प्रसंग-1
अपनी आत्मकथा में राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने
एक घटना का वर्णन अपनी फाँसी के दो दिन पूर्व किया - 'मुझे कोतवाली लाया गया। चाहता तो गिरफ्तार नहीं होता। कोतवाली के दफ्तर में निगरानी में रखा सिपाही सो रहा था। मुंशी जी से पूछा- भावी आपति के लिए तैयार हो जाऊँ? मुंशी जी पैरों पड़ गए कि गिरफ्तार हो जाऊंगा, बाल-बच्चे भूखे मर जाएंगे। मुझे दया आ गयी। नहीं भागा।'
रात में शौचालय में प्रवेश कर गया था। इसके पूर्व बाहर तैनात सिपाही ने दूसरे सिपाही से कहा- 'रस्सी डाल दो। मुझे विश्वास है, भागेंगे नहीं।' मैंने दीवार पर पैर रखा और चढ़कर देखा कि सिपाही बाहर कुश्ती देखने में मस्त हैं। हाथ बढ़ाते ही दीवार के ऊपर और एक क्षण में बाहर हो जाता कि मुझे कौन पाता?
किन्तु तुरन्त विचार आया आया कि जिस सिपाही ने विश्वास करके इतनी स्वतंत्रता दी, उसके संग विश्वासघात कैसे करूँ? क्यों भागकर उसे जेल डालूँ? क्या यह अच्छा होगा, उसके बाल-बच्चे क्या कहेंगे? जेल में भी भागने का विचार करके उठा था कि जेलर पं. चंपालाल की याद आयी जिनकी कृपा से सब प्रकार के आनन्द भोगने की जेल में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। उनकी पेंशन में अब थोड़ा सा ही समय बाकी है और मैं जेल से भी नहीं भागा।'
ऐसी थी राम प्रसाद 'बिस्मिल' की विश्वसनीयता एवं संवेदना।
प्रसंग-2
ब्रह्मपुर के पास एक गांव में मुन्ना सिंह बादशाह रहते थे। वे जो कहते थे, करते थे। थे तो गृहस्थ, लेकिन व्यवहार साधु की तरह था। फकीर का जीवन जीते थे। साधु सन्यासियों की सेवा करने में उन्हें गहरी दिल्चस्पी थी। वे संगीत के भी प्रेमी थे। उनकी दृष्टि में कोई बुरा नहीं था।
एक बार रानीसागर गाँव की एक वेश्या ने उन्हें संगीत और भजन सुनने के लिए आमन्त्रित किया। उन्होंने हाँ कह दी, लेकिन तभी वर्षा इनती हुई कि बाढ़ आ गयी। जाने का मार्ग जलप्लावित हो गया। लोगों ने कहा- 'बादशाह जी, छोड़िये एक वेश्या के यहां कहां जाइएगा? जाने का कोई मार्ग शेष नहीं। यदि नहीं भी जाइएगा तो क्या होगा? वेश्याएँ ऐसी ही होती हैं, उनके लिए आप चिंतित क्यों हैं।'
मुन्ना सिंह बादशाह ने किसी की नहीं सुनी और सारा कपड़ा एक हाथ लिये लंगोटा पहन पानी में कूद पड़े और उचित समय पर उस वेश्या के यहां पहुंच गये।
एक वेश्या के वचनों के प्रति भी इतने कृत संकल्प वे साधु थे। न तो उन्होंने लोकापवाद की कोई परवाह की और न तनिक अपने व्यक्तिगत कष्ट की।
प्रसंग-3
घनश्याम दास बिड़ला मैट्रिक पास करने के बाद मुम्बई आये, जहां उनके परिवार की सोने-चांदी की दुकान थी। अभिभावक यही सोचते थे कि घनश्याम अपना खानदानी धन्धा सँभालेंगे, लेकिन उनकी रूचि कुछ अलग तरह के काम में थी तभी उन्होंने देखा कि कोलकाता से जूट मुम्बई में भेजा जाता है, जिसे व्यापारी यहाँ के बाजार में बेचते हैं। उन्होंने कोलकाता के व्यापारी से सम्पर्क किया।
व्यापारी ने इनके द्वारा भेजे कुछ रूपयों के एवज में पूरा सामान भेज दिया। एक सप्ताह बीत गया। व्यापारी को पैसा नहीं गया। वह घबराने लगा। इधर घनश्याम दास ने देखा जूट का दाम बढ़ने वाला है। उन्होंने माल नहीं बेचा। कुछ दिन प्रतीक्षा करने की सोची। तब तक कोलकाता के व्यापारी से सूचना आयी कि पैसा भेज दें। घनश्याम दास के पास पैसा आया नहीं था। फिर भी दूसरे से कर्ज लेकर भेज दिया। जब व्यापारी को यह ज्ञात हुआ कि माल अभी तक बिका नहीं, फिर भी घनश्याम दास ने पैसा भेज दिया, वह अभिभूत हो गया।
अब क्या कहना था? मात्र घनश्याम आदेश देते और सामान हाजिर। घनश्याम की विश्वसनीयता के गुण ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया।
धन्य थी उनकी संकल्प-शक्ति।