हम बचपन में जो भी सोच अपनाते हैं, वो उम्र भर हमारे साथ रहता है। इसमें कोई शक नहीं कि बचपन में हमारे लिए सकारात्मक सोच
(Positive Thinking) बनाना बेहद आसान होता है। अगर पैदाइशी मिज़ाज और बचपन के तज़रबे के मेल से आपकी सोच बन गया है, तो हम वाकई खुशकिस्मत हैं।
लेकिन जानबूझ कर या हालात की वजह से हमारी सोच नकारात्मक बन गया हो तो क्या हम उससे चिपके रहेंगे? कतई नहीं! क्या इसे बदला जा सकता है? हाँ! क्या ऐसा करना आसान होगा? बिल्कुल नहीं! क्या यह करने लायक है? यक़ीनन!
हमें जैसा भी माहौल, शिक्षा और तज़रबा मिला हो, पर बड़े होने के बाद हमारी सोच के लिए कौन जिम्मेदार है? खुद हम। हमें अपने व्यवहार और कामों की जिम्मेदारी क़बूल करनी होगी। कुछ लोग किसी ग़लती के लिए, खुद को छोड़ कर बाकी सभी लागों को दोषी ठहराते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हर सुबह हम अपनी सोच खुद चुने।
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नकारात्मक सोच
(Positive Thinking) वाले लोग अपनी असफलताओं के लिए अकसर माँ-बाप, शिक्षक, जीवनसाथी, बाँस, सितारों, तकदीर, आर्थिक स्थितियों और सरकार, यानी पूरी दुनिया को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं।
हमको अपने बीते दिनों से आज़ाद होना होगा। हमें अपनी शख़्यित पर जीम धूल को झाड़कर मुख्य धारा में शामिल होना होगा। हमें अपने सपनों की एक मुक़मिम्ल तस्वीर बना कर आगे बढ़ना होगा। सच्चाई, ईमानदारी और अच्छाई से जुड़ी चीजों के बारे में सोचने से हमारी सोच सकारात्मक हो जाएगी।