विद्यार्थियों का कर्तव्य विद्याध्ययन करना और पवित्र, दोषरहित ज्ञान को प्राप्त करना है। गीता हमें यह सिखाती है कि हम अपने कर्तव्य का पालन तन्मयता से करें और कर्म के फल की चिन्ता सर्वथा त्याग दें। संपूर्ण अष्टावक्र गीता व्याख्या सहित यहां पढ़े- अष्टावक्र गीता PDF। श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्यायों में सम्पादित 700 श्लोकों में से हर श्लोक ज्ञान-विज्ञान दर्शन-चिन्तन, कर्म-धर्म इत्यादि सभी मानवीय विधाओं के मार्गदर्शक प्रखर आलोक स्तम्भ हैं। नीचे संपूर्ण भागवत गीता के 700 श्लोक PDF के प्रसिद्ध श्लोकों का संकलन अर्थ सहित दिया गया है। गीता हमें धैर्य, मैत्री और क्षमाशीलता का पाठ पढ़ाती है। अतः हमें कोई कार्य उतावलेपन में नहीं करना चाहिए। नहीं तो बाद में पश्चाताप और ग्लानि होना अनिवार्य है।
गीता के 700 श्लोक अर्थ सहित PDF
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भागवत गीता के 700 श्लोक अर्थ सहित |
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15.1 MB |
विद्यार्थी जीवन में एकाग्रता की परम आवश्यकता है, क्योंकि जब तक एकाग्रता नहीं होगी तब तक स्वाध्याय ठीक से नहीं होगा। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में शुद्ध आहार-विहार पर विशेष बल दिया है। औषधि जैसे नाप-तौलकर ली जाती है, वैसे ही आहार निद्रा भी नपी तुली होनी चाहिए। हमें प्रत्येक इन्द्रिय पर पहरा देना चाहिए।
भोजन तो अधिक नहीं खा रहे हैं, आवश्यकता से अधिक सो तो नहीं रहे हैं, इत्यादि बातों की बारीकी से जाँच करते रहना चाहिए। जीवन में एकाग्रता लाने में सर्वाधिक सहायक साधन है ध्यान। प्रतिदिन ध्यान करने से मन शांत रहता है। इन्द्रियाँ नियंत्रित रहती हैं तथा एकाग्रता-शक्ति का विकास होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता प्रगतिशील जीवन का तेजस्वी स्वर है। गीता जीवन जीने की कला है इसकी अपेक्षा यह कहना उचित होगा कि गीता जीवन को सार्थक बनाने की कला है। ऐसा जीवन जो ज्ञान से प्रकाशवन हो, अटल हो, दृढ़प्रतिज्ञ हो, पद्मपत्र-सा जल में रहकर जल से असंपृक्त हो, भक्तिरस से सिंचित हो, सबके हित में रत हो, कर्म की ऊर्जा से स्पंदित हो। जिसमें न 'मैं' हो, न 'मेरा'। सबके प्रति समर्पित भाव हो, यज्ञमय हो। गीता का अधिकारी वही है जो तप में विश्वास करता है, जो कर्म में निष्ठा रखता है। गीता का मूल स्वर है- "उठ! कर्म कर। कर्म में तेरा अधिकर है, फल के प्रति आसक्ति छोड़। फलासक्ति कर्म को शिथिल करती है, मन को विचलित करती है क्योंकि इसमें लोभ छिपा होता है।"
गीता का उद्घोष है - 'अपने को तपा।' इस शरीर के बिना हमारे आगे की यात्रा कहाँ? मन का तप हमें मौन की महिमा तक ले जाता है, वाणी का तप हमें सत्य, प्रिय एवं हित में मेल बिठाने को प्रेरित करता है। तप के द्वारा समन्वित परिपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण होता है। वाणी, विचार एवं आचार के बीच समन्वय कर, समृद्ध व्यक्तित्व का निर्माण होता है। ऐसा व्यक्तित्व जो समाज से जुड़ा हो। प्रकृति के साथ यज्ञरूप हो और प्रभु को समर्पित हो।
भारतवर्ष के दार्शनिक धार्मिक साहित्य में श्रीमद्भगवद्गीता का विशिष्ट स्थान है। श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन परंपरा की ऐसी अक्षय निधि है जिसमें मनुष्यमात्र अपने जीवन को प्रशस्त करने के लिए, जीवनकाल में प्रत्यक्षीभूत समस्त समस्याओं के निवारण हेतु, जीवन दर्शन की नित्य-नीवन अनुभूतियों को प्राप्त करता हुआ, निधि में संचित रत्नों के सम्यक उपयोग से स्वयं जीवन रत्न बन कृत-कृत्य हुआ करता है। गीता ही एक मात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें मोक्ष की अवधारणा के साथ-साथ लौकिक कर्मशील जीवन का महनीय उपदेश दिया गया है। गीता मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्म, शिक्षा तथा आध्यात्मिक ज्ञान का अक्षय स्रोत है। गीता की उपयोगिता एवं उपादेयता सभी युगों के लिए तथा सभी देशों के मानवों के लिए है।
गीता अर्थात श्रीमद्भगवद्गीता भारत की सनातन गौरवपूर्ण विचारधारा का ऐसा प्राचीनतम मन्त्र-ग्रंथ है जो भारतीय भाषाओं की सीमा को लाँघ विश्व की प्रायः सभी सम्पन्न भाषाओं में अनुदित एवं उन देशों के मनीषियों द्वारा अपने-अपने देश की परिस्थिति की एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप मननशील व्याख्या भी पा चुकी है। इससे गीता-दर्शन और उसके संदेश की व्यापकता और मूल जीवनी शक्ति का अमृत ज्ञान विश्व के कोने-कोने तक पहुँचा है।
गीता धार्मिक ग्रंथ मात्र न होकर विश्व की अमूल्य थाती बन चुकी है। इसके अमृत-रस से जीवन का हर क्षेत्र अर्जित, विकसित और विभूषित हो सकता है। भारत में तिलक, युगपुरूष गांधी और 'सर्वोदय' के अन्वेषक सन्त विनोबा के चिन्तन, विचार, सिद्धान्त आदि पर गीता की गहरी छाप स्पष्ट प्रतीत होती है। गाँधी का 'अहिंसा दर्शन', 'विनोबा' का 'सर्वोदय दर्शन', तिलक का 'कर्मयोग' गीता के विशद उपदेशों की आंशिक परिणति ही प्रतीत होती है। अब यदि आधुनिक काल के इन मनीषियों के विचार विश्व-परिष्करण के संदर्भ में क्रांतिकारी हो सकते हैं तो शिक्षा और मनोविज्ञान जैसे मानवीय-मनीषा के क्षेत्र तो गीता का स्पर्श पाकर भी उर्वर हो सकते हैं।
गीता का उपदेश एक तीखे नैतिक अन्तर्द्वन्द्व के अवसर पर दिया गया था। उसके उपदेश की नाटकीय परिस्थिति उसे प्रत्येक ईमानदार अन्वेषक और जिज्ञासु के लिए महत्वपूर्ण और पठनीय बना देती है। गीता ने पार्थ को माध्यम बना युगों-युगों से जन-मन को अपने पावन मंत्रों की प्रेरणा से जीवन के लक्ष्य का बोध कराया है। उपासना, कर्म और ज्ञान तीनों तत्वों का समन्वित अनुशीलन मनुष्य को नैतिक सदाचारी और कर्मठ बनाता है। गीता का यही मूल उपदेश है। गीता की शिक्षा में प्रायः किसी भी धर्म को मानने वालों के लिए रोचक एवं महत्वपूर्ण सामग्री मिल सकती है।
गीता के कर्मवाद का उपासनामय ज्ञान आत्मविश्वास जागृत करता है। गीता के उपदेश किसी एक जाति, एक पंथ या संप्रदाय और राष्ट्र की संपत्ति न होकर संपूर्ण विश्व-पर्यावरण के हर अंगों-उपांगों के लिए भी एक आलोक-स्तम्भ है, एक अजस्र ज्योति स्तम्भ कभी धूमिल न पड़ने वाला ज्योत स्तम्भ कभी धूमिल न पड़ने वाला ज्योति कलश है।
संपूर्ण भागवत गीता सार व श्रीमद्भगवद्गीता भी महाभारत का ही एक भाग कहा जा सकता है। महाभारत के प्रत्येक पर्व के आरम्भ में अवतारवाद की प्रतिष्ठा हैं। अवतारों के माध्यम से धर्म की स्थापना व अधर्म का विनाश, महाभारत का प्रबल उद्घोष है। महाभारत में नीतिपरक आख्यानों तथा उपाख्यानों की भरमार है। ये आख्यान-उपाख्यान मानव को नीतिपरक कर्तव्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वस्तुतः महाभारत नैतिक शिक्षाओं का अभूतपूर्व भण्डार है।
महाभारत में विषयों का वैविध्य इतना है कि उसे किसी एक विशेष श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यही कारण है, कि विद्वानों ने इसे मानवीय ज्ञान का विश्वकोश कहकर पर्याप्त सम्मान प्रदान किया है। कई विद्वानों ने तो इसे पंचम वेद की संज्ञा प्रदान की है। धर्मार्थकाममोक्ष की उपलब्धि के लिए महाभारत ही सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। भक्ति की दृष्टि से श्रीमद्भागवत एवं श्रीमद्भगवद्गीता, दोनों प्रमुख ग्रंथ हैं। समय-समय पर विभिन्न धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों ने इन ग्रंथों को आधार बनाकर अपने भक्ति-दर्शन का मार्ग प्रशस्त किया है। भक्ति का मार्ग अन्य मार्गों में सबसे सुगम है।
नीति शब्द का संबंध सदाचार एवं मूल्य से है यह एक ऐसा शब्द है जो धर्म दर्शन का व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करता है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार कोई भी नैतिक सिद्धांत तात्विकता पर आधारित है अर्थात नैतिक सिद्धान्त का आधार होता है। दार्शनिक सिद्धान्त, जिसके अन्तर्गत मानव के कर्म एवं अन्तिम सत्य के मध्य का संबंध ही महत्वपूर्ण है। हम जिस सत्य को स्वीकारते हैं उसी के अनुसार कार्य करते हैं। दृष्टि एवं कर्म एक ही दिशा में अग्रसारित होते हैं। अगर हम व्यभिचार में विश्वास रखेंगे तो अत्याचार ही करेंगे। एक आत्म-तुष्ट मानवीयता का अपनी स्वयं की तात्विक पूर्वकल्पनाएँ होती हैं। यह हमारी आवश्यकता है कि हम उस देश एवं काल की परिधि में प्रकृति एवं उसकी संरचना के आधार पर व्यवहार करें। प्रकृति प्रयत्नशील है कि मानव जीवन इसके प्राकृतिक संपदाओं के कारण श्रेष्ठ रहे।
कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्धारण में नैतिकतावादी दृष्टिकोण निर्णायक भूमिका का निर्वाह करता है। क्योंकि एक ही काम किसी परिस्थिति में कल्याणकारी है और वह 'कर्तव्य' निर्वाह की परिभाषा में परिगणित होता है और वही काम अन्य किसी परिस्थिति में निषेधत्मक हो जाता है। तब यह कह पाना कि यह काम नैतिक है या अनैतिक है, अत्यंत दुष्कर हो जाता है। कारण, इसकी सत्ता सापेक्षिक है। गीता में सर्वत्र स्वधर्म पालन का संदेश दिया गया है। कहीं पर भी पर धर्म के पालन की बात नहीं कही गयी है। वस्तुतः इसका निषेध किया गया है। गीता में कर्तव्य कर्म की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में धर्म की सत्ता को सापेक्षिक माना गया है। स्वधर्म पालन की बात से यह पूर्णरूपेण स्पष्ट है।
गीता में यत्र-तत्र नैतिक अवधारणाएँ प्रस्फुटित हुई हैं। महाभारत के विविध घटना-प्रसंग, नैतिक नियमों के उल्लंघन की पराकाष्ठा है। परन्तु इन घटना-प्रसंगों के आने से कोई ग्रंथ अनैतिक नहीं हो जाता है, वस्तुतः महामुनि व्यास ने इन घटना प्रसंगों की अवधारणा से ही नैतिकता के सत्यादर्शों की स्थापना की है।
मित्रों, भागवत गीता के 700 श्लोक अर्थ सहित PDF में श्रीकृष्ण के विराट रूप दर्शन का औचित्य कई कारणों से हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा हैं और कृष्ण परम् कारण भी है। श्रीमद्भगवद्गीता में उनकी अलौकिकता को स्थापित और अभिव्यक्त करने के लिए इस विराट रूप दर्शन की योजना की गई है।