'वज्रादपि कठोर - मृदुनि कुसुमादपि' निराला एक विराट समष्टि का नाम है। जीवन को कविता में और कविता को जीवन में उतारकर वंचितों और उपेक्षितों की वेदना, भूख, मान को अपनी आत्मा में महसूस करने वाला साधक 'निराला' है। वो महाकाव्य का नायक है। वो इतिहास है। इतिहास पुरूष है। वो रास्ते में खड़े होकर गगन से होड़ लेती ऊंची अट्टालिकाओं को नहीं देखता। वो देखता है, पत्थर तोड़ते हाथों को और मिट्टी में गुम होती श्रम की बूंदों को। कुल्ली भाट के घर बैठकर खाना खाने से उसका धर्म नहीं जाता, लेकिन सर्दी से सिकुड़ते लाचार व्यक्ति के सामने खुद को कोट, दुशाले में लिपटा देखकर हजार धिक्कार से जरूर भर जाता है उनका मन। वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की सच्ची अभिव्यक्ति है। वो अपने जीवन की दुखद कथा किसी के साथ बांटना नहीं चाहता, लेकिन फिर भी क्या भूला जा सकता है गढ़कोला के वंशज को। ''आटा पीसता सूरज किरन'' भले कितना ही छुपा ले, पर क्या चलती चक्की नहीं बताएगी इस आधुनिक कबीर की संघर्ष गाथा।
जिंदगी एक नज़र
- मूल नाम: सुर्जकुमार
- प्रसिद्ध नाम: महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘
- जन्मतिथि (Born): 21 फरवरी, 1896 माघ शुक्ल 11 संवत् 1953
- जन्म-स्थान: मेदनीपुर, पश्चिम बंगाल
- अभिभावक: पंडित रामसहाय
- पत्नी: मनोहरा देवी
- पुत्र-पुत्री: रामकृष्ण एवं सरोज
- शिक्षा: नौवीं
- मृत्यु तिथि: 15 अक्टूबर, 1961
- मृत्यु स्थान: इलाहाबाद
Life Story of Suryakant Tripathi Nirala (निराला का जीवन)
21 फरवरी, 1896 महिषादल, मेदनीपुर, पश्चिम बंगाल। पंडित रामसहाय दिवेदी का मकान...घड़ी की बढ़ती सूइयों के साथ दिलों की बेचैनी और प्रतीक्षा बढ़ती जा रही थी। तभी ड्योढ़ी के पार गूंजता है एक रूदन और शूरू हो जाता है काल गणना। 12 घरों में बिठा दिए जातें हैं आसमान के ग्रह और बांची जाती है कुण्डली....‘माघ शुक्ल एकादशी....मासोत्तमेमासे...श्रीमान रामसहाय दिवेदी गृहे...लड़का मंगली है। दो ब्याह लिखे हैं। बड़ा भाग्यवान। बड़ा नाम करेगा। रविवार को जन्म इसलिए नाम - सुर्जकुमार।' माँ मुदित थी, कोख में खिलखिलाते नवप्रसून की गंध से सराबोर। पिता प्रसन्न थे दो ब्याह की कुलरीति निभाने वाले कुलभूषण को पाकर और अस्ताचल की ओर बढ़ता रवि चकित होकर देख रहा था शाम में घुलती मालती गंध....'अरे! अभी तो शीत की मार से व्याकुल थी धरा। अचानक क्या हुआ जो थिरकने लगा जीवन सूनी डालियों पर। धूप में केश सुखाती धरती ने ओढ़ जी लाज की पीली चूनर। फूल झुक गए मधु के भार से और अलसाए भौंरे आंख मलकर जाग उठे पीने को मकरंद गंध..? ये आहट थी 'वसंत' की और 'आमद' वसंत के अग्रदूत 'निराला'
(Nirala) की। धरती पर निराला का आना वसंत का आना ही था। जब धरती पर वसंत आता है तो चटख पढ़ती हैं कलियां। महकने लगती हैं हवाएं। नए फूल। नई गंध। नए रंग। निराला के आने से गुलजार हो उठा महिषादल और 'कविता', करने लगी नई दिशाओं की प्रतीक्षा। कहना मुश्किल है कि निराला ने जो पहला शब्द उचारा, जो पहला वाक्य कहा वो बैसवाड़ी में था या बंगाली में लेकिन जिसके शब्दों को पूरी दुनिया ने सुना उस वसंत के गीतों को धरती की गोद में रखकर मां जा चुकी थी...
ये थी निराला के जीवन की कभी न पूरी होने वाली पहली रिक्तता, पहला अकेलापन....जिसे नहीं भरा जा सकता था दुनिया भर की भीड़ से। मां गई और साथ में ले गई पिता का प्यार भी।'
माँ की कमी ने सुर्ज को वाचाल और विद्रोही बना दिया। पिता को रूखा कर दिया। अपनी पुस्तक में स्वयं निराला के द्वारा कही गई पंक्तियों को डॉ. रामविलास शर्मा ने उद्त किया है,
'मारते वक्त पिताजी इतने तन्मय हो जाते थे कि भूल जाते कि दो विवाह के बाद पाए इकलौते पुत्र को मार रहे हैं। मैं भी स्वभाव न बदलने के कारण मार खाने का आदी हो गया था। और प्रहार की हद भी मालूम हो गई थी।' किंतु जितनी तन्मयता से पंडित रामसहाय अपने इकलौते पुत्र को मारते उतनी ही ममता ने नहलाते, धुलाते, भोजन कराते और साथ में सुलाते। रात के सामय भजन, हनुमान चालीसा, रामायण और दुनिया जहान के किस्से कहानियां सुनाते। नौकरी पर जाते वक्त उसे अपने मित्र के घर पर छोड़ जाते। यही घर दिनभर के लिए सुर्ज का आसरा होता। इस घर की स्त्रियां अपने प्रेम, स्नेह और दुलार से 'माता' की कमी को पूरा करने की भरसक कोशिश करतीं। बिन मां के बच्चे के खेल, शैतानियां, उठापटक, गुस्सा, खीझ सब कुछ हंसकर सहा जाता। फिर भी भीतर की रिक्तता लगातार लावा बनकर नसों में बहती मालूम होती। एक ओर अनुशासन और दूसरी ओर अतिशय प्रेम....इसे रचयिता की भूल कहूं या प्रारब्ध का परिणाम, लेकिन निराला ने बचपन से ही परिस्थितियों का चरम देखा। गहन प्रेम, गहन ममता, गहन अनुशासन, गहन तिरस्कार और गहन अकेलापन...ऐसे में विद्रोही तेवर अस्वाभाविक भी नहीं थे, लेकिन 'जिन अनुभवों के दर्शन का विष साधारण मनुष्य की आत्मा को मूर्छित करके उसके सारे जीवन को विषाक्त बना देता है, उसी से उन्होंने सतत् जागरूकता और मानवता का अमृत प्राप्त किया है।' (महादेवी वर्मा / Mahadevi Verma)
पिता और मुंहबोली अम्मा, काकियों के अलावा एक और व्यक्ति थे, जो आत्मा की गहराई से सुर्जकुमार से जुड़े थे, वो थे महिषादल के राजा के छोटे भाई। वो निःसंतान थे और सुर्जकुमार को गोद लेना चाहते थे, लेकिन उनकी असमय मृत्यु से यह विचार यथार्थ में परिणत न हो सका। न ही राजभवन के ऊंचे आसन, महिषादल की गलियां ही उनका साम्राज्य थीं और वे थे मोहल्ले के लड़कों के एकछत्र राजा...किसी भी तरह का बंधन उन्हें बौखला देता और वे दोगुनी प्रतिबद्धता से उस बंधन को तोड़ने के लिए तत्पर हो जाते। मां को गए 3 साल हो गए थे। डगमगाते पैर स्थिर हो गए थे, लेकिन चंचल मन पर अंकुश लगाना आवश्यक होता जा रहा था, इसलिए जनेऊ और पट्टी पूजन (यज्ञोपवीत और विधारंभ संस्कार) के बाद एक बंगाली प्राइमरी स्कूल में उनका प्रवेश करा दिया गया, लेकिन यहां भी निराला ने 'मैं' की शैली को नहीं छोड़, पढ़ाई से ज्यादा समय खेलकूद क्रिकेट और फुटबॉल उनके प्रिय खेल थे। पहलवानी की भी शौक लग चुका था।) में बीतता। तन, मन और बुद्धी पर पकड़ धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थी। कहना न होगा कि सुर्जकुमार में भविष्य का निराला आकार ले रहा था।
प्राइमरी स्कूल में 3-4 साल गुजारने के बाद वो आए अंग्रेजी हाईस्कूल में। यहां संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी की शिक्षा का तो अच्छा प्रबंध था किंतु हिंदी कुछ उपेक्षित जैसी स्थिति में थी। इस कमी को निराला स्वप्रयत्नों से पूरा करते रहे। स्कूल में अपने आसपास मंडली इकट्ठा करके ब्रजविलास और रामायण का सस्वर पाठ आम बात थी।
इन्हीं दिनों की एक दिलचस्प घटना है। भाषाएं जब जीभ पर खेल रही थीं, तब न जाने क्यों उन्हें गणित एक बैरी की तरह डराती रहती थी। हजार मर्तबा दोहराने के बाद भी सूत्र सर के ऊपर से गुजर जाते। तभी आई वार्षिक परीक्षा की घड़ी। खाली दिमाग और हाथों में डरावना, गणित का पर्चा...लेकिन उत्तर पुस्तिका को कोरा भी नहीं छोड़ा जा सकता था, इसलिए सवालों के हल की जगह पद्माकर के पद ही लिख आए और यहीं से उनके स्कूल जीवन का अंत हो गया। वैसे भी स्कूल का पाठ्यक्रम उनकी मानसिक भूख को शांत करने में पूर्ण समर्थ नहीं था। स्कूल छूटने के बाद भी उनका पुस्तकों से साथ नहीं छूटा। अंग्रेजी, बांग्ला और संस्कृत का तमाम साहित्य उन्होंने पढ़ा। भारतीय दर्शन और गिता की भी अध्ययन किया। संगीत की ओर आकृष्ट हुए तो हारमोनियम पर अलाप भरना भी आरंभ हो गया, लेकिन सबसे ज्यादा नज़दीकी बनी कविताओं से.
एक बार जो शब्दों का रस अंतस में उतरा फिर किसी अमृत की अभिलाषा न रही। शब्द कागजों से दिल पर दस्तक देने लगे और दिल से कागजों पर उतरने लगे। अभिव्यक्ति का माध्यम बनी अवधी, बांग्ला, ब्रज भाषा और यदा-कदा संस्कृत भी। ‘सायर, सिंह, सपूत‘ की तर्ज पर वो मंथर गति से अपनी बनाई लीक पर आगे बढ़ रहा था, समय के साथ-साथ। कितने पतझर आकर बीत गए समय को भी पता न चला, लेकिन उस साल मन की देहरी पर दस्तक देने वसंत अकेला नहीं आया। उसके साथ आई हल्दी के छींटे पड़ी शगुन की पीली चिट्ठी और हवाओं में गूंजने लगी ढोलक की थाप.....सप्तपदी के वचन....नैहर से छूटती एक आर्त पुकार....
Suryakant Tripathi Nirala in Young Age (तू मेरे वसंत का प्रथम गीत....)
महिषादल की गलियों में दिन-दिनभर धूल से सने दौड़ लगाते 14 साल के सुर्जकुमार सर पर मोहर बांध पहुंच गए गंगा किनारे बसे डलमऊ। डलमऊ...जहां बहती देव नदी गंगा की धारा में दिखाई पड़ती है कला, सभ्यता और संस्कृति से समृद्ध एक नगर के विध्वंस की परछाई और महसूस होती है किसी अपने की कमी बेतरह....ये डलमऊ जो आज अच्छी खासी आबादी वाला टाउन एरिया बन गया है। तब वहां गंगा किनारे छिटपुट घरों के अलावा समय की शेष गाथा डोलती दिखाई पड़ती थी। इसी डलमऊ में पंडित रामदयाल के घर आए थे सुर्जकुमार। उनकी बेटी 'मनोहरा' को अपनी चिर संगिनी बनाने के लिए। अग्नि को साक्षी मान लक्ष्मी और सरस्वती स्वरूपा 'मनोहरा' का दान 'सुर्जकुमार' ने स्वीकार किया, लेकिन मेहंदी की खुशबू, महावर रंगे पैरों की छाप और पायल की रूनझुन से उनका मन और जीवन गुलजार हुआ, ब्याह के दो साल बाद तब, जब गौना हुआ। 13 साल की नन्ही मनोहरा गृहस्थ बनकर डलमऊ से महिषादल आ गई। उस समय गांव प्लेग की चपेट में था। लोग डर के मारे अपने घर छोड़कर इधर-उधर जा रहे थे। मनोहर के पिताजी भी बेटी को विदा करा ले गए। निराला को यह अच्छा नहीं लगा और निराला से भी ज्यादा बुरा लगा उनके पिताजी को। पंडित राम सहाय ने समधी को सबक सिखाने के लिए निराला को फौरन डलमऊ जाने का आदेश दिया और ताकीद की -
'कि यहां से तिगुना खाना...' निराला भी गुस्से में थे। उन्होंने पिता के आदेश में अपने भाव-विचार जोड़ लिए और जा पहुंचे डलमऊ....
खूब इत्र फुलेल लगाते। रोज शाम नई सज-धज के साथ नाच देखने जाते। बजारों में उल्टा-सीधा खर्च करते और डटकर खाते....हर वो काम करने की कोशिश करते जिससे मनोहरा और ससुराल वालों को खीझ हो, वैसे भी, 'दूसरों की बद्धमूल धारणाओं पर आघात कर उसकी खिजलाहट पर वे वैसे ही प्रसन्न होते, जैसे होली के दिन कोई नटखट लड़का, जिसने किसी की तीन पैर कुर्सी के साथ किसी भी सर्वागंपूर्ण चारपाई, किसी की तिपाई के साथ, किसी की नई चौकी होलिका में स्वाहा कर डाली हो। प्रसन्न होता है।'
(महादेवी वर्मा/Mahadevi Verma)। ऐसे ही एक दिन निराला ने अपनी नई नवेली पत्नी को ताना मारते हुए कहा -
'अपने बालों को सूंघो। तेल की कैसी चीकट बदबू है। कभी-कभी तो लगता है कि...' बात केवल चिढ़ने के उद्देश्य से कही गई थी। पति के बोल-अबोल को सुनकर चुप रह जाने की शिक्षा भी पढ़ी-लिखी, रामायण-गीता का ज्ञान रखने वाली और अभिमान को स्वाभिमान और तोड़ने की क्षमता रखने वाली....तब वे व्यर्थ सुनकर चुप कैसे रहती। पलटकर उन्होंने भी निराला को करारा जवाब दिया। निराला के लिए यह प्रत्याशित था। उस क्षण तो मन पर मान की परत चढ़ा निराला मनोहरा के सामने से हट गए, लेकिन जिद थोड़ी और गहरी हो गई।
कृतित्व.....
- काव्य संग्रह: परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अपरा, आराधना, अर्चना, काव्य संग्रह: परिमल, अनामिका, गीतिका, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अपरा, आराधना, अर्चना, जन्मभूमि,
तुलसीदास (खंडकाव्य), वर्षागीत (अप्रकाशित)
- उपन्यास: अप्सरा, अल्का, प्रभावती, निरूपमा, चमेली, उच्श्रृंखलता, चोटी की पकड़, काले कारनामे
- कहानी संग्रह: चतुर चमार, सुकुल की बीबी, सखी, लिली देवी
- रेखाचित्र: कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा
- निबंध संग्रह: प्रबंध पद्म, प्रबंध परिचय, प्रबंध प्रतिभा, चाबुक, चयन, संघर्ष, बंगभाषा का उच्चारण
- आलोचना: रवींद्र कविता कानन
- अनुवाद: आनंदमठ, कपाल कुंडल, चंद्रशेखर, दुर्गेश-नंदिनी, कृष्णकांत का बिल, रजनी, देवी चौधरानी, राधारानी, विषवृक्ष, राजसिंह, युगलांगुलिया, क्षी रामकृष्ण कथामृत, राजयोग, भारत में विवेकानंद
- नाटक: समाज, शकुंतला, उषा-अनिरूद्ध
विदाई का मुहूर्त अभी निकला नहीं था और गुस्सा तूफान की तरह बढ़ता जा रहा था। तभी एक और घटना घटी। निराला और मनोहरा में फिर से झगड़ा हो गया। इस बार मुद्दा था 'बांग्ला और हिेदी की श्रेष्ठता का' रामकृष्ण परमहंस,
विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, शरत चंद्रादि से प्रभावित निराला निसंदेह बांग्ला की तरफ थे, जबकि मनोहरा ‘भारत दुर्दशा और मानस का हंस‘ को लेकर तर्क कर रही थीं। बहुत देर बहस हुई अंत में निराला के भीतर जैसे याज्ञवल्क्य जागे '....अति प्रश्न न कर गार्गी अन्यथा तेरा सस्तिष्क खंड-खंड हो जा जाएगा.....' वे यह कहते हुए बीच से उठ गए कि 'हमको स्त्री जाति से घृणा है...'मनोहरा देवी के भतीजे भारती शरण दिवेदी, यानी निराला के पद्दू भाई (उनके साले रामधनी के पुत्र) बताते हैं। बहस के बाद जब वे खाना खाने आए तो बुआजी (मनोहरा) ने उन्हें पानी दिया। मां के पूछने पर बोली, ‘इन्हें स्त्री जाति से घृणा है। मैं स्त्री हूं। बावड़ी स्त्री है। गंगा स्त्री है, फिर कहां से पानी लाऊं। कोई तालाब हो तो इन्हें पानी दिया जाए। यहां तो सभी स्त्रीलिंग हैं।' नाराज होकर फूफाजी
(निराला / Nirala) बिना पानी पिए जूठे हाथ एक किलोमीटर दूर सरजूपुर ताल गए और पानी पीकर आए।
अहं पर लगी ये दूसरी चोट थी। निराला जिस स्त्री को अपने परंपरागत संस्कारों तले दबाने आए थे। उनका ज्ञान, स्वाभिमान बार-बार उन्हें आहत कर रहा था, लेकिन गुस्से और जिद में जिसकी बार-बार उपेक्षा कर रहे थे, बाद में उसकी कचोट उन्हें हमेशा रही-
दुखता रहता अब जीवन / पतझर का जैसा वन-उपवन
झरझर कर जितने पत्र नवल / कर गए रिक्त तनु का तरूदल
है चिह्न शेष केवल सबंल / जिसने लहराया था कानन...
साहित्य विशेष रूप से तीन स्त्रियों का ऋणी है। विधोतमा, रत्नावली, मनोहरा....विधोतमा और रत्नावली को तो कोई नहीं भूला, लेकिन मनोहरा को कितनों ने याद किया? यह मनोहरा ही थीं, जिन्होंने सुर्जकुमार को निराला बना दिया, जो निराला पत्नी के तर्कों और ज्ञान पर खीझ कर याज्ञवल्क्य हो उठे थे। वही एक रोज उसके कंठ से झरते मधुर स्वर को सुन स्तब्ध रह गए।
'क्षी रामचंद्र कृपालु भजमन हरण भय दारूणं, नव कंज लोचन कंज मुखकर कंज पद कंजारूणं....'
मनोहरा के कंठ से फूटता हुआ राम अर्चन...जाने क्या था इसमें, कि सोता हुआ संस्कार जाग उठा। वे किससे, किसकी तुलना करते? कौन श्रेष्ठ था? मनोहरा का स्वर या तुलसी का छेद? गीत के साथ गूंजता संगीत या संगीत के साथ जागता हुआ स्नेह? जो भी हो, इस श्रेष्ठता के साक्षात्कार में उनका पुरूष अहं चूर-चूर हो रहा था। और अचरज की बात ये कि वो ऐसा होने दे रहे थे। निराला चकित थे। गद्गद थे। अभिभूत थे। स्वर साधना तो उन्होंने भी की थी, लेकिन आज वो उस साधिका के सामने नत हो जाना चाहते थे। लगा जैसे सुदेर आसमान से कोई संदेश सिर्फ उनके लिए आ रहा था....'क्या मैं भी ऐसा गा सकता हूं, क्या कुछ ऐसा रच सकता हूं, जो भुला दे इस लोक को। जो चूर-चूर कर डाले झूठे अहंकार को। क्या रच सकता हूं, मैं एक मुक्त गीत, एक मुक्त राग, एक मुक्त
(poems)छंद....
' कहते छल-छल हो गए नयन, कुछ बूंद पुनः ढलके दृग जल, रूक गया कंठ!!
सुर्जकुमार के भीतर निराला जाग उठा। मनोहरा की प्रेरणा से इस अप्रतिम कलाकार का स्नेह हिंदी से जुड़ गया। पत्नी का हिंदी ज्ञान इस चरित नायक की प्रेरणा बना। फिर शुरू हुआ सिलसिला स्वाध्याय का। 'सरस्वती' की प्रतियां लेकर हिंदी सीखने और पद रचना करने का। निराला ने उस दिन जो रूप मनोहरा का देखा। वो अभूतपूर्व था। उन्होंने खुद कहा कि उससे सुंदर कोई स्त्री उन्होंने जीवन में नहीं देखी थी। मनोहरा अपनत्व की छांव ढूंढ़ते उस अंधेरे जीवन का दीया थी। पिता के बाद बस वही थी, लेकिन ये छांव भी जाती रही और जैसे सूरज के आ जाने पर दीप शांत हो जाता है, वैसे ही एक पुत्र और एक पुत्री का दायित्व निराला पर छोड़ यह दीप भी मौन हो गया।
निराला महिषादल में थे। डलमऊ से तार आया, पत्नी की बीमारी का, लेकिन जब त कवे वहां पहुंचे चिता जल उठी थी। अनभ्र वज्रपात!!! भावुक कवि टूट गया। घंटों श्मशान में बैठता कहीं कोई चूड़ी का टुकड़ा, हड्डी या राख मिल जाती तो उसे हद्य से लगाए घूमता रहता। 21 बरस की उम्र और चार भतीजों व दो बच्चों का दायित्व। रोजी-रोटी की चिंता निराला को वापस महिषादल खीच ले गई। जिगर के टुकड़ों को ननिहाल में छोड़ना पड़ा। राजा के यहां लिखा-पढ़ी का काम मिल गया। साथ में स्वाध्याय और साहित्य साधना भी चलती रही। बांग्ला कविताओं ने कलकत्ता और जूही की कली ने हिंदी संसार को मोह लिया। किंतु जिस सूर्य की कांति सारी दुनिया में बिखर रही थी उसके अंतर में खालीपन था....आंसू थे और बहुत अकेला था वो......'
निराला के अकेलेपन को भरने की कोशिश में दूसरी शादी के मशवरे जोर पकड़ रहे थे। सबसे अधिक आतुर उनकी सास थीं। आत्मीय स्वजन सस्नेह कह रहे थे, जीवन सुखमय होगा विवाह कर लो। कोई ऐसी जो घर, द्वार, बच्चों को संभाल ले, अपनी ममता की छांव में ढांप सके.... निराला सबको सविनय लौटाते रहे, लेकिन मन में कहं पिताजी का गर्व गूंजता था... 'बेटा दो ब्याह कर कुल की रीति निभाएगा।' एक रिश्ते को लेकर मनोहरा की मां लगभग अड़ गईं। लड़की सुंदर है। पढ़ी-लिखी है। सरल है। उमर भी बस 18 साल है... निराला कुछ कहते इससे पहले उन्होंने वहां खेलती सरोज (निराला की पुत्री) को देखा। हाथ में पकड़ी हुई कुण्डली उन्होंने सरोज को दे दी। नन्ही सरोज को पता नहीं था कि उसके हाथों में पिता का भाग्य है। खेल-खेल में सरोज ने कुडंली के दो टुकड़े कर दिए। मनोहरा की मां स्तंभित रह गई। जबकि भाग्य के लेख को गलत सिद्ध कर निराला हंस पड़े। यही तो थे निराला, चुनौतियां सहते हुए। चुनौतियां देते हुए। 'कुछ साहित्यकार ऐसे होते हैं, जिनका साहित्य महान होता है। इसके विपरीत कुछ साहित्यकार ऐसे होते हैं, जिनका जीवन महान होता है, पर साहित्यत नहीं, लेकिन बहुत कम साहित्यकार ऐसे हैं, जिनका जीवन और साहित्य दोनों महान हों। निराला ऐसे बिरले साहित्य सृष्टा थे। जिनका जीवन उनके साहित्य से कमतर नहीं आंका जा सकता।' (पद्म सिंह शर्मा 'कमलेश') जीवन को वसंत का गीत बनाने वाली मनोहरा पतझर का सा सूनापन भरकर चली गई थी, लेकिन डलमऊ के लिए तब भी निराला पूज्यनीय जमाई बाबू थे। बच्चे भी ननिहाल में रह रहे थे, इसलिए आना-जाना लगा रहता। डलमऊ की गलियों ने देखा। वो महकती हैं उस इत्र और फुलेल से, जो रौबीले तन पर सजे सिल्क के कुर्ते से उठता था। उन गीतों से जो वे गंगा की सैर करते वक्त गुनगुनाया करते थे। और उन किस्सों से जो डलमऊ की ज़िंदगी में निराला के साथ ने लिखे।
डलमऊ और निराला का रिश्ता बहुत गहरा रहा। उन्हें कुछ ऐसे लोग मिले जिन्होंने उनके साहित्य और जीवन को स्मृतियों में चिर जीवन का वरदान दिया। उनके साहित्य का एक बड़ा हिस्सा यहीं सृजित हुआ। पत्नी मनोहरा, पुत्री सरोज, प्रभावती, कुललीभाट, सुकुल की बीबी, रामधनी पंडा, रामकृपाल मंझू महाराज.... न जाने कितने पात्र उनकी जीवन गाथा से जुड़े। यहीं बैठकर निराला ने लिखा अपना कालजयी गीत 'बांधो न नाव इस ठांव बंधु...' और यहीं पर सृजन हुआ 'प्रभावती' का।
प्रभावती समर्पित है, मनोहरा की भाभी राम जानकी देवी को, जिसकी ममता के साए में सरोज और रामकृष्ण को बहुत हद तक उस टूटन, उस रिक्ति से बचा लिया, जो मां को खोने के बाद स्वयं निराला ने भोगी थी। निराला उन्हें ‘बीबी जी‘ कहकर पुकारते थे। पांच-पांच मिनट पर चाय के लिए बीबीजी की पुकार होती। दूध का भगौना खाली होता तो क्या.....बीबीजी के हाथ की 'लीकर' (बिना दूध की चाय) भी अमृत सम लगती। कितने लोग हर रोज मिलने आते, लेकिन अन्नपूर्णा सी बीबीजी बिना शिकायत सबका ध्यान रखती और बच्चों से तो इतना स्नेह कि स्वयं के श्रृंगार की उम्र में बच्चों की साज-संभाल में लगी रहतीं। एक बार सरोज को काजल का डिठौना लगाया और फिर घर के कामों में व्यस्त हो गई। जब निराला को चाय देने गई तो उन्होंने देखा, खुद बीबीजी के चेहरे पर कई जगह काजल लगा हैं। डिठौना लगाने के बाद वे शायद अंगुली पोंछना भूल गई थीं। क्या उम्र थी उनकी। सिर्फ 15 साल। निराला इस तरूणी के ममत्व से इतने प्रभावित हुए कि अपनी रचना प्रभावती ‘राम जानकी देवी‘ को समर्पित कर दी। स्त्री की विशालता, गहराई और ऊंचाई के प्रति आभार प्रकट करने का ये निराला का अंदाज था, जो उन्हें एक सामान्य व्यक्ति की श्रेणी में खड़ा होने से रोकता है।
ऐसा नहीं है कि निराला का ये अंदाज केवल घर तक ही सीमित था। जहां तक भी निराला की दृष्टि जाती और जहां से भी उनहें अपनत्व मिलता वो सदा के लिए उसके साथ हो जाते। उनका वश चलता तो वे सारा विष पीकर नीलकंठ बन जाते और दुनिया को मुक्त कर देते हर दुख, हर अपमान, हर तिरस्कार से, लेकिन नियति के इस चक्रव्यूह में निराला की स्थिती भी अभिमन्यु के जैसी ही थी। कहा कल्पना के उन्मुक्त गगन में उड़ने को बेचैन कवि और कहां नौकरी के बंधन। सरोज और रामकृष्ण की चिंता भी मन को एकाग्र नहीं होने देती थी। चित्त को डलमऊ में छोड़कर महिषादल में नौकरी करना खिजलाहट पैदा करने लगा। अक्सर काम में गड़बड़ हो जाती। पिता के नाम के भरोसे कब तक गलतियों को अनदेखा किया जाता। और रोक-टोक निराला को सहन नहीं थी। आखिर निराला ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। बंधन से छूटते ही एक पल को लगा जैसे एक बड़ा बोझ था और अब वे स्वतंत्र हैं। भावहीन.... लेकिन अगले ही क्षण खाली हाथ और जेब प्रश्नचिहन बनकर सामने खड़े हो गए। अब तो वे अकेले भी नहीं थे। रामकृष्ण और सरोज के अलावा चार भतीजों का दायित्व भी उनके ऊपर ही थी।
घनघोर संकट के इस समय निराला ने कलम को अपना सहारा बनाया। अनुवाद किए, विज्ञापन लिखे। कविता-कहानी..... प्रकाशकों ने जो लिखवाया, लिखा। जूही की कली, रवींद्र कविता कानन आदि पहले ही लिखे जा चुके थे, इसलिए साहित्य के क्षेत्र में काम मिलने में कठिनाई नहीं हुई। अभिव्यक्ति के नए स्वर को पारखी धीरे-धीरे पहचानने भी लगे थे।
अमिय गरल शशि सीकर रविकर.....
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परिमल |
आल्हाद शोक, प्रेम वात्सल्य, माधुर्य, विलास, अट्टाहस, रौद्र, करूण.... रस रचती लेखिनी के प्रभाव से अछूता रह पाना मुमकिन भी कहां था। जूही की कली के नवीन छंद विधान को देखकर ‘आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी' उसे सरस्वती में प्रकाशित करने से मना कर चुके थे। उन्हीं दिवेदीजी की सिफारिश पर निराला को 'समन्वय' (रामकृष्ण मिशन का दार्शनिक पत्र) में संपादन का मौका मिला। निराला महिषादल छोड़कर कलकता आ गए। लगभग एक वर्ष निराला ने 'समन्वय' से जुड़कर कार्य किया। यहां व्याप्त दार्शनिक चेतना ने निराला को रहस्यवादी भाव से भर दिया। 'पंचवटी प्रसंग' में निराला एक बार फिर मुक्त छंद के साथ रू-ब-रू हुए। वस्तुतः निराला के भीतर भावों का जो उद्दाम वेग था, उसे छंद में बांधना उनके लिए संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने हिंदी कविता को मुक्त वृत सौंप दिया। परिमल की भूमिका में लिखते हैं, ‘मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म बंधन से बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना....'परिमल के तृतीय खंड की रचनाएं स्वच्छंद छंद में लिखी है, जिन्हें निराला मुक्तगीत कहते हैं.....
गीत हों, कहानी हों, कविताएं या फिर जीवन निराला उन्हें रूढ़ियों में बांधने में यकीन नहीं करते थे। उन्हें पता था कि जग को लुभाने वाला फूल भी अपना सौंदर्य कली के बंधनों को तोड़कर प्राप्त करता है। ‘पृथ्वी और आकाश का ताप और त्रास‘ झेलना पड़ता है, वनबेला को। तभी भरती हैं सांसें आदिम गंध से। और भरनी पड़ती है शक्ति की हुंकार राधवेन्द्र को, पाने के लिए रावण से मुक्ति.... इसलिए निराला ने भी छोड़ दिया अपनी कविता को छोटे-बड़े रास्तों से होकर अपनी मंजिल खुद पाने के लिए। किंतु परंपराओं से बंधे वर्ग को यह स्वच्छंदता सहन नहीं हुई। आलोचना, अपमान, तिरस्कार.... विरोध के बाण आर-पार होने लगे। आनंद का अमृत बांटती कलम विषाद का विष पीने को बाध्य की जाने लगी। साहित्य के रण में संघर्ष का तुमुल नाद गूंज उठा। जिसमें एक ओर प्रसाद, पंत, महादेवि, निराला की अगुवाई में आगे बढ़ता ‘छायावाद‘। लक्ष्य एक होते हुए भी दिशाओं पर संघर्ष चल रहा था। दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों के साथ अड़े थे। स्वभाव से उग्र निराला छायावाद के प्रतिनिधि बनकर उभरे। फलतः सबसे अधिक आक्षेप इन्हीं को झेलने पड़े, लेकिन न निराला रूके, न छायावाद....
देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शर-क्षेप, वह रण कौशल।।
पंत के 'पल्लव' को सींचते प्रसाद के 'आंसू' जब विलीन हो जाना चाहते थे 'महादेवी' के 'पथ के साथी' के साथ, तब बिना किसी आहट के छायावाद उतर रहा था, वह व्यक्ति जो कर्म क्षेत्र में परंपराओं के विरूद्ध बिगुल बजा रहा था उसी को समाज परंपरा निभाने की सलाह दे रहा था, ‘देना सरोज को धन्य धाम / शुचिवर के कर / कुलीन लखकर है काम तुम्हारा धर्मोत्तर‘ निराला मौन सोचते रहे। लोकाचार तो निभाना था किंतु पुत्री इतना बड़ा भार नहीं थी उनके लिए कि किसी भी अयोग्य वर को उसका हाथ सौंप दें। वे कहते थे, 'ऐसे शिव से गिरिजा विवाह / करने की मुझको नहीं चाहकृफिर याद आया उन्हें शिष्य शिवशेखकर द्विवेदी। निराला ने परंपरा निभाई, लेकिन रूढ़ियों को तोड़कर। सरोज और शिवशेखर का विवाह डलमऊ के महेश गिरी मठ में बहुत ही सादगी से संपन्न हो गया। न बारात, न दहेज, न व्यर्थ का दिखावा, न कोई आमंत्रण मौन संगीत के बीच नव जीवन आरंभ हुआ। निराकार श्रृंगार में सजी सरोज पिया का हाथ थामे नए पथ पर बढ़ चली, पिता को एक अनजान आशंका में डुबोकर... अकस्मात निराला ने कहा - 'सरोज एक वर्ष से अधिक नही जिएगी।' जाने पिता के हृदय से निकली ये कैसी आवजा थी, जिसने सबको डरा दिया। ऐसी शुभ घड़ी में ऐसे अशुभ विचार.... विहलता विकलता थोड़ी और गहरी हो गई। सरोज के विवाह के बाद कण-कण में बिखरा सुनापन थोड़ा और डरावना हो गया। पर अभी अधिवास कहां? अभी तो नियति का चक्र चल रहा था और निरूपाय कवि भी चल रहा था काल के साथ...
वही कवि, वही कविता, वही स्वर, वही तेवर, बस ठिकाना बदल गया। समन्वय की जगह 'मतवाला' जिसे कलकता के सेठ बाबू महादेव प्रसाद ने जन-जन में साहित्यिक समाजिक, राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने के लिए आरंभ किया था। राग-विराग की भूमिका में डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं, ‘1923 में जब मतवाला निकला निराला ने उसके मुखपृष्ठ के लिए दो पंक्तियां लिखीं - 'अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला, पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला।'
निराला ने सोचा था, ‘मतवाला‘ ऐसा पत्र होगा, जिसमें जीवन,, मृत्यु, अमृत और विष, राग और विराग संसार के इस सनातन छंद पर रचनाएं प्रकाशित होंगी। किंतु न मतवाला इन पंक्तियों को सार्थक करता था, न हिंदी का कोई और पत्र। इन पंक्तियों के योग्य थी केवल निराला की कविता जिसमें एक ओर राग रंजित धरती है तो दूसरी ओर विराग का अंधकारमय आकाश.... लेकिन कल तो अभी आस की पोटली में बंधा था और उसके सामने आने तक अंतरात्मा के द्वारा दिखाए पथ पर बढ़ते जाना था, 'सत्यं, शिवं, सुंदरं' को गढ़ते हुए। दिलचस्प पहलू यह है कि सूर्यकांत त्रिपाठी को अपना उपनाम 'निराला' भी मतवाला से जुड़ने के बाद मिला। साहित्य को प्रगति पथ पर प्रशस्त करने में मतवाला की अग्रणी भूमिका के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए उसी तर्ज पर अपना उपनाम 'निराला' कर लिया। जल्द ही मतवाला और निराला की धूम मच गई। किंतु वे जानते थे कि प्रसिद्धी का भीतरी अर्थ यशो विस्तार नहीं, विषय पर अच्छी सिद्धी पाना है। उसी अच्छी पकड़ का परिणाम था कि विरोधी खेमा भी मतवाला में आने वाली उनकी रचनाओं के ताप को महसूस कर रहा था। वसंत का दूत क्रांति का अगुआ बनकर बांध तोड़ने को बेचैन था। वो कबीर की तरह सीधी चोट करने से नहीं डरता था, इसीलिए समकालीनों के द्वारा की जा रही उपेक्षा पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उसने लिखा, 'पास को नोचता हुआ घास अज्ञात फेंकता इधर-उधर। भाव की चढ़ी पूजा उन पर...'लेकिन नियति की ताड़ना का शिकार एक अकेला व्यक्ति कब तक और कहां तक लड़ता। वैसे भी 'हमारे यहां ज्ञान सापेक्ष नहीं, निरपेक्ष है और ऋते ज्ञानान मुक्तिः' यह सदा सत्य है।'
खैर! युग सत्य जो भी हो, लेकिन निराला के जीवन का सत्य यह था कि मतवाला में बिताया एक वर्ष उनके जीवन का सबसे सुखद-शांतिपूर्ण समय था। आलोचनाएं, आक्षेप, बहिष्कार लगातार बढ़ रहे थे किंतु साथ में निराला का कद भी बढ़ रहा था। बल्कि कलम पर होते चौतरफा हमले उनके ओज और अभिव्यक्ति को पहले से अधिक धारदार बना रहे थे। ऐसा लगता था कि वे समय बहाव में बहे जा रहे थे। सीपियों से मोती बटोरते हुए, लहरों की मार झेलते हुए। 'शाम को भांग छानना दिनभर सुरर्ती फांकना, थियेटर देखना, साहित्यकारों से सरस वार्तालाप करना, मुक्त छंद में कविता लिखना - यही उनके जीवन का कार्यक्रम था। उस समय ऐसा लगता था कि मुंशी नवजादिक लाल, बाबू शिवपूजन सहाय और पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला एक तरफ और सारी खुदाई एक तरफ है।' (निराला - डॉ. रामविलास) तोड़ने की तमाम कोशिशें उनकी विराट चेतना के सामने बौनी साबित होने लगी थी। पर मतवाला से जुड़कर उसे अपनी दृढ़ता का वरदान देने वाले निराला की आभा की आंच को सहने में मतवाला समर्थ न हो सका। बीतते वर्ष के साथ मतवाला और निराला का रिश्ता भी खत्म हो गया। एक बार फिर आर्थिक दानव ने उन्हें अपनी गिरफत में ले लिया। बीमारी, बहिष्कार और बेकारी में हुआ एक और वज्रपात।
प्राणों से भी अधिक प्यारी बेटी ‘सरोज‘ की सांसें मुक्त कविता होना चाहती थी। खाली जेब लिए पिता छटपटाता रह गया। अहं का परम से मिलना तो पहले से तय था। अंतःचेतना भी संकेत दे चुकी थी। पर संकेत और सत्य में कितना बड़ा अंतर होता है यह निराला ने उस दिन जाना। जब उनके जीवन का एकमात्र 'शेष संबल' उनकी गोद में देह के बंधनों को तोड़ रहा था। दिवा सा तपता वो चेहरा कैसे एक पल में ओस की ठंडी बूंद हो गया, ये निरर्थक प्रश्न जाने कितनी बार उसने खुद से किया और जवाब न पाने पर खुद को ही धिक्कारा -
धन्ये मैं पिता निरर्थक/कुछ भी तेरे हित न कर सका !!
दुख के आधिक्य से उनका चेहरा स्याह हो गया। जाने कितनी देर वो मौन में डूबे रहे। वक्त के निशानों को थामने को थामने की कोशिश में एक अजीब सी बेचैनी टहलती रही कमरे में। आंसू बह जाते तो भी सुकून मिलता। कम से कम व्यथा, बह तो जाती। लेकिन यहां तो दुख धुआं बनकर जम गया था सांसों में। कुछ दिन यही हालत रही.... फिर कलम का आलम्बन पाकर पिछली सारी वेदना बह निकली 'सरोज स्मृति' बनकर... अपने प्रखर प्रहारों से जगत को हिलाने वाला कवि दर्द का चितेरा बनकर खड़ा हो गया 'शैली' और 'ग्रे' की जमात में। सरोज स्मृति केपल भावुक क्षणों की आवाज नहीं थी इसमें निराला की ज़िंदगी का हर एक कांटा है। व्यक्ति है। पिता है। कवि है...
शूलों के कवि पथ पर....
झुकता है सर, दुनिया से धोखा खाकर गिरता हूं जब मुझे उठा लेते हो तुम तब, ज्यों पानी को किरन तपाकर!! थ्कतना सही आकलन था स्वयं का । लीलाधर जगूड़ी, की मानें तो 'सिंधु अनल की ज्वाला को लिए फिरने वाले निराला के कई शेड हैं। कई रूप हैं। कई स्तर है।' जिसे समझने के लिए समग्र दृष्टि की आवश्यकता है, लेकिन विडम्बना यही है कि नियति और समाज ने निराला के आसपास जिस घोर उदासी और उपेक्षा को पैदा किया उसे पार करना निराला और उसके पाठकों दोनों के लिए सरल नहीं था। सार्वजनिक बहिष्कार, साहित्यिक विरोध, स्वजनों का बिछोह, अर्थाभाव... निराला जैसा प्रचण्ड व्यक्तित्व भी हिल गया। स्वांतः सुखाय का भाव गया तो सृजन भी लगभग बंद होने लगा किंतु परिजनों के हित को देखकर मजबूरी में ही सही फिर से कलम को थाम लिया। एक बार फिर मांग पर लिखना आरंभ हुआ। फिर जुड़ाव हुआ 'सुधा' और 'गंगा पुस्तक माला' से। सकारत्मक वातावरण मिला तो कलम की नोक पर सूखते भाव फिर से अप्सरा, अल्का, लिली और परिमल में बह निकले। ऐसा नहीं था कि आलोचक मौन हो गए थे। पर अब निराला को ही वक्र दृष्टि का जवाब देने की जरूरत महसूस नहीं होती। ‘अब किसी की आलोचना से, किसी की तारीफ से आगे आने की अपेक्षा मुझे नहीं रही। मैं खुद तमाम मुशिकलों को झेलता हुआ सामने आ चुका हूं।' प्रसाद, पंत, महादेवी जैसे समकालीन कवियों के साथ अंचल रामरतन भटनागर, डॉ. रामविलास, राहुल सांकृत्यायन जैसे मर्मज्ञों का स्नेह पाकर उनका साहित्यिक एकाकीपन बहुत हद तक दूर हो चला था। महादेवी के लिए तो वह सबसे समृद्ध भाई थे। 'पथ के साथी' में वे कहती हैं, ‘अपने सहज विश्वास से मेरे कच्चे सूत्र के बंधन को उन्होंने जो दृढ़ता और दीप्ति दी है। वह अन्यत्र दुर्लभ रहेगी।' प्रसाद का तो निराला पर अग्रज सम स्नेह था। हां पंत यदा-कदा प्रतिद्वंदी बन वार कर जाते थे, फिर निराला उनके कटाक्ष अनुज समझ भूल जाया करते। ('पल्लव' की भूमिका लिखते समय पंत ने निराला के छंद विधान पर आक्षेप किए थे। जिसके जवाब में निराला ने 'पंत और पल्लव' नामक ध्वंसात्मक लेख लिख पंत की काव्य कला की कलई खोल कर रख दी थी।)
निराला सचमुच ‘निराले‘ थे। एक ऐसा व्यक्ति जिसका विरोध एक तरफ था और स्नेह एक तरफ। विरोध की धूप स्नेह के साए से हमेशा हारती रही। एक बार समाचार पत्र में पंत की मृत्यु का समाचार छपा। घबराए से निराला महादेवी के घर पहुंच गए। महादेवी के ही शब्दों में - 'निराला लड़खड़ाकर सोफे पर बैठ गए और किसी अव्यक्त वेदना की तरंग के स्वर्श से मानो पाषाण में परिवर्तित होने लगे। उनकी झुकी पलकों से घुटनों पर चूने वाली आंसू की बूंदें बीच-बीच में ऐसे चमक जाती मानो प्रतिमा झड़े हुए जूही के फूल हों।‘ महादेवी ने तुरंत तार भेज दिया था पर बेचैन निराला को किसी क्षण चैन नहीं था। सारी रात बाहर बैठ कर गुजार दी। सवेरा होते-होते धैर्य छूट गया। भूली-बिसरी यादों को दोहराते होठों से गिरते शब्दों के साथ निराला भी गिर पड़े- ‘अब हम भी गिरते हैं। पंत के साथ तो रास्ता कम अखरता था, पर अब सोचकर ही थकान होती है‘ ...मुट्ठियों में कसे निराला के प्राण तभी वापस लौटे जब पंत के सकुशल होने का समाचार मिला। लेकिन काश! कि उस स्नेह का क्षणांश भी प्रतिदान में मिल पाता। सहज स्नेह का बदला निष्ठुर ठोकरों से ही मिला। जिस पंत के जाने की खबर भर सुनकर प्राणहीन हो गए थे निराला, वही पंत उनकी बीमारी की हालत में उनसे बिना मिले लौट गए। ये घटना है इलाहाबाद की । तब निराला लंबी बीमारी के चलते इलाहाबाद में नारायण चतुर्वेदी के घर में रह रहे थे। एक दिन पंत चतुर्वेदीजी से मिलने आए। उन्हें पता चला कि निराला भी वहीं, उसी छत के नीचे हैं पर वे बिना उनसे मिले चले गए। अब इसे क्या कहेंगे पंत का निर्मोही स्वभाव या निराला की नियति.....
इन्हीं दिनों निराला ने 'वर्तमान धर्म' नाम से एक लेख लिखकर 'विशाल भारत' में छपने के लिए भेजा। उस समय विशाल भारत में 'बनारसी दास चतुर्वेदी' संपादक थे। उन्होंने वह लेख 'साहित्यक सन्निपात' के शीर्षक से छापा। प्रशंसा और विरोध के स्वर एक बार फिर से तेज हो गए। इस बार हमला एकजुट होकर किया गया, इसलिए घाव भी ज्यादा गहरे हुए। बार-बार की ताड़ना से निराला टूटने लगे। भावनात्मक संबल के रूप में 'रामकृष्ण' का परिवार साथ था, पर जीवन संध्या में गया हुआ समय ज्यादा कचोटता था। पथ के साथियों को पीड़ा में दूंढ़ता मन कब आत्मकेंद्रित हो गया। स्वयं निराला को भी खबर न हुई। रंगीला में संपादन कार्य भी इसी मनोदशा के चलते छोड़ दिया।
कलकता से लखनऊ, लखनऊ से गढ़कोला, गढ़कोला से फिर लखनऊ और लखनऊ से फिर इलाहाबाद.... रचनाकार रूका नहीं, चलता रहा। कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध भी साथ-साथ चलते रहे। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि वो कौन सी जीवनी शक्ति थी, जो इस साधक को टूट कर भी टूटने नहीं देती। निरंतर घात-प्रतिघात सहते हुए निराला उस स्थिति में पहुंच गए थे जिसे सांसारिक लोग 'विक्षिप्ता' का नाम देते हैं। लंबे रेशमी बाल कटवा दिए। भविष्य में कविता न करने का प्रण लिया और कई दिनों तक किवाड़ बंद किए पड़े रहे और संवेदनाओं के चितेरे मौन देखते रहे एक इतिहास का क्षय। सुनते रहे नेपथ्य में गूंजती वाणी-
अभी न होगा मेरा अंत/अभी-अभी ही तो आया है मेरे बन में मृदुल वसंत...
और बुनते रहे तर्कों के जाल, कल्पना और यर्थार्थ के पक्ष में। यदि साहित्य जगत चाहता तो ‘काल पुरूष‘ को संभाला जा सकता था। पर ज्ञान के विरोधियों ने कमरे में बंद शेर के मौन को भी पागलपन का नाम दे दिया। निराला ने जगत को छोड़ दिया था किंतु जगत को तो उनके मार्गदर्शन की जरूरत थी। महादेवी के कच्चे सूत ने आखिर डूबते भाई को ऊपर खींच लिया। बंद द्वार खुल गए। सूखती कलम हरिया उठी। 'गीतिका', 'अनामिका', 'तुलसीदास', 'निरूपमा' लिखकर निराला ने दिखा दिया कि वो सच्चे अर्थों में महाप्राण है। अमृत पुत्र हैं। अपराजेय हैं....एक दीर्घ मौन के बाद भी न तो कलम की नोक भोथरी हुई थी न ही शब्दों का पैनापन कम हुआ था। कुछ भी तो नहीं बदला था न ओज, न हुंकार, न बिंब योजना, न प्रतीक विधान... वही भाव। वही भाषा। पर बदला तो था किंतु कविता नहीं कवि। कालिदास, तुलसीदास, रवींद्र के अमर चरण चिह्नों पर रखकर चरण चलने वाला कवि, 'नंगे पैर और नंगे सिर, कंधे में फटा हुआ कुर्ता टांगे और गंदी लुंगी (जो कभी-कभी घुटनों तक ही पहुंचती थी।) पहने हुए प्रयाग की सड़कों पर घूमते अक्सर देखा जा सकता था।‘ आदर्शों का बाण लेकर सामाजिक हीनताओं से कब तक लड़ते, मिटना तो था ही। लेकिन ये मिटना इतना मार्मिक होगा किसी ने सोचा भी न था। तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा कहने वाले कवि को कलम की रोशनी सुहाती न थी। वसंत को रचने वाला मृत्यु की नीली रेखा के पीछे चल पड़ा। संसार को आनंद के प्रकाश से भरने वाला अंधेरों और अकेलेपन में पूर्णता तलाश्ने लगा।
याद आता है 1915 की वसंत पंचमी का वो दिन। ठहरी हुई सांस जैसे उस धुप में कैद अंधेरे में कैद निराला मौन टकटकी लगाए। जाने किसकी प्रतीक्षा में दरवाजे को देख रहे थे। सवाल ये है कि क्या निराला वाकई अकेले थे या उन्हें अकेला कर दिया गया था? पद्मसिंह शर्मा कमलेश अपने संस्मरण में याद करते हैं - 11 बजे थे। निरालाजी अपनी कोठरी में थे। एकाएक उनके होंठों से हंसी फूट पड़ी, जो कोठरी में गूंज गई। वह कलाकार की लापरवाही थी जो अंधकार में व्यक्त हो रही थी। मैंने ऐसी हंसी कभी नहीं सुनी थी। उसका मर्म उनके अतिरिक्त कौन समझ सकता है? उसके बाद उन्हें बाहर खुली छत पर घूमते देखा। जब वे घूम रहे थे उनके कदमों की धमक से सारा घर हिल रहा था। बेचैन सिंह की भांति चक्कर लगाते इस कलाकार को देखकर गीता की पंक्ति स्मरण हो आई - 'या निशा सर्व भूतानां तस्याम् जागर्ति संयमी....'
निराला की ज़िंदगी की किताब के आखिरी पन्ने ऐसे ही दिनों से भरे पड़े हैं। उनसे गुजरना कितना कठिन रहा होगाए जबकि पढ़ने भर से एक गहरी टीस उतरती जाती है। दिन में बोझिल मौन और रातों में गूंजता अट्टाहास ..... हां वो सहज योगी अवश्य थे परंतु यह विक्षिप्तता वरदान में तो कदापि मांगी हुई नहीं थी। फिर किसने बांध दिया ये पाथेयए जिसके बोझ तले घुटने को विवश था 'वसंत' ... नहीं किसी पर कोई आक्षेप नहीं। शायद वक्त की ही साजिश थी कोई और फिर एक दिन (15 अक्टूबरए 1961) शीत के आने की खबर बांटती हवा अचानक बोझिल सी हो गई। मानों होंठों से गीत हटाकर किसी ने पलकों पर समंदर रख दिया। अपनी एक दृष्टि से भारती को बांध कवि चल दिया था ष्मुक्तिष् की राह पर छोड़कर जड़ जीवन के सारे संचित कौशल। उस दिन से आज तक सृष्टि मौन है और चारों तरफ गूंजता है .
सिर्फ एक अव्यक्त शब्द
चुप, चुप, चुप....
उपमा ऋचा
स्वतंत्र पत्रकार व रचनाकार