महान, शक्तिशाली और लोकप्रिय चंद्रगुप्त मौर्य के शासन के बाद मगध के राजसिंहासन पर उसका पुत्र बिंदुसार आसीन हुआ। इसका राज्यकाल 298-273 ई. पू. तक लगभग 25 वर्ष रहा। बिंदुसार के चार पुत्र थे- सुमन, अशोक
(Samrat Ashoka Biography in Hindi), तिष्य और महेंद्र। महाराज बिंदुसार शिव के उपासक और महान् दानी थे।
अशोक बचपन से कुशाग्रबुद्धी, उद्दंड और होनहार बालक था। एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी,
'यह बालक एक यशस्वी सम्राट बनेगा।' महाराज बिंदुसार ने अशोक की दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई प्रतिभा को देखकर मन-ही-मन यह निश्चय किया था कि वह ज्येष्ठ पुत्र सुमन को अपना उत्तराधिकारी न बनाकर अशोक को ही राज्य देंगे। अतः उन्होंने अशोक के युवा होते ही अपने मंत्रियों से परामर्श करके उसे युवराज घोषित कर दिया। युवराज होते ही पिता की अधीनता में अशोक ने उज्जयिनी और तक्षशिला का शासन खुद संभाल लिया।
अशोक एक वीर तथा प्रवीण
(Ashoka The Great) सेनापति था। एक बार तक्षशिला में विद्रोह हो जाने पर अशोक सेना लेकर वहां पहुंचा और उसने विद्रोह का दमन करके वहां पूर्णरूप से शांति स्थापित की। एक बार फिर तक्षशिला में विद्रोह हो गया। उसे शांत करने के लिए बिंदुसार ने अपने ज्येष्ठ पुत्र सुमन को भेजा। पीछे से बिंदुसार का देहांत हो गया। इस अवसर का लाभ उठाकर अशोक ने प्रधान अमात्य राधागुप्त की मंत्रणा से राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। सुमन को जब यह पता चला तो वह एक बड़ी सेना लेकर पाटलिपुत्र पर चढ़ आया, किंतु सुमन मारा गया।
अशोक ने मगध का शासन तो हथिया लिया, किंतु उसके राज्याभिषेक में अनेक बाधाएं उपस्थित होती रहीं, जिनका अशोक ने डटकर मुकाबला किया। महाराज बिंदुसार की मृत्यु के चार वर्ष बाद अशोक का बड़ा धूमधाम से राजतिलक हुआ। राजा बनते ही वे अपने पिता के समान नित्य हजारों ब्राह्नाणों को दान देते, पुध्यकार्य और धर्मपूर्वक आचरण करते रहे। इस राज्य की सुव्यवस्था में चंद्रगुप्त मौर्य की योग्यता, चाणक्य की नीति और बिंदुसार के सुप्रबंध के सारे गुण थे।
राज्याभिषेक के आठवें वर्ष एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना घटी, जिसने अशोक के जीवन को ही नहीं, अपितु भारत के इतिहास को भी बदल दिया। अशोक अब अपनी निपुणता से एक बड़े राज्य का अधिकारी था। उसे शत्रुओं का भय नहीं था। राज्य में सर्वत्र शांति का साम्राज्य था, परंतु अशोक को अपनी राजधानी से दूर एक शक्तिशाली छोटा-राज्य स्वतंत्र राज्य खटकता रहता था। इस राज्य का नाम था कलिंग। वह पहले कभी नंद साम्राज्य के अधीन था, किंतु उसने अपनी शक्ति द्वारा उस पराधीनता से मुक्ति पा ली थी। अशोक के पराक्रम, सैन्य-बल तथा नीति-निपुणता से कई राज्यों ने मगध की अधीनता स्वीकार कर ली थी, किंतु कलिंग ने मगध की अधीनता स्वीकार नहीं की। यहां तक कि बिंदुसार ने भी अपने दक्षिण के आक्रमण काल में कलिंग को छेड़ना उचित न समझा था। उसने कलिंग के तीन ओर के प्रदेशों को जीतकर उसे घेर अवश्य रखा था। अशोक ने प्रतिदिन बढ़ते हुए इस शक्तिशाली कलिंग को जीतने का निश्चय किया।
अशोक (Ashoka) के संकेत पर मगध की विशाल सेनाओं ने पूरे जोश से कलिंग पर आक्रण कर दिया। उधर से कलिंगराज की शक्तिशाली सेनाएं समरभूमी में आ डटीं। महान् नर-संहार हुआ। कलिंग की ओर से कलिंगराज स्वयं अपनी सेना के सेनापति बने। यह महायुद्ध कई महीने चला। कलिंग सैनिकों ने मगध सेना का डटकर मुकाबला किया। कलिंग की सेना संख्या में कम थी और कलिंगराज के युद्ध में मारे जाने से इसकी हार हो गई।
इतिहास के अनुसार इस युद्ध में एक लाख कलिंगवासी वीरगति को प्राप्त हुए, डेढ़ लाख बंदी बनाए गए, लगभग अतने ही मगध सैनिक भी युद्ध में काम आए। हजारों की संख्या में हाथी और घोड़े मारे गए। युद्धस्थल पर जहां तक दृष्टि जाती थी, शवों के ढेर-ही-ढेर थे, अथवा कराहते हुए आहत सैनिकों की दर्द-भरी चीखें सुनाई देती थीं। घायल हाथियों का चिंघाड़ना और अधमरे घोड़ों का हिनहिनाना दृश्य को और भी करूण बना रहा था। कलिंग का पतन और अपनी विजय का दृश्य देखने के लिए अशोक स्वयं युद्धभूमि में पहुंचा, परंतु इस भीषण नरसंहार को देखकर अशोक का ह्दय कांप उठा।
उसने मन में विचारा 'इतनी हत्याएं, इतना सामग्री-नाश और धन का नाश किसलिए? केवल इसलिए कि एक स्वतंत्र शासक को अपने अधीन किया जाए।'
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इस विचार से अशोक के मन में ग्लानि उत्पन्न हुई। उसका ह्दय उस दिन करूणा से पिघल गया। उसके ह्दय में मानव के प्रति सद्भाव उत्पन्न हो गया। उसने प्रण किया कि वह भविष्य में कभी रक्तपात नहीं करेगा, अपितु प्राणिमात्र के हित के लिए आजीवन प्रयत्न करेगा। अशोक की इस मानसिक क्रांति ने उसे भक्षक से रक्षक बना दिया। यह वह घटना है, जिसने अशोक को हिंसा के छोर से उठाकर अहिंसा के छोर पर ला खड़ा किया। दिग्विजयी अशोक अब प्रियदर्शी और देवानांप्रिय अशोक बन गया।
उसने निश्चय किया कि किसी को शस्त्र की शक्ति से जीतने की अपेक्षा उसे हार्दिक प्रेम से जीतना कहीं श्रेष्ठ हैं। पशुबल की अपेक्षा धर्मबल इसमें कही अधिक सहायक हो सकता है।
इस घटना के बाद अशोक का ध्यान महात्मा बुद्ध तथा बौद्ध धर्म की ओर गया। युद्ध से विरक्त और उदास मन को शांति का संदेश बौद्ध धर्म से प्राप्त हो सकता था, इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। युद्ध की ओर प्रवृत होनेवाला मन अब अहिंसा के पाठ से निर्लिप्त होकर दान-पुण्य और धार्मिक कार्यों में प्रवृत होने लगा। युद्ध के प्रायश्चित रूप में एकांतवास और धार्मिक कार्यों में अशोक के दो वर्ष बीत गए। दो वर्ष बाद उन्होंने आचार्य उपगुप्त का श्ष्यित्व स्वीकार किया। इसके बाद शासन की ओर से बौद्ध धर्म के प्रचार के अथक प्रयत्न किए जाने लगे। सम्राट अशोक बौद्ध धर्म के नियमों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी समस्त शक्ति अहिंसा और इस धर्म की उन्नति और प्रचार-प्रसार में लगा दी।
The Dhamma of Ashoka (अशोक का धम्म)
अपने धम्म एवं उसके प्रचार के कारण ही अशोक न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व का प्रसिद्ध व्यक्ति बन गया। अशोक ने बताया है कि धम्म पालन के लिए आवश्यक है-
- प्राणियों की हत्या न करना,
- माता-पिता की सेवा करना,
- वृद्धों की सेवा करना,
- गुरूजनों का सम्मान करना,
- मित्रों, परिचितों, ब्राह्णों, श्रमणों एवं दासों के साथ अच्छा व्यवहार करना,
- अल्प व्यय एवं अल्प संचय
अशोक ने पाँच दुर्गुण बताये हैं-
1. उग्रता 2. निष्ठुरता 3. क्रोध 4. गर्व 5. ईर्ष्या।
अशोक ने दूसरे एवं सातवें स्तम्भ लेख में धम्म की जो परिभाषा दी है वह
'राहुलोवाद सुत्त' (गेह विजय) से ली गई है।
वस्तुतः अशोक का धम्म आज भी प्रासंगिक है। यदि हम अशोक द्वारा बताये मार्ग पर चलें तो अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। अशोक का धर्म सभी धर्मों का सार है। यह सर्वधर्म समभाव एवं वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा पर अधारित है। इसके मूल में मानवता का कल्याण है।
अशोक के धम्म का प्रचार हेतु उपाय (Measures to Preach Dhamma of Ashoka)
गिरनार से प्राप्त तृतीय शिलालेख की द्वितीय व तृतीय पंक्ति में अशोक ने धम्म के प्रचार हेतु अपनाये उपायों को इस प्रकार लिखा है कि -
''मेरे सम्पूर्ण राज्य में युक्त, रज्जुक एवं प्रादेशिक प्रत्येक पांचवें वर्ष यात्रा पर निकलें और धम्म के निर्देशों का प्रचार करें और अन्य राज्य सम्बन्धी कार्य करें।'' अभिषेक के चौदहवें वर्ष अशोक ने धर्म महामात्रों की नियुक्ति की। इनका प्रमुख कार्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच बैर-भाव को समाप्त कर धर्म की एकता पर बल देना था। अशोक ने धम्म प्रचार हेतु भारत के विभिन्न भागों में धम्म की शिक्षाओं को शिलालेखों पर उत्कीर्ण कराया।
अशोक के इन्हीं अभिलेखों के आधार पर देवदत रामकृष्ण भण्डारकर महोदय ने अशोककालीन इतिहास लिखा है।
अशोक ने समस्त भारत के साथ-साथ विदेशों में भी धर्म प्रचारक भेजे। दूसरे एवं तेरहवें शिलालेख में अशोक उन देशों के नाम गिनाता है जहां उसने अपने दूत भेजे। इनमें चोल, पांड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपर्णि (श्रीलंका) एवं यवन राज्यों का उल्लेख मिलता है। अशोक के काल में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ। इस संगीति के पश्चात् विभिन्न देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु भिक्षु भेजे।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध धर्म को एशियायी धर्म बनाने में अशोक की महत्वपूर्ण भूमिका थी। राजबलि पाण्डेय ने उचित ही लिखा है -
''वास्तव में बिना किसी राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थ के धर्म के प्रचार का यह पहला उदाहरण था और इसका दूसरा उदाहरण अभी तक इतिहास में उपस्थित नहीं हुआ है।''
Ashoka's Death (अशोक की मृत्यु)
मगध पर अशोक ने लगभग 40 वर्षों तक शासन किया। इसके बाद अनुमानतः 234 ईसापूर्व में उसकी मृत्यु हुई। अशोक के कई संतान तथा रानियां थी पर इतिहासकारों को उनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं हैं। उसके पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा का बौद्ध धर्म के प्रचार में बहुत बड़ा योगदान था। उसके मृत्यु के बाद मौर्य राजवंश लगभग 50 वर्षों तक चला।
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