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कर्त्तव्य के प्रति महारथी कर्ण की निष्ठा

दोस्तों, यहां महाभारत के प्रमुख पात्र कर्ण पर एक लघु प्रेरक कहानी के साथ-साथ मन के विषय पर छोटा लेख दिया गया है। कृपया जरूर पढ़े। आप अगर चाहे तो आप हाल ही में प्रकाशित श्री बजरंग बाण PDF डाउनलोड कर पढ़ सकते है।

संधि का प्रस्ताव असफल होने पर जब क्षीकृष्ण हस्तिनापुर लौट चले, तब, महारथी कर्ण उन्हें सीमा तक विदा करने आए। मार्ग में कर्ण को समझाते हुए क्षीकृष्ण ने कहा - 'कर्ण, तुम सूतपुत्र नहीं हो। तुम तो महाराजा पांडु और देवी कुंती के सबसे बड़े पुत्र हो। यदि दुर्योधन का साथ छोड़कर पांडवों के पक्ष में आ जाओं तो तत्काल तुम्हारा राज्याभिषेक कर दिया जाएगा।'

यह सुनकर कर्ण ने उत्तर दिया- 'वासुदेव, मैं जानता हूँ कि मैं माता कुंती का पुत्र हूँ, किन्तु जब सभी लोग सूतपुत्र कहकर मेरा तिरस्कार कर रहे थे, तब केवल दुर्योधन ने मुझे सम्मान दिया। मेरे भरोसे ही उसने पांडवों को चुनौती दी है। क्या अब उसके उपकारों को भूलकर मैं उसके साथ विश्वघात करूं? ऐसा करके क्या मैं अधर्म का भागी नहीं बनूंगा? मैं यह जानता हूँ कि युद्ध में विजय पांडवों की होगी, लेकिन आप मुझे अपने कर्त्तव्य से क्यों विमुख करना चाहते हैं?' कर्त्तव्य के प्रति कर्ण की निष्ठा ने क्षीकृष्ण को निरूत्तर कर दिया।

इस प्रसंग में कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा व्यक्ति के चरित्र को दृढ़ता प्रदान करती है और उस दृढ़ता को बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भी शिथील नहीं कर पाता, यानि वह चरित्रवान व्यक्ति 'Sellable'  नहीं बन पाता। इसके अतिरिक्त इसमें धर्म के प्रति आस्था और निर्भीकता तथा आत्म सम्मान का परिचय मिलता है, जो चरित्र की विशेषताएं मानी जाती हैं।

भगवत गीता और मन


मन में 3 शक्तियों का वास होता है -

  1. इच्छा (Willpower)
  2. क्रिया (Action Power)
  3. ज्ञान (Knowledge Power)

मन में एक वासना उठती है, यह इच्छा की शक्ति यानी Willpower है। मन इस वासना को तुष्ट करने की कोशिश करता है यह क्रिया शक्ति यानी Action Power है। यह उसकी पूर्ति के उपाय सोचता है यह ज्ञान शक्ति यानी Knowledge Power है।

एन्डोक्राइन थैलियों में नाली नहीं होती और द्रव पदार्थ बनता रहता है। यह द्रव पदार्थ सीधा ही रक्त में मिल जाता है। इस द्रव पदार्थ का प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव बनाने में मुख्य भाग होता है। मनुष्य का स्वभाव उसकी समीपवर्ती परिस्थिति और उसके अनुभव से विशेषकर परिणत हो सकता है। परन्तु इसका बिल्कुल बदल जाना असंभव है। इसी हेतु भगवत गीता में वर्णित है कि -

"जब दृष्टि बहिर्मुख हो जाती है तो द्रुतगामी घटनाओं के वेग में मन संलग्न हो जाता है। तब मन की बहिर्मुख वृत्ति स्वयं का काम शुरू कर देती है। अत्यंत उन्नत मनुष्य का मन भी उसी प्रकार मन ही रहता है अर्थात् अपने गुण और धर्म को नहीं छोड़ता जैसा कि जैसा की सामान्य मानव का मन।"

मन की सूक्ष्म क्रियाओं को समझने के लिये मैंने कई वर्ष लगा दिये। अनुमान शक्ति के द्वारा मन विनाश करता है। अनेक प्रकार के अनुमानगत भय, बात को बढ़ा कर बताना, निर्मूल बात को गढ़ना, मानसिक कल्पना से नाटक जैसी घटनाएं घटाना, मनोराज्य बनाना, यह सब कार्य अनुमान शक्ति करती है। मनुष्य के मन की कल्पना शक्ति की वजह से पूर्णतः स्वस्थ मनुष्य को भी कोई न कोई कल्पित रोग होता ही है। किसी मनुष्य में कोई थोड़ी सी दुर्बलता होती है तो जब वह आपका शत्रु बनता है आप बिना देर किये ही उसकी कमियों को वामन अवतार की भांति बढ़ा देते हैं, और आप बहुत से अनेक दोषों का उसमें आरोप कर देते है। यह दूषित कल्पना के कारण से होता है।

विश्वास, तर्क, ज्ञान और श्रद्धा यह चार मुख्य-मुख्य मानसिक क्रियाएं हैं। पहले आपको किसी चिकित्सक में विश्वास होता है और आप उसके पास रोग निदान और चिकित्सा के लिये जाते हो। वह आपकी भली प्रकार परीक्षा करके कुछ औषधि निश्चित करता है। आप दवा ग्रहण करते है और तर्क करते हो कि अमुक रोग है। डॉक्टर ने लौह और आयोडीन दिया है। लोहे से रक्त में उन्नति होगी और आयोडीन से जिगर की वृद्धि रूकेगी। एक मास तक दवाइयां खाने से रोग चला जाता है और उस औषधि और चिकित्सक में पूर्ण श्रद्धा हो जाती है। और आप अपने मित्रों को भी उसी डॉक्टर के पास जाने के लिये कहते हो।

मान लीजिए घर में सब परिवार मिलकर हनुमान आरती कर रहे है तथा आरती समाप्त होने पर आपसे कोई पूछे कि क्या तुमने देखा हम लोगों ने मिलकर कितनी अच्छी तरह आरती की और आपका उत्तर होता है - 'मेरा मन कहीं और था मैंने सुना नहीं। मेरा ध्यान नहीं था मैंने देखा नहीं।' इससे यह बिल्कुल निश्चित होता है कि मानव मन से ही सुनता और देखता है। कामना, निश्चय, अनिश्चय, विश्वास, अविश्वास, स्थिरता, अस्थिरता, लज्जा, बुद्धि, भय ये सब कुछ मन में ही होते है।

अब हम आपको मन का नाटक समझाते है। मन की रीति देखिये। अपने जानकारों या दोस्तों से बातचीत करते हुए कभी आपका मन व्यर्थ कल्पना करता है कि आपके मित्र के भावों को ठेस पहुंची है। तब यह अनावश्यक भावना में बहुत शक्ति का अपव्यय कर देता है। आप सोचते हैं 'कल सवेरे मैं उससे किस प्रकार मिल सकता हूं। शायद वह मुझसे असंतुष्ट और खफा हो।' अगले दिन प्रातः काल जब आप उससे मिलते हो तो कुछ नहीं होता। आपका मित्र आनन्दप्रद वार्तालाप प्रारम्भ कर देता है और मुस्कुरा कर आपसे मिलता है। आपको आश्चर्य होता है कि वार्तालाप का रंग कुछ और ही बदल जाता है। जब किसी महामारी का काल होता है तो गृहस्थी मनुष्य विचार करता है 'यदि अब मेरी स्त्री को प्लेग हो गया और वह मर गई तो मैं क्या करूंगा।' मेरे छः बच्चे है। ऐसे ही समान हजारों रीतियों से मन नाटक के दृश्य गढ़ा करता है। इसमें कल्पना शक्ति का बहुत मुख्य भाग होता है।

देखिये! एक संकल्प का ही थोड़े से समय में कैसा विस्तार हो जाता है। मान लीजिए आपके मन में मित्रों की चाय गोष्ठी करने संकल्प उठता है। चाय के एक विचार के साथ-साथ एकदम ही चीनी, दूध, प्याले, मेज, कुर्सियां, मेजपोश, रूमाल, चमचे, मिठाइयां, नमकीन आदि अनेक पदार्थों के विचार आ जाते हैं। यह संसार संकल्पों के विस्तार के सिवाय और है क्या? मन के विचारों का पदार्थों की ओर विस्तार कर लेने से ही बंधन हो जाता है। संकल्पों का त्याग ही मोक्ष है। आपको सजग और सतर्क रहना चाहिए कि जैसे ही मन में संकल्प उठे वैसे ही उसे नष्ट कर दो। तभी आप सचमुच सुखी होगे। आपके लिए उचित होगा कि इसके स्वरूप स्वभाव और क्रिया रीति को भली प्रकार समझ ले। तब आप इसे बड़ी सुगमता से वश में कर सकोगे।

मन की छलांग से एक फर्लांग भी बहुत दूर प्रतीत होता है और तीन मील बहुत निकट लगता है। आपने नित्य के व्यवहार में यह तो देखा होगा।

मन जिस पदार्थ को तत्परता से सोचता है उसी का रूप रंग ले लेता है, संतरे का ध्यान करता है तो संतरे का रूप बन जाता है, वंशीधारी भगवान श्री कृष्ण का ध्यान करता है तो उनका ही रूप बन जाता है। अपने मन में सात्विक पदार्थ और सात्विक मानसिक मूर्ति ही रखनी चाहिये।

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