एक समय था जब भारत के ऋषि-मुनि वनों में आश्रमों में मिट्टी व भूसे की कुटिया बनाकर रहते थे। ऐसे ही एक आश्रम में उत्तंक नाम का एक बालक रहता था।
कई वर्ष बीते और वह बड़ा हो गया। शीघ्र ही उसने वे सब विद्याएं सीख लीं जो उसके गुरू उसे सिखा सकते थे।
एक दिन वह अपने गुरू के पास जाकर बोला, "गुरूवर, आपने इतने वर्ष मुझे शिक्षा दी पर मैंने कभी एक बार भी आपको कुछ नहीं दिया। ऐसी किसी भेंट का नाम बताइए जो मैं आपको दे सकूं और जिसे पाकर आप खुश हों।"
उसके गुरू ने कहा, "वत्स, मुझे कुछ नहीं चाहिए। तुम अपनी गुरूमाता के पास जाकर उनसे पूछ लो।"
सो उत्तंक ने अपनी गुरूमाता के पास जाकर, झुक कर उन्हें प्रणाम करके उनसे पूछा कि ऐसी कौन सी वस्तु है जो वे पाना चाहती हों।
"हां", उन्होंने उत्तर दिया, "मुझे बहुत दिनों से वे कर्णफूल पहनने की इच्छा है जिन्हें महारानी पहनती हैं। उनके पास जाकर मेरे लिए उन्हें ले आओ। मैं उत्सव के दिन उन्हें पहनना चाहती हूं। मुझे कर्णफूल ला दो तब मैं समझूंगी कि तुम्हारी भक्ति सच्ची है।"
यह सुनकर उत्तंक घबरा गया। फिर भी जंगल के रास्ते वह उस नगर के लिए चल पड़ा जहां राजा का निवास था।
वह अभी थोड़ी ही दूर गया था कि एक भीमकाय बैल को अपनी ओर आते देखा। जैसे-जैसे वह समीप आया उत्तंक ने उस पर एक इतने बड़े आदमी को बैठे देखा कि वह डर कर पीछे हट गया। परंतु उस व्यक्ति ने पुकारा, "उत्तंक! इसे पी लो," और उसने गंदे पानी का एक प्याला आगे बढ़ाया। उत्तंक ने मुंह मोड़ लिया पर वह व्यक्ति बोला, "पी लो, उत्तंक, यह मार्ग में तुम्हारी सहायता करेगा।"
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अंत में वह राजा के महल में पहुंच गया। साहसपूर्वक उसने महन के भीतर प्रवेश किया और जब तक राजसिंहासन पर आसीन स्वयं राजा को नहीं देखा, तब तक अपने आसपास कुछ देखने के लिए नहीं रूका। 'महाराज,' उत्तंक ने प्रणाम करके कहा, "मैं यहां से कई मील दूर, वन के एक आश्रम से आया हूं। मेरी गुरूमाता उत्सव के दिन महारानी के कर्णफूल पहनना चाहती हैं और यदि मैं उनके लिए उन्हें न ले गया तो अपने गुरू की नजरों में गिर जाऊंगा।"
महाराज बालक पर दया करके मुस्कराए। "उसके लिए तो तुम्हें महारानी से कहना चाहिए", वे बोले, उनके कक्ष में जाओ और उनसे मांगो।
उत्तंक महारानी के कक्ष में गया परंतु उसे वे न मिली। वह राजा के पास लौटा आया और बोला, "महाराज, वे मुझे मिली नहीं।"
महाराज ने यात्रा की धूल से सने कपड़ों और मैले-कुचैले हाथ-पैरों वाले उत्तंक को सामने खड़े देखा। "क्या तुम रानी के सामने ऐसे जाओगे?" वे बोले।
उत्तंक लज्जित हो गया। नहा-धोकर, स्वच्छ होकर वह फिर महारानी को ढूंढ़ने गया। इस बार वे उसे मिल गई।
महारानी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और उत्तंक ने उनकी हथेली पर चमकते कर्णफूल देखे। ‘तुम एक अच्छे बालक हो उत्तंक,‘ वे बोली। ‘मैं स्वेच्छा से तुम्हें कर्णफूल देती हूं। परंतु सावधान। बहुत दिनों से इन पर सर्पराज की दृष्टि है। इन्हें गंवा मत देना।‘
उत्तंक ने उन्हें धन्यवाद दिया एवं घर के लिए निकल पड़ा। शाम हो रही थी और वह थका हुआ था। एक पेड़ के तने का सहारा लेकर अपने समीप ही भूमि पर कर्णफूल रखकर वह विश्राम करने लगा। सहसा उसने एक हाथ को कर्णफूल खींच कर गायब होते हुए देखा। वह उछल कर खड़ा हो गया। वह जैसे ही मुड़ा, उसने उसने देखा कि फटे-पुराने वस्त्र पहने, एक आदमी जंगल में भागा जा रहा है। उत्तंक जितनी तेज दौड़ सकता था उसके पीछे दौड़ा पर तभी वह आदमी सर्प बन गया और रंेग कर भूमि में एक बिल में खुस गया।
उत्तंक अत्यंत दुखी था। प्रयत्न करने पर भी इतने छोटे बिल में प्रवेश करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। वह बैठा भाग्य को कोस रहा था कि तभी एक बूढ़ा आदमी उसके सामने प्रकट हुआ।
"चिंता न करो, पुत्र", वह बोला, "मैं तुम्हारी मदद करने आया हूं।" तभी बिजली चमकी, गर्जन हुई और भीषण वज्रपात हुआ। सारी धरती कांप उठी। सहसा सब कुछ पुनः शांत हो गया पर जहां उत्तंक खड़ा था उसके समीप ही भूमि में एक बड़ा छेद हो गया।
उत्तंक ने छेद में प्रवेश किया और स्वयं को सर्पराज के राज्य में पाया। वह धीरे-धीरे चलता गया और एक कपड़ा बुनती दो स्त्रियों के समीप पहुंचा। उसने उनसे सर्पराज के महल का मार्ग पूछा। उन्होंने उसकी बात न सुनी और बुनने में लगी रही। उसने देखा उनका वस्त्र काले और सफेद धागों से बुना हुआ था।
फिर वह बारह तीलियों वाले एक पहिए के पास पहुंचा। छह लड़के इस पहिए को घुमा रहे थे। "तुम क्या कर रहे हो?" उसने लड़कों से पूछा। उन्होंने उसे कोई उत्तर न दिया। अतः वह आगे चलता गया बहुत सुंदर घोड़े वाले एक आदमी को देखा।
उत्तंक उसके पास गया। वह घोड़े से इतना प्रभावित हो गया कि आदरपूर्वक उस आदमी को प्रणाम करके बोला "हे प्रभु, मैं आपको प्रणाम करता हूं। मुझ पर एक उपकार कीजिए।"
वह आदमी मुड़ा, "मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं।"
उत्तंक ने उत्तर दिया, "सर्पराज को मेरे वश में कर दीजिए।"
"इस घोड़े पर फूंक मारो," वह आदमी बोला।
उत्तंक घोड़े के पास गया और फूंक मारता ही गया। घोड़े के शरीर के हर बाल से एक ज्वाला निकली और सर्पराज के राज्य के कोने-कोने में फैल गई। उसने सारे घर जला दिए और तब सब सर्प बाहर निकल कर उत्तंक से अपने प्राण बचाने की प्रार्थना करने लगे।
"सर्पराज से कहो कि कर्णफूल लौटा दे," उत्तंक ने कहा।
तब सब सर्पों ने राजा से कर्णफूल लौटा देने की मांग की। उसने लौटा दिए।
उस आदमी ने उत्तंक को वह घोड़ा दिया और कुछ ही क्षणों में वापस आश्रम पहुंच कर उसने सही समय पर उत्सव में पहनने के लिए अपनी गुरूमाता को कर्णफूल दे दिए। उन्होंने उसे उसके परम साहस के लिए आशीर्वाद दिया।
जब उत्तंक ने अपना अपूर्व अनुभव सुनाया तो उसके गुरू मुस्कराए और बोले, "पुत्र, वह गंदा पानी जो तुमने पिया, अमृत था। वह तुम्हें शाश्वत युवावस्था प्रदान करेगा। काले व सफेद धागों को बुनती दो स्त्रियां रात और दिन हैं। बारह तीलियों वाला पहिया बारह महीनों वाला वर्ष है और लड़के छह ऋतुएं हैं। वह आदमी वर्षा का देवता था और घोड़ा अग्नि का देवता। पुत्र, तुम्हारी बहुत अच्छी रक्षा की गई और तुम मेरे आशीर्वाद के योग्य हो। अब संसार में जाओ क्योंकि परम सौभाग्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।"
इस प्रकार, अपने कर्तव्यों का पालन करके उत्तंक संसार में आजीविका खोजने निकल पड़ा। वह अन्य मनुष्यों जैसा नहीं था क्योंकि वह जानता था कि ईश्वर ने उसकी रक्षा की है। उसे कोई भय न था।
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