राम प्रसाद बिस्मिल से जूड़ा एक प्रेरक प्रसंग:
फाँसी के मात्र दो दिन पूर्व की बात है। राम प्रसाद बिस्मिल की माँ अपने लाड़ले के अन्तिम दर्शन के लिए जेल आयी हैं। सहसा माँ को देखकर बिस्मिल की आँखों में आँसू आ गए। मानस में अतीत की अनेक सुखद स्मृतियाँ साकार होने लगीं। फिर पुत्र की आँखों में झर-झर आँसू टपक पड़े। माँ ने देखा और बोल उठी - "मैं तो समझती थी, तुमने अपने पर विजय पायी है, किन्तु यहाँ तो तुम्हारी कुछ और ही दशा है। जीवन-पर्यन्त देश के लिए आँसू बहाकर अब अन्तिम समय तुम मेरे लिए रोने बैठे हो? इस कायरता से अब क्या होगा? तुम्हें वीर की भांति हँसते हुए प्राण देते देखकर मैं अपने आप को धन्य समझूँगी। मुझे गर्व है कि इस गए-बीते जमाने में मेरा पुत्र देश के लिए स्वयं को बलिवेदी पर न्यौछावर कर रहा है। मेरा काम तुम्हें पालकर बड़ा करना था, उसके बाद तुम देश की चीज थे और उसी के काम आ गए। मुझे तनिक भी दुःख नहीं।"
अपने आँसुओं पर अंकुश लगाते हुए बिस्मिल ने कहा- "माँ! तुम तो मेरे दिल को भली-भाँति जानती हो। मुझे अपनी मृत्यु पर तनिक भी दुःख नहीं है। आपको मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं अपनी मृत्यु पर बहुत सन्तुष्ट हूं और फाँसी के तख्ते की ओर जाते हुए उन्होंने यह शब्द कहे-
''मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।
बकी न मैं रहुँ न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान, रंगों में लहू रहे।
तेरा ही जिक्र या तेरी जुस्तजू रहे।।"
फिर-'वंदे मातरम्, भारत माता की जय'
के बाद -
'विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परसुव यदभद्रं तं न असुव' का उच्चारण करते-करते फाँसी पर झूल गए।
प्रेरक प्रसंग - शहीद भगत सिंह
भगतसिंह को फाँसी की सजा हुई है। फाँसी से एकदिन पहले प्राणनाथ मेहता ने उन्हें एक पुस्तक दी 'लेनिन की जीवनी'। पुस्तक पढ़ने में वे इस तरह तल्लीन हो गए कि सुधि नहीं रही कि उन्हें आज फाँसी लगनी है। जल्लाद उन्हें लेने जेल की कोठरी में आ गए। अभी एक पृष्ठ पढ़ना शेष रह गया था। उनकी दृष्टि पुस्तक के उसी आखिरी पृष्ठ पर थी कि जल्लाद ने चलने को कहा। भगतसिंह हाथ उठाकर बाले,
'ठहरो, एक बड़े क्रान्किारी की दूसरी बड़े क्रान्किारी से मुलकात हो रही है।' जल्लाद वहीं ठिठक गए। भगतसिंह ने पुस्तक समाप्त की, उसे सोल्लास छत की ओर उछाला फिर दोनों हाथों से थामकर फर्श पर रखा और कहा, चलो' और वे मसत भरे कदमों से फाँसी के तख्त की ओर बढ़ने लगे। उनके दृढ़ कदमों को जल्लाद निहारते रहे।
23 मार्च, 1931 की संध्या। सात बज रहे हैं। फाँसी के तख्त की ओर तीन नवयुवक बढ़ रहे हैं। फाँसी की काली वर्दी पहना दी गयी है। बीच में भगतसिंह चल रहे हैं, सुखदेव उनकी बायीं ओर और राजगुरू दायीं ओर चल रहे हैं। भगतसिंह ने अपनी दाई भुजा राजगुरू की बाई भुजा में तथा बाई भुजा सुखदेव की दाई भुजा में डाल दी। तीनों ने नारे लगाए-इन्कलाब जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद। फिर गीत गाए-
'दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उलफत
मेरी मिट्टी से भी खुश्बू-ए-वतन आएगी।'
और देखते-देखते फाँसी पर झूल गए।
प्रेरक प्रसंग - वीर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद
यह प्रसंग उस समय का है जब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए संघर्षरत थे और अंग्रेजी शासन गिरफ्तार करने के लिए उनके पीछे लगा था।
एक भारी वर्षा वाली रात को अंग्रेजों से बचने के लिए चंद्रशेखकर आज़ाद ने एक अनजान घर का दरवाजा खटखटाया और बस एक रात के लिए शरण देने का आग्रह किया। उस घर में एक वृद्ध विधवा महिला अपनी बेटी के साथ रहती थी। शरीर से मजबूत हट्टे-कट्टे आज़ाद को चोर-डकैत जानकर पहले तो वृद्ध महिला ने उन्हें आश्रय देने से मना कर दिया परन्तु जब उन्होंने अपना पूरा परिचय उसे बताया तो महिला ने सम्मान के साथ घर में ठहरने की इजाजत दे दी।
थोड़ी देर बातचीत के बाद चंद्रशेखर आज़ाद को एहसास हुआ कि पैसे की तंगी के कारण इस बूढ़ी माँ की बेटी का विवाह नहीं हो पा रहा है। आज़ाद ने वृद्ध महिला से कहा - "मेरे सिर पर अंग्रेजी सरकार ने 5000 रुपए का इनाम रखा है, आप पुलिस तक मेरे यहां होने की सूचना पहुंचा कर 5000 रुपए का इनाम प्राप्त कर सकती है, इससे आपकी बेटी का रुका हुआ विवाह भी हो जायेगा।"
आज़ाद की यह बात सुनकर वृद्ध महिला के आँखों में आँसू आ गए और उसने आज़ाद से कहा - "भैया! तुम इस देश को गुलामी से मुक्त कराने के लिए अपना जीवन दाव पर लगाये फिरते हो और न जाने मेरी बेटी जैसी कितनी लड़कियों की आबरू तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा विश्वासघात से भरा कार्य कभी नहीं करूंगी।" ऐसा कहते हुए वृद्ध महिला ने आज़ाद के एक हाथ में रक्षा-सूत्र बांधकर मरते दम तक इस देश की सेवा का वचन लिया।
जब सुबह वृद्ध महिला उठी तब तक आज़ाद घर छोड़ चुके थे और उन्होंने उसके तकिये के समीप 5000 रुपये एक कागज में लपेटकर रख दिये थे। जब महिला ने कागज से रुपये निकाले, तब उसने देखा कि उस कागज के अंदर लिखा था - अपनी प्यारी बहन की शादी के लिए एक छोटी सी भेंट- आज़ाद।
चंद्रशेखर आज़ाद के जीवन से जुड़ा एक और प्रसंग -
यह घटना उन दिनों की है जब चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव और बटुकेश्वर दत्त अंग्रेजों के विरुद्ध किसी योजना पर कार्य करने के लिए एक साथ इलाहाबाद में रह रहे थे। एक दिन की बात है, सुखदेव बाजार से एक कैलेंडर लेकर आये, जिस पर एक खूबसूरत अदाकारा की मनमोहक तस्वीर छपी हुई थी। सुखदेव को यह कैलेंडर पसंद आया और उन्होंने उसे कमरे के अंदर की दीवार पर टांग दिया और फिर किसी कार्य के लिए बाहर चले गये।
सुखदेव के जाने के पश्चात आज़ाद जी वहां पहुंचे और ज्यों ही उनकी नजर दीवार पर टंगे कैलेंडर पर गई त्यों ही उनकी भौहें तन गई। आज़ाद के क्रोध को देखकर अन्य क्रांतिकारी साथी थोड़ा डर गये; क्योंकि वे सभी आज़ाद जी के स्वभाव से अवगत थे। आज़ाद जी ने किसी से कुछ नहीं कहा लेकिन दीवार पर लगे कैलेंडर को तुरंत नीचे उतारा एवं फाड़कर फेंक दिया।
कुछ समय के पश्चात सुखदेव लौट आये। जब उनकी नजर दीवार पर गई, तो वहां कैलेंडर को टंगा न देख कर उसे वे इधर-उधर खोजने लगे। थोड़ी ही देर बाद जब उनकी नजर कैलेंडर के बचे हुये टुकड़ों पर पड़ी तब वे भी गुस्से से लाल-पीले हो गये। सुखदेव भी गरम स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने गुस्से में सबसे पूछा की उनके कैलेंडर यह हाल किसने किया है?
आज़ाद जी ने कहा - "हमने किया है।"
सुखदेव थोड़ा हिचकिचाये लेकिन आज़ाद जी का सम्मान करते थे, इसलिए उनके सामने क्या बोलते सो धीरे से बोले कि तस्वीर तो अच्छी थी।
आज़ाद जी ने कहा - "यहां ऐसी ध्यान भटकाने वाली तस्वीर का क्या काम?"
उन्होंने आगे सुखदेव को समझा दिया कि हम जिस कार्य में लगे हुये है, ऐसी कोई भी तस्वीर या वस्तु हमारे इस कार्य से ध्यान भटका सकती है।
प्रसंग-1
अपनी आत्मकथा में राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने एक घटना का वर्णन अपनी फाँसी के दो दिन पूर्व किया - 'मुझे कोतवाली लाया गया। चाहता तो गिरफ्तार नहीं होता। कोतवाली के दफ्तर में निगरानी में रखा सिपाही सो रहा था। मुंशी जी से पूछा- भावी आपति के लिए तैयार हो जाऊँ? मुंशी जी पैरों पड़ गए कि गिरफ्तार हो जाऊंगा, बाल-बच्चे भूखे मर जाएंगे। मुझे दया आ गयी। नहीं भागा।'
रात में शौचालय में प्रवेश कर गया था। इसके पूर्व बाहर तैनात सिपाही ने दूसरे सिपाही से कहा- 'रस्सी डाल दो। मुझे विश्वास है, भागेंगे नहीं।' मैंने दीवार पर पैर रखा और चढ़कर देखा कि सिपाही बाहर कुश्ती देखने में मस्त हैं। हाथ बढ़ाते ही दीवार के ऊपर और एक क्षण में बाहर हो जाता कि मुझे कौन पाता?
किन्तु तुरन्त विचार आया आया कि जिस सिपाही ने विश्वास करके इतनी स्वतंत्रता दी, उसके संग विश्वासघात कैसे करूँ? क्यों भागकर उसे जेल डालूँ? क्या यह अच्छा होगा, उसके बाल-बच्चे क्या कहेंगे? जेल में भी भागने का विचार करके उठा था कि जेलर पं. चंपालाल की याद आयी जिनकी कृपा से सब प्रकार के आनन्द भोगने की जेल में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। उनकी पेंशन में अब थोड़ा सा ही समय बाकी है और मैं जेल से भी नहीं भागा।'
ऐसी थी राम प्रसाद 'बिस्मिल' की विश्वसनीयता एवं संवेदना।
प्रसंग-2
ब्रह्मपुर के पास एक गांव में मुन्ना सिंह बादशाह रहते थे। वे जो कहते थे, करते थे। थे तो गृहस्थ, लेकिन व्यवहार साधु की तरह था। फकीर का जीवन जीते थे। साधु सन्यासियों की सेवा करने में उन्हें गहरी दिल्चस्पी थी। वे संगीत के भी प्रेमी थे। उनकी दृष्टि में कोई बुरा नहीं था।
एक बार रानीसागर गाँव की एक वेश्या ने उन्हें संगीत और भजन सुनने के लिए आमन्त्रित किया। उन्होंने हाँ कह दी, लेकिन तभी वर्षा इनती हुई कि बाढ़ आ गयी। जाने का मार्ग जलप्लावित हो गया। लोगों ने कहा- 'बादशाह जी, छोड़िये एक वेश्या के यहां कहां जाइएगा? जाने का कोई मार्ग शेष नहीं। यदि नहीं भी जाइएगा तो क्या होगा? वेश्याएँ ऐसी ही होती हैं, उनके लिए आप चिंतित क्यों हैं।'
मुन्ना सिंह बादशाह ने किसी की नहीं सुनी और सारा कपड़ा एक हाथ लिये लंगोटा पहन पानी में कूद पड़े और उचित समय पर उस वेश्या के यहां पहुंच गये।
एक वेश्या के वचनों के प्रति भी इतने कृत संकल्प वे साधु थे। न तो उन्होंने लोकापवाद की कोई परवाह की और न तनिक अपने व्यक्तिगत कष्ट की।
प्रसंग-3
घनश्याम दास बिड़ला मैट्रिक पास करने के बाद मुम्बई आये, जहां उनके परिवार की सोने-चांदी की दुकान थी। अभिभावक यही सोचते थे कि घनश्याम अपना खानदानी धन्धा सँभालेंगे, लेकिन उनकी रूचि कुछ अलग तरह के काम में थी तभी उन्होंने देखा कि कोलकाता से जूट मुम्बई में भेजा जाता है, जिसे व्यापारी यहाँ के बाजार में बेचते हैं। उन्होंने कोलकाता के व्यापारी से सम्पर्क किया।
व्यापारी ने इनके द्वारा भेजे कुछ रूपयों के एवज में पूरा सामान भेज दिया। एक सप्ताह बीत गया। व्यापारी को पैसा नहीं गया। वह घबराने लगा। इधर घनश्याम दास ने देखा जूट का दाम बढ़ने वाला है। उन्होंने माल नहीं बेचा। कुछ दिन प्रतीक्षा करने की सोची। तब तक कोलकाता के व्यापारी से सूचना आयी कि पैसा भेज दें। घनश्याम दास के पास पैसा आया नहीं था। फिर भी दूसरे से कर्ज लेकर भेज दिया। जब व्यापारी को यह ज्ञात हुआ कि माल अभी तक बिका नहीं, फिर भी घनश्याम दास ने पैसा भेज दिया, वह अभिभूत हो गया।
अब क्या कहना था? मात्र घनश्याम आदेश देते और सामान हाजिर। घनश्याम की विश्वसनीयता के गुण ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया।
धन्य थी उनकी संकल्प-शक्ति।