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जीवन में खेलों का महत्व (Importance of Games in Hindi)

यहां पर खेल-कूद के महत्व पर प्रकाश डाला गया है तथा यह भी बताया गया है कि खेल-कूद को आधुनिक शिक्षा में पाठ्यक्रम का भाग कब बनाया गया। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट किया गया है कि विश्व-स्तर के खिलाड़ी किस प्रकार बनते हैं।

विद्यार्थी जीवन में खेल का महत्व
'खेल' शब्द का अर्थ है हिलना-डुलना अथवा गति करना। अतः शरीर के व्यायाम हेतु खेल-कूद का विशेष महत्व है। विभिन्न खेल शरीर की गति को नियमों में बाँधने से ही अस्तित्व में आए हैं। आदिकाल से ही लोग खेलों का आनंद लेते चले आ रहे हैं। अतः खेल की सामान्य परिभाषा नीचे दी गई है।

नियमों के अधीन कोई भी शारीरिक अथवा बौद्धिक प्रतियोगिता 'खेल' कहलाती है।


अधिकतर खेलों के लिए दो अथवा दो से अधिक खिलाड़ियों की आवश्यकता होती है। खेलों को निम्नलिखित दो मुख्य वर्गों में बाँटा जा सकता है-

  1. अकेले खेले जानेवाले खेल
  2. टीम के रूप में खेले जानेवाले खेल

इनके अतिरिक्त बच्चों के अनेक खेल हैं जो इनमें से किसी भी वर्ग में नहीं आते। उन्हें सामान्यतः खेल-कूद का नाम दिया गया है। खेल-कूद से शरीर फुर्तीला तो बनता ही है, साथ ही इससे बल भी मिलता है। इसी कारण बच्चों के लिए खेल-कूद अत्यंत आवश्यक है। इसके बिना बच्चे के शरीर तथा मस्तिष्क का उचित विकास नहीं हो पाता। इस तथ्य को आदिकाल से ही मानव समाज ने समझ लिया था। इसी कारण प्राचीन आश्रमों में गुरूजन शिष्यों की बौद्धिक शिक्षा के साथ-साथ उन्हें शारीरिक व्यायाम वाले खेलों का भी अभ्यास करवाते थे। इन्हीं खेलों में युद्ध-कलाएँ भी सम्मिलित थीं।

वास्तव में शारीरिक व्यायाम का आरंभ स्वास्थ्य-शिक्षा के रूप में 700 वर्ष ई. पू. यूनान में हो गया था। स्थान-स्थान पर किशोरों तथा युवा लड़कों के लिए व्यायामशालाएँ बनवा दी गई थीं, जहाँ उन्हें स्वास्थ्य-संबंधी शिक्षा दी जाती थी। यही युवक बड़े होकर सैनिक बनते थे। इन व्यायामशालाओं में उन्हें थाली की आकृति की एक वस्तु फेंकने का अभ्यास भी करवाया जाता था। इस वस्तु को डिस्कस कहा जाता तथा इस खेल को डिस्कस थ्रो कहते थे। इन युवकों को भाला फेंकने की कला की शिक्षा भी दी जाती थी। इसके अतिरिक्त दौड़ लगाने, शारीरिक व्यायामक रने तथा छलाँग लगाने की भी पूरी-पूरी जानकारी प्रदान की जाती थी। अठारहवीं शताब्दी में शारीरिक व्यायाम तथा विभिन्न खेल जर्मनी के विद्यालयों में पाठ्यक्रम का एक नियमित भाग बना दिए गए तथा इनको स्वास्थ्य-शिक्षा का नाम दे दिया गया।

कुछ ही समय में इंग्लैंड तथा स्वीडन के विद्यालयों में भी स्वास्थ्य-शिक्षा का नियमित प्रचलन दैनिक शिक्षा के अनिवार्य अंग के रूप में आरंभ हो गया। फलतः अन्य विषयों के अध्यापन के मध्य एक घंटे के लिए शारीरिक व्यायाम की विभिन्न गतिविधियाँ करवाई जाने लगीं।

उद्देश्य यह था कि बौद्धिक गतिविधि से हुई थकान तथा आलस्य को नूतनता (ताज़गी) में परिवर्तित करके छात्रों में नई स्फूर्ति जगाई जा सके। इस प्रकार स्वास्थ्य-शिक्षा को विद्यालयों के समस्त पाठ्यक्रम का एक अविच्छिन्न अंग बना दिया गया। इसके फलस्वरूप शिक्षा की परिभाषा ही बदल गई। शिक्षा का अर्थ केवल बौद्धिक विकास न रहकर शारीरिक विकास भी इसका अभिन्न अंग बन गया। धीरे-धीरे स्वास्थ्य-शिक्षा के नाम पर प्राथमिक विद्यालयों के नन्हें छात्रों के लिए भी विभिन्न हलके शारीरिक व्यायाम तथा शिशु-खेल प्रचलित हो गए। इससे शिक्षा का रूचिकर हो जाना स्वाभाविक था। साथ ही, शिशुओें की गतिपरक कुशलताओं (motor skills) में भी सुधार होने लगा।

प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों के माध्यमिक कक्षाओं में आने पर उनके लिए विभिन्न शारीरिक गतिविधियों, टीम-खेलों, आमोद-प्रमोद कार्यक्रम और रचनात्मक कार्यों का अभ्यास भी प्रचलित हो गया। फलतः वे दौड़, छलाँग, संतुलन तथा फेंकनेवाले खेलों में अद्भुत कारनामें दिखाने लगे। उनके शारीरिक बल, लचक तथा प्रतिभा उभरकर सामने आए। इसके परिणामस्वरूप वे बड़े-बड़े खेलों में भी भाग लेने में समर्थ हो गए।

आयु में और बड़े हो जाने पर विद्यार्थियों को बड़े-बड़े खेलों की उपांगिक गतिविधियों की शिक्षा दी जाने लगी, जैसे फुटबाँल के लिए किक लगाने, वाॅली-बाॅल के लिए पास देने, छोटी दूरी की दौड़ तथा लंबी और ऊँची छलाँग आदि। किशोरावस्था के अंतिम वर्षों की ओर पहुंचने के समय तक विद्यार्थी स्वयं बड़ी-बड़ी खेलों में भाग लेने के योग्य होने लगे तथा नियमों का पालन करते हुए खेल को जीतने की रणनीतियों की खोज करना उनके लिए सर्वथा संभव तथा सुगम हो गया।

युवा होकर उच्चतर कक्षाओं तथा काॅलेज के स्तर तक पहुंचने तक विद्यार्थी शारीरिक स्वस्थता तथा तनाव-नियंत्रण की कलाएँ भी सीख पाने में प्रवीण होने लगे तथा श्रांति और क्लांति से जूझकर विजय पा लेने का गुण उनमें आ जाना स्वाभाविक-सी बात हो गई। इसके पश्चात किसी प्रशिक्षक के अधीन अभ्यास पाकर किसी भी खेल में चमकना तथा विश्व-स्तर पर नाम पैदा करना कोई कठिन समस्या न रही। स्मरण रखें कि हाॅकी, फुटबाॅल, मल्लयुद्ध, टेनिस, स्केटिंग तथा क्रिकेट आदि खेलों में शिक्षक के अधीन अभ्यास अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।

आजकल विद्यालय-स्तर पर खेलोत्सवों की अपनी ही महत्ता है। एक ही विद्यालय की दो टीमों या किसी क्षेत्र के एकाधिक विद्यालयों की आयोजित खेल-प्रतियोगिताएँ अपने-अपने प्रांत के लिए मँजे हुए खिलाड़ी उत्पन्न करती हैं। प्रांतों के खिलाड़ियों में से राष्ट्रीय टीमों का चयन किया जाता है। ये टीमें विश्व-स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेती हैं तथा बड़े-बड़े कप तथा ट्राॅफियाँ जीतकर अपने-अपने देशों का सम्मान बढ़ाती हैं।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि खेलों का महत्व बौद्धिक सफलताओं से किसी प्रकार कम नहीं है। बौद्धिक क्षेत्रों में चमकनेवाले सितारे साहित्य, विज्ञान, खगोल विद्या आदि क्षेत्रों में अपने करतब दिखाते हैं तो खेल-जगत के सितारे खेल के मैदानों और युद्ध-क्षेत्रों में। सत्य ही कहा गया है - अधिकतर युद्ध खेल के मैदानों में जीते जाते हैं।

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