लादना नहीं चाहता। जो अभिभावक अपने बच्चों का टीकाकरण करवाना चाहते हैं वे करवा सकते हैं।'
लेकिन वह प्रेम की लोकशाही कुछ ऐसी थी कि आश्रम के किसी भी व्यक्ति ने गांधी जी के इस छुट का लाभ नहीं उठाया। और इसके पश्चात भगवान ने भी किसी भी आश्रमवासी की परीक्षा नहीं ली। फिर कभी आश्रम में चेचक रोग से किसी बच्चे की मौत नहीं हुई।
गांधी जी का दूसरा प्रसंग
हरिजन-प्रवास के समय एक बार गांधी जी का रुमाल काम की भीड़ में पिछले पड़ाव पर छूट गया। शायद किसी ने धोकर सुखा दिया था। चलते समय उसे उठाना भूल गया। गांधी जी को उसकी जरूरत पड़ी तो उन्होंने महादेव भाई को कहा, 'मेरा रुमाल लाओ!'
महादेव भाई ने कहा, 'अभी लाता हूं।'
लेकिन लाये तो तब जब कहीं हो! बहुत खोजा पर नहीं मिला। आखिर गांधी जी को इस बात की सूचना दी गयी। सुनकर कुछ क्षण वे मौन बैठे रहे, फिर पूछा, 'वह रुमाल कितने दिन और चल सकता था?'
महादेव भाई ने कहा, 'चार महीने तो चल ही जाती।' गांधी जी बोले, 'तो फिर मैं चार महीने बिना रुमाल के ही चलाऊँगा। जो भूल हो गयी है, उसका यही प्रायश्चित हो सकता है। इसके बाद ही दूसरा रुमाल लेंगे।'
तीसरा प्रसंग: बाल-प्रेम
महात्मा गांधी बच्चों से बेहद प्यार करते थे। वे उन्हें पत्र लिखा करते थे। एक बार उन्हें एक बैठक में जाना था। सभी नेता पहुँच चुके थे, लेकिन गांधी जी नहीं आए। नेता चिंतित हो उठे। गांधी जी तो समय के पक्के हैं-क्यों नहीं आए, कहीं बीमार तो नहीं पड़ गए। कुछ लोग दौड़ते हुए गांधीजी के पास पहुँचे। देखते हैं कि वे एक पुराने बक्से में हाथ डाले कुछ खोज रहे हैं। एक नेता ने कहा - बापू! हम तो घबरा गए थे, लेकिन आप यहाँ अभी क्या कर रहे हैं? गांधी जी ने कहा, ''अभी कुछ दिन पूर्व दक्षिण भारत के एक अछूत बच्चे ने बड़े प्रेम से मुझे अपनी पेंसिल दी थी, वही खोज रहा हूँ, उसी से आज लिखूँगा।'' नेता चकित हो गए।
चौथा प्रसंग: सत्य का पालन
महात्मा गांधी के बाल्य जीवन की एक घटना है। कक्षा में स्कूल इंस्पेक्टर जाँच के लिए आए। शिक्षक अंग्रेजी पढ़ा रहे थे। इंस्पेक्टर सभी छात्रों से एक-एक कर पूछते। मोहनदास से उन्होंने 'केटल' शब्द का हिज्जे लिखने को कहा। शिक्षक इशारा कर रहे थे, लेकिन इन्होंने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इन्हें शिक्षक के इंगित पर लिखना असत्य का आचरण लगा। उन्हें जो आता था वही लिख दिया, जो गलत था। इंस्पेक्टर के जाने के बाद शिक्षक ने उन्हें डाँट लगाई, लेकिन इन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ा। इन्हें शिक्षक का झूठा व्यवहार अच्छा नहीं लगा।