सद्गुरु श्री साहेब की बानी के बहुत ही ग्रंथ हैं, परन्तु मुख्य सत्य निर्णयरूप ग्रंथ बीजक है। उसमें रमैनी, साखी आदि बानी रक्खी हैं; परन्तु संस्कृत के श्लोक के समान मुख्य गूढ़ अर्थ की समझ होने की बहुत ही कठिनता है। कबीर के दोहे भी पढ़े- Kabir Ke Dohe PDF । बहुत से साधु-संत और ही और अर्थ लगाते रहे, याहीते कबीर पन्थियों में भी नाना पंथ हो गये हैं। कोई बिरले ही संत पूर्ण अर्थ जानते रहें और किसी बिरले ही साधु को यथार्थ बोध होता रहा। नीचे Sampuran Kabir Bijak PDF का link दिया गया है..
Kabir Bijak in Hindi PDF | कबीर बीजक
PDF Name |
कबीर बीजक | Kabir Bijak Hindi PDF |
No. of Pages |
1890 |
PDF Size |
14.1 MB |
PDF Quality |
High |
सत्तर वर्ष के पीछे बुरहानपुर नागझिरी स्थान पर एक कबीरपंथी संत-महात्मा श्रीपूरण साहेब केवल श्री कबीर साहेब के ही समान हो गये। उन्होंने यह सब न्यूनता देखकर दयालु स्वभाव से और अपने स्वानुभव से बीजक की त्रिजा बनाई, जिसको बीजक टीका कहते हैं। वही यह ग्रंथ है, जिसमें सब मूल बीजक का अर्थ सुलभता से सफा खोलकर दर्शाये हैं; और नाना मत मतांतरों के सिद्धान्तों की सब कसर बताय के जीव को जीवन्मुख स्थिति जैसे श्री कबीर साहेब उपदेश किये हैं।
कबीर जब यह मानते हैं कि उनको जुलाहा इसी कारण बनना पड़ा कि पूर्वजन्म में ब्राह्मण होने के बावजूद उनसे ईश्वर की आराधना में त्रुटि हो गयी थी तो उसकी व्यंजना यह है कि तुम भी वही त्रुटि कर रहे हो, जिससे मुझे डर लग रहा है कि कहीं तुम भी अगले जन्म में पड़कर जुलाहा न बना दिये जाओ। कुछ लोग इस उक्ति की व्यंजना न समझकर इसका यह तात्पर्य लेते हैं कि कबीर जाति-पाति में विश्वास करते थे अथवा ब्राह्यण कुल में जन्म लेने की साध उनके मन में बनी ही रही।
किन्तु ये कल्पनाएँ निराधार हैं, जैसा कि उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट है। अगली द्विपदी में तो कबीर का व्यंग्य बड़ा ही तीखा है। उनका कथन है कि सामान्य जन तो ढोरों की तरह अज्ञानी होते हैं, उनकी सुरक्षा तथा कल्याण का भार संपूर्ण रूप से उनके मालिक पर अर्थात ज्ञानी ब्राह्मणों पर रहता है; लेकिन वह गुसैयां कैसा जो एक ही जगह रोज जानवरों को चरने के लिए छोड़कर स्वयं चैन की नींद सोये और कभी भी पार उतारकर अच्छी चरागाह न दिखावे?
भारत में समय-समय पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा है। समन्वयवादी विचारधारा प्रवाहित होती रही है। द्रविड़ एवं आर्य संस्कृतियों का संगम हुआ है। धार्मिक समन्वयवाद भी पाया जाता है। इस देश में वैदिक धर्म, वैष्णव धर्म,
भागवत गीता, शैव धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के आचार्यों, मनीषियों, व्याख्याताओं एवं प्रचारकों का अंतिम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति और मानव-उद्धार है। साधना मार्ग भिन्न होने पर भी लक्ष्य-प्राप्ति एक ही है। उपास्य-देव और उनके नामों में भेद पाया जाता है। किसी भी धर्म में अन्य धर्मावलंबी का शत्रु बनने के लिए नहीं कहा गया है। आश्चर्य होता है कि धर्म के नाम पर एक-दूसरे से द्वेष और घृणा होती है। वास्तव में धर्म एक-दूसरे के प्रति सद्भाव पैदा करता है। मानव-जीवन के उत्थान का मार्ग बताया है।
भारत के उत्तर और दक्षिण भाग में दो संत कबीर और बसवेश्वर पैदा हुए। ये दोनों संत अपने धर्म का प्रचार करते हुए भी किसी भी धर्म के शत्रु या विरोधी नहीं थे। वे वास्तव में समन्वयवादी थे। कबीर ने वीरशैव संतों-शरणों की विचारधारा से प्रभावित होकर ही अपने स्वानुभूति के आधार पर विचार अभिव्यक्त किया है। मराठी भाषी हिन्दी संतों के माध्यम से ही हिन्दी प्रदेश के संतों ने वीरशैव दर्शन के कुछ मूल तत्वों को स्वीकार किया होगा।
संत साहित्य तथा शरण साहित्य ने हिन्दी एवं कर्नाटक प्रदेश की जनता के कल्याण के लिए जनता के उद्धार के लिए, जन-भाषा में कविता रचने की प्रेरणा दी है। लोक भाषा में लोक साहित्य की सृष्टि लोकमंगल और लोक-कल्याण के लिए की गई है। संत वाणी तथा शरण वाणी का जादू जन-समुदाय पर हुआ है। जन-साधारण को आकर्षित करने में लोकभाषा हिंदी एवं कन्नड़ सफल सिद्ध हुई है। संस्कृत की जटिलता से जनता को मुक्ति दिलाने में दोनों भाषाओं के संत यशस्वी हुए हैं। दिग्गज विद्वानों या तथाकथित ब्राह्मण पंडितों की संस्कृत भाषा की जगह लोकभाषा हिन्दी एवं कन्नड़ में धर्मों का सार प्रकट किया गया। अशिक्षित और शिक्षित दोनों के लिए ये भाषाएँ अभिव्यक्ति का सबल माध्यम सिद्ध हुई। प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्भीकतापूर्वक विरोध किया गया। परंपरागत, वर्णगत, वर्गगत, दलगत, भाषागत, छंदगत, रसगत, भेदापभेद को अस्वीकार किया गया।
संत और शरण उपेक्षित, पददलित, दीनहीन, निराश्रित, पीड़ित, अन्याय के कुचक्रों में पिसी हुई जनता के योग्य अवलम्बन मार्गदर्शक बने थे। भक्ति-आंदोलन धर्म व समाज सुधार का प्रभावशाली आंदोलन था। इसने मानवात्मा या विश्वात्मा को जगाने का भरसक प्रयत्न किया। आडंबरयुक्त धार्मिक संस्कारों का बहिष्कार हुआ है। रूढ़िवादी संप्रदायों पर से विश्वास उठ गया था। नवीन सुधारवादी दृष्किोण का प्रसार होने लगा। आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन की पवित्रता पर जोर दिया गया। अन्याय, अत्याचार, जुल्म और हिंसा के खिलाफ आवाज उठाई गई। धर्म और भक्ति की गर्जना के साथ धार्मिक एवं सामाजिक संघर्ष भी हुआ। ढोंगी एवं वेषधारी संन्यासियों का पर्दाफाश करने में सबसे आगे रहे। धर्म की बुनियाद, सच्चाई, सहृदयता, दया, करुणा, समानता, न्याय, संवेदनशीलता, सहानुभूति, सहायता, सहयोग और प्रेम को पुनः प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया। मानव-समानता के अधिकारों के लिए चुनौती दी गई।
इस युग के सूत्रधार संत कबीर और बसव थे। संत कबीर ने उत्तर भारत में मानव सेवा के लिए संघर्ष किया और बसवेश्वर ने दक्षिण भारत की जनता का उद्धार किया। इन दोनों संतों ने मानव की आत्मा की धड़कन को बहुत अच्छी तरह पहचाना था। वे एक आत्मा की डोर में समस्त मानवता को पिरोना चाहते थे। उनका विश्वास था कि सब में एक जैसी आत्मा है और उसी में परमात्मा समाया हुआ है। जीव और ब्रह्म या शिव के लय होने की बात आत्मविश्वास के साथ घोषित करते हैं। विचारों, भावनाओं एवं अनुभूतियों के धरातल पर मानवतावाद का प्रचार करते रहे। दोनों मानवीय संवेदनाओं के सच्चे पारखी थे। सब दर्शनों एवं सम्प्रदायों के मुकाबले में आत्मदर्शन को प्रदर्शित किया। ब्रह्म-शिव के एक होने के प्रमाण पेश किये। अनुभवों की आधारशिला पर मानव धर्म की प्रतिष्ठापना करने में सफल हुए। वास्तव में वे दोनों सच्चे एवं महान मानवतावादी थे।
दोस्तों, Kabir Bijak PDF में बताया गया है कि कबीर तथा बसव का चिंतन भारतीय दर्शन से अनुप्राणित है। उन्हें परम रहस्यानुभूति, प्रेमानुभूति व स्वानुभूति हुई थी। दोनों भावुक व रहस्यवादी थे।