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Desh Prem : हिंदी लेख



Desh Prem

 Best Hindi article on Desh Prem and Desh Bhakti. Read till end to motivate yourself and to know India. 

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 Desh Prem

  

राष्ट्रप्रेम (Desh Prem) में बलिदान का महत्व


 जिस चमन में बुलबुल निवास करती है, उससे परम प्रेम (desh prem) करती है। प्रेम का पवित्र भाव उसे बलिदान के लिए प्रेरित करता है। अतः बुलबुल जिस चमन का अन्न-जल ग्रहण करती है, जिसकी डालियों पर वह अपना बिछौना बनाकर क्रीड़ाएँ करती है, जिसकी सुमंद समीर से प्रसन्न होकर वह वनों में अपना स्वर गुंजरित करती है, उसी चमन पर जब कोई विपदा आती है, तो वह उसके लिए कुर्बान भी हो जाती है। जब उस चमन को आग लगती है, तो वह आग की ज्वाला से बचने के लिए चमन छोड़कर नहीं भागती, अपितु उसी चमन के साथ जलकर भस्म हो जाती है। यह उसके प्रेम का स्पष्ट प्रमाण है। इसी भाँति मनुष्य की भी गाथा है। वह अपनी मातृभूमि की गोद में फल-फूलकर उसी के लिए समर्पित होने को सदा तैयार रहता है।

खा अन्न और जल तेरा माँ, ये अंग सकल हैं बड़े हुए।
तेरी ही वायु से माता, ये साँस हैं अब तक अड़े हुए।।
ऋण तेरा है मुझ पर भारी, उसको हम आज चुका देंगे,
जीवन की भेंट चढ़ा देंगे। 

 इतिहास से उदाहरण (Desh Prem Examples from Past) 

 

अपने राष्ट्र से प्रेम होना सहज-स्वाभाविक है। राष्ट्रप्रेम की भावना इतनी उदात और व्यापक है कि राष्ट्रप्रेमी समय आने पर प्राणों की बलि देकर भी अपने राष्ट्र की रक्षा करता है। हमारे देश का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। महर्षि दधीचि की त्याग-गाथा कौन नहीं जानता, जिन्होंने समाज के कल्याण के लिए अपनी हड्डियों तक का दान दे दिया था। सिख गुरूओं का इतिहास राष्ट्र की बलिवेदी पर कुर्बान होने वाली शमाओं से ही बना है। गुरू गोविंद सिंह के बच्चों को जिंदा दीवारों में चिनवा दिया गया। उनके पिता को भी दिल्ली के शीशगंज गुरूद्वारे के स्थान पर बलिदान कर दिया गया। उनके चारों बच्चें जब देश-प्रेम की ज्वाला पर होम हो गए तो उन्होंने यही कहा-चार गए तो क्या हुआ, जब जीवित कई हज़ार।

देश-रक्षा हमारा कर्तव्य है- जिस मिट्टी का हम अन्न खाते हैं, उसके प्रति हमारा स्वाभाविक कर्तव्य हो जाता है कि हम उसकी आन-बान-मान की रक्षा करें। उसके लिउ चाहें हमें अपना सर्वस्व भी लुटाना पड़े तो लुटा दें। सच्चे प्रेमी का यही कर्तव्य है कि वह बलिदान के अवसर पर सोच-विचार न करे, मन में लाभ-हानि का विचार न लाए, अपितु प्रभु-इच्छा मानकर कुर्बान हो जाए। कबीर ने सच्से वीर की परिभाषा देते हुए कहा है-
 

सूरां तब ही परखिए, लड़ै घणीं के हेत।
पुरजा-पुरजा है रहै, तऊ न छाँड़ै खेत।।
खेत न छाँड़ै सूरवाँ, जूझे द्वै दल माहिं।
 आसा जीवन-मरन की मन में लाणै नाहिं।।

देश के लिए 'जीना' अनिवार्य (Desh Prem)


 सच्चा देशभक्त वही है, जो देश के लिए जिए और उसी के लिए मरे। 'देश के लिए मरना' उतनी बड़ी बात नहीं, जितनी कि 'देश के लिए जीना'। एक दिन आवेश, जोश और उत्साह की आँधी में बहकर कुर्बान हो जाना फिर भी सरल है, क्योंकि उसके दोनों हाथों में लाभ है। मरने पर यश की कमाई और मरते वक्त देश-प्रेम का नशा। किंतु जब देश के लिए क्षण-क्षण, तिल-तिल कर जलना पड़ता है, अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं की नित्य बलि देनी पड़ती है, रोज़-रोज़ भग़तसिंह बनना पड़ता है, तब यह मार्ग बहुत कठिन हो जाता है।

सच्चा देश-प्रमी वही है, जो अपनी योग्यता, शक्ति, बुद्धि को राष्ट्र का गौरव बढ़ता हो। अमेरीका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने राष्ट्रपति बनने के बाद अपने प्रथम संभाषण में यही शब्द कहे थे-'अमेरिकावासियों तुम यह मत सोचो कि अमेरिका तुम्हारे लिए क्या कर रहा है, अपितु तुम यह सोचो कि तुम अमेरिका के लिए क्या कर रहे हो'। यह शुद्ध राष्ट्र-प्रेम है।

आह्नान:  आज दुर्भाग्य से व्यक्ति इतना आत्मकेंद्रित हो गया है कि वह चाहता है कि सारा राष्ट्र मिलकर उसकी सेवा में जुट जाए। 'पूरा वेतन, आधा काम' उसका नारा बन गया है। आज देश में किसी को यह परवाह नहीं है कि उसके किसी कर्म का सारे देश के हित पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यही कारण है कि भारतवर्ष नित्य समस्याओं के अजगरों से घिरता चला जा रहा हैं। जब तक हम भारतवासी यह संकल्प नहीं लेते कि हम देश के विकास में अपना सर्वस्व लगा देंगे, तब तक देश का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता, और जब तक देश का विकास नहीं होता, तब तक व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता। अतः हमें मिलकर यही निश्य करना चाहिए कि आओ, हम राष्ट्र के लिए जियें।


सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्ताँ हमारा 



 हमारा देश भारत अत्यन्त महान् एवं सुन्दर है। यह देश इतना पावन एवं गौरवमय है कि यहाँ देवता भी जन्म लेने को लालायित रहते हैं। हमारी यह जन्मभूमी स्वर्ग से भी बढ़कर है। कहा गया है - 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग सक भी बढ़कर है। प्रसिद्ध छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद जी ने अपने एक नाटक के गीत में लिखा है-

''अरूण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक साहस।''


हमारे देश का नाम भारत है, जो महाराज दुष्यंत एवं शकुंतला के प्रतापि पुत्र 'भरत' के नाम पर रखा गया। पहले इसे 'आर्यावर्त' कहा जाता था। इस देश में राम, कृष्ण, महात्मा बुद्ध, वर्धमान महावीर आदि महापुरूषों ने जन्म लिया। इस देश में अशोक जैसे प्रतापी सम्राट भी हुए हैं। इस देश के स्वतंत्रता संग्राम में लाखों वीर जवानों ने लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरोजिनी नयाडू आदि से कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया।



भौगोलिक रचना की दृष्टि से हमारा देश का प्राकृतिक स्वरूप अत्यंत मनमोहक है। इसके पर्वतीय प्रदेशों की हिमाच्छति पर्वतमालाएँ, दक्षिणी प्रदेशों के समुद्रतटीय नारियल के वृक्ष, गंगा-यमुना के उवृर मैदान प्रकृति की अनुपम भेंट हैं। इस देश में हर प्रकार की जलवायु पाई जाती है। इसी भूमि पर ‘धरती का स्वर्ग‘ कश्मीर हैं। हिमालय हमारे देश का सशक्त प्रहरी है, तो हिन्द महासागर इस भारतमाता के चरणों को निरंतर धोता रहता है। हमारा यह विशाल देश उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पुर्व में असम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ है। इस देश की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कवि रामनरेश त्रिपाठी लिखते हैं-

''शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनके दिव्य देश का मस्तक।
गूँज रही हैं सकल दिशाएँ, जिनके जयगीतों से अब तक।''

हमारे देश में 'विभिन्नता में एकता' की भावना निहित है। यहां प्राकृतिक दृष्टि से तो विभिन्नताएं हैं ही, इसके साथ-साथ खान-पान, वेशभूषा, भाषा-धर्म आदि में भी विभिन्नताएं दृष्टिगोचर होती हैं। ये विभिन्नताएँ ऊपरी है, ह्नदय से हम सब भारतीय हैं। भारतवासी उदार ह्नदय वाले हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बम्‘ की भावना में विश्वास करते है। यहां के निवासियों के ह्नदय में स्वदेश-प्रेम की धारा प्रवाहित होती रहती है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने सत्य ही कहा है-

''जिसमें न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर पशु निरा और मृतक समान है।''

'जो भरा नहीं भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह ह्नदय नहीं पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।'


 इतिहास के पन्नों में दर्ज भारत का वैज्ञानिक गौरव


 चतुरसमुद्रान्तविलोलमेखलां सुमेरू कैलास बृहत्पयोधराम्
वनान्तवान्तस्फुटपुष्पहासिनीं कुमारगुप्ते पृथिवीं प्रशासति।


भारत की यह तस्वीर चौथी-पांचवी सदी के मन्दसौर के गुप्तकालीन अभिलेख में कवि विस्सभट्टि ने खींची है-''चार समुद्र जिसकी लहराती मेखला बनाते हैं सुमेरू और कैलास पर्वत जिसके विशाल पयोधर हैं दूर तक फैले वनों में खिले फूलों के माध्यम से जो पृथ्वी निःशंक मुस्कराती है उस पृथ्वी पर स्वामी कुमार गुप्त शासन करते है."

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Kailash Parvat

Image Source: Encarta Encyclopedia


यह कितना तथ्यपूर्ण यधपि उतना ही चमत्कारी होगा कि दमिश्क और बगदाद के विधा संस्थानों ने ही सागर पार के ग्रीक अफलातून और अरस्तू के दार्शनिक विचारों की रक्षा कर उनका यूरोप में प्रचार किया। विज्ञान के क्षेत्र में तो यह स्थापित स्वीकृत और अकाट्य सत्य है।


एशिया में पश्चिमी संस्थाओं में अनूदित होकर भारतीय ज्योतिष जिसे स्वयं भारत ने प्राचीन ग्रीकों से पाया था. आयुर्वेद और गणित के तथ्यों का उद्घाटित प्रभाव-प्रसार पीछे यूरोप में हुआ। दशमलव का अनुसंघान यदि भारत में न हुआ होता तो गणित का विकास कितना कुंठित होता। यह उसकी चरम उपलब्धि गतिविज्ञान तथा चन्द्रलोक के अभियान से ही प्रभावित है। विज्ञान के क्षेत्र में यह सांस्कृतिक व्यापकता किस मात्रा में प्रभावित है  कहने की आवश्यकता नहीं।


प्रेस और कागज़ के चीनी अनुसंधान के बारे हम भली-भाँति जानते है। चीन के नाविकों द्वारा सामुद्रीक कम्पास  का निर्माण नौकाचालन में कितना  क्रांतिकारी सिद्ध हुआ यह सभी जानते हैं‐‐रोमन हिप्पालस ने जब समुद्रचारी पवनों की दिशाओं के ज्ञान का भेद पा लिया और मानसून का रहस्य वह खोल बैठा तब संसार के नाविकों को महीनों बंदरगाहों की पनाह में पड़े रहने से मुक्ति मिली और नौका चालन अत्यंत सरल हो गया। स्वयं अरबों में इस सम्बन्ध में प्रचलित अरबी शब्द “मानसून” अथवा मौसम संसार के सभी जातियों की भाषा में एक ही अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।

ग्रीस और भारतीय गणित


गणित के क्षेत्र में भी ग्रीस और भारत के बीच आदान-प्रदान की बात कही गई है पर वह भी प्रमाणतः स्पष्ट कर सकना प्रायः कठिन कार्य है। उस पर यहां कुछ विचार व्यक्त कर देना समीचीन होगा।

रोमनों ने जब अफलातून आदि की एथेंस स्थित अकादमियां बंद कर दी तब ग्रीस दार्शनिकों-गणितज्ञों को सागर पार मिस्त्र की सिकन्दरिया में और बाद में 530 ई॰ में खुसरों के फारस में शरण मिली। फारस में उनका रूकना दीर्घकाल तक नहीं हो सका। वैसे भी अगले काल में कुस्तुन्तुनिया के पतन के समय की भांति, उन्हें शीघ्र ही अरबी आंधी के सामने भागना ही पड़ता। पर सिकन्दरिया में वे दीर्घकाल तक अपने ज्ञान-विज्ञान को साधते रहे थे। वहां दियोफांतोस (लग॰ 260 ई॰) के समय तक विकसित होने वाले गणित का तो लेखा-जोखा आसानी से लिया जा सकता है पर शीघ्र ही 415 ई॰ में हुपातिया के मूर्ख जनसमुदाय द्वारा नृशंस वध के उपरांत गणित का विकास वहां हुआ भी और यदि हुआ तो कितना हुआ इसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता।

इसमें सन्देह नहीं कि चौथी सदी तक ग्रीकों ने इकवेशन (समीकरण) की दिशा में कुछ प्रगति कर ली थी। उनकी पहुंच पहले और दूसरे अंश संभवतः कुछ संदर्भो में तीसरे अंश तक इक्वेशनों  के हल में पहुंच गई थी पर इससे आगे नहीं जबकि भारत इस क्षेत्र में प्रगति की अनेक मंजिले पार कर चुका था। ब्रहागुप्त का ज्ञान इस क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ा हुआ था और उसने इक्वेशनों (इन्टिग्रल) के हल पूर्णतया पा लिए थे। इन्टिग्रल सोल्युशन के कारणस्वरूप  कम्पोज़िशन और भास्कर के वर्तुलीय विधन का ज्ञान ब्रहागुप्त और भास्कराचार्य प्राप्त कर चुके थे। हैंकेल का कहना है कि अंकों के सिद्धांत में लाफ्रांग के पहले इतनी क्रांतीकारी प्रगति नहीं हुइ थी जितनी इन दो भारतीयों ने कर ली। इस ज्ञान की खोज उसकी राय में गणित के क्षेत्र में सबसे अधिक चमत्कारी प्रक्रिया थी। इन प्रसंगों के मूल की ग्रीस में खोज़ वस्तुतः तर्क की विडम्बना ही है। यह स्वीकार करना होगा कि भारत की प्रगति इस क्षेत्र में ग्रीस से कहीं आगे था चाहे उसका ऋण ग्रीस पर प्रमाणित न किया जा सके।

हमारे देश भारत की संस्कृति अत्यंत महान् है। यह एक ऐसे मजबूत आधार पर टिकी है जिसे कोई अभी तक हिला नहीं पाया है। कवि इकबाल कह गए हैं-

'यूनान मिस्त्र रोम, सब मिट गए जहाँ से, बाकी मगर है अब तक नामोशियां हमारा।
कुछ बात कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारा।'


वर्तमान समय में हमारा देश अभी तक आध्याम्कि जगत् का अगुआ बना हुआ है। स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में भारतीय संस्कृति के जिस स्वरूप से पाश्चात्य जगत् को परिचित कराया था, उसकी अनुगूँज अभी तक सुनाई पड़ती है। भारतीयों ने अस्त्र-शस्त्र के बल पर नहीं बल्कि प्रेम के बल पर लोगों के ह्नदय पर विजय प्राप्त की। प्रसाद जी ने कहा है-

'विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम।'

भारतवर्ष का लोकतंत्र आज भी विश्व में अनोखा है। परमाणु शक्ति सम्पन्न विश्व में गौरव के साथ जी रहा है। अब तो प्रसाद जी के शब्दों में हमारी यही कामना है-

'जिये तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष, निछावर कर दे हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष'


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