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सुजाता


kids bedtime hindi story

पूर्णमासी की पूर्वसंध्या थी। सुजाता अपने छोटे से घर के खंभे के सहारे बैठी थी। जहां वह बैठी थी वहां से वह दूर, मैदानों के परे तक देख सकती थी। गायों को हांकते हुए अपने पिता की आवाज उसे सुनाई पड़ी। लगभग एक हजार गायें जिन पर उन्हें बहुत गर्व था। प्रतिदिन प्रातः एक चरवाहे की निगरानी में उन्हें गांव के बाहर चरागाह में भेजा जाता था। शाम को वह उन्हें वापस ले आता और उनके स्वामी उन्हें गांव के फाटक पर ले लेते।


सभी मकान सलीके से पंक्तियों में बने हुए थे परंतु गलियां तंग थीं। यदि कोई एक ओर खड़ा होता और उसकी बांह कुछ और लंबी होती तो मानो सामने वाले घर की दीवार को छू ही लेता। पर गलियों में कोई भी अधिक समय न बिताता था। सभी त्यौहार गांव के बाहर वाले पेड़ों के झुरमुट में मनाए जाते थे। गांव की सार्वजनिक सभा इसी स्थान पर बैठकर गांव से संबंधित विषयों पर विचार करती थी। दिन भर तो ढेरों काम होते थे। सिंचाई के लिए नहरें खोदना, मवेशियों की देखभाल, औरतों के लिए सिलाई-बुनाई तथा घर व बच्चों की देख-रेख।

आज सुजाता बहुत थकी हुई थी। दिन की समाप्ति का स्वागत था क्योंकि अब वह घड़ी भर बैठकर विश्राम कर सकती थी और गौतम के विषय में सोच सकती थी। इधर मानों उसका जीवन उन्हीं के विषय में सोचने तथा उनके लिए प्रार्थना करने में ही बीत रहा था। वे महात्मा वस्तुतः उसके गांव, उरूवेला, के निकट वाले जंगल में रहने आए हुए थे तथा उसके पिता गांव के प्रमुख थे।

सुजाता ने गौतम के विषय में अनेक कथाएं सुन रखी थीं- कैसे उनके जन्म लेने के समय गूंगे बोलने लग गए थे, लंगड़े चलने लग गए थे और धरती फूलों से ढक गई थी। उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया और उन्हें पूरा सम्मान दिया गया क्योंकि गौतम कुल के उसके पिता कपिलवस्तु में रहने वाली शक्य जाति के मुखिया थे।

इकलौता पुत्र होने कारण इनके पिता ने इन्हें तीन मकान दिए- एक ग्रीष्म के लिए, एक शीत के लिए तथा एक वर्षा ऋतु के लिए। मकानों के चारों ओर बगीचे थे और सिद्धार्थ के आसपास सब प्रकार का सौंदर्य बिखरा था। परंतु गौतम बहुत उदास थे क्योंकि उन्होंने तीन ऐसे दृश्य देखे थे जिन्हें वे भुला न पाते थे और जिनके कारण उन्हें नींद तक न आती थी। वे दृश्य थे बीमारी, बुढ़ापा तथा मृत्यु के। वे समझ नहीं पाए कि मनुष्य रोगग्रस्त क्यों होते हैं, उन पर बुढ़ापा क्यों आता है और उनकी मृत्यु क्यों होती है।

अतः, एक रात गौतम ने अपना सुंदर महल त्याग दिया। अपनी पत्नी एवं पुत्र को, अपने शानदार वस्त्रों व आभूषणों को त्याग दिया। एक संन्यासी का वेश बना कर वे सारे संसार में, सारे दुखों को मिटा देने वाला उत्तर खोजने के लिए निकल पड़े।

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अपने पिता का महल त्याग देने तथा अत्यंत कठोर तपस्या करने पर भी गौतम अंतिम उत्तर नहीं खोज पाए और उनके अनेक अनुयायी उन्हें छोड़ गए।

यह सब तथा और भी, सुजाता ने सुन रखा था। अब वे निरंजना नदी के तट पर उसके घर के समीप निवास कर रहे थे।

इन्हीं विचारों में मग्न बैठी सुजाता ने प्रार्थना की कि गौतम को शीघ्र ही "बोध" की प्राप्ति हो जाए। वह नहीं जानती थी कि बोध क्या था, परंतु अतना जानती थी कि वह अवश्य कोई महत्वपूर्ण वस्तु है जिसके लिए एक मनुष्य अपना महल त्याग कर भिक्षुक बन गया है। "काश, किसी भांति, मैं उनकी इच्छा-पूर्ति में सहयोग दे पाती।" उसने सोचा। पिछले कई दिनों में उसने आठ सौ लोगों को भोजन कराया था, इसी आशा में कि किसी प्रकार यह भोजन उन तक पहुंच जाए। पर कोई लाभ नहीं हुआ। गौतम उपवास कर रहे थे।

उस रात सुजाता दुखी मन से यही सोचती सो गई कि किस प्रकार वह उनके कुछ काम आए। नींद आने के समय उसके मन में अंतिम विचार पीपल के वृक्ष के नीचे अकेले गौतम के बारे में था और उसने स्वप्न देखा कि कोई आकर उससे कह रहा है कि गौतम ने उपवास समाप्त कर दिया है। वे पुनः भोजन ग्रहण करने के इच्छुक हैं और उसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई है।

पर्वतों पर उषा के मंद-गति से आगमन के साथ सुजाता चौंक कर उठी। उत्साह के कारण उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। उसने अपनी दासी राधा को जगाया। दो षड्यंत्रकारियों के समान वे चुपके से घर के बाहर आई और अपनी सर्वश्रेष्ठ आठ गायों का दूध दुहा। फिर चमकते नए बर्तनों में उस दूध को उबाल कर चावल मिलाए तथा खाने लायक गाढ़ा होने तक उसे पकाया।

इस डर से कि कहीं काम निबटने से पूर्व गौतम चले न जाएं, उसने राधा को वह स्थान देखने भेजा। वह जानती थी कि गौतम वहां होंगे। वह लड़की बड़े उत्साह से वापस दौड़ी आई और बोली ‘हे स्वामिनी! उस वृक्ष में कोई वन-देवता है और सारी जगह पर ऐसा प्रकाश है मानो आग जल रही हो।‘


सुजाता का मन उल्लास से भर गया क्योंकि वह जान गई कि गौतम अभी वहीं हैं। वह एक सोने का पात्र लाई और उसमें खीर डाली, फिर एक पतले, सफेद मलमल के टुकड़े से ढांप दिया। वह स्वयं उसे अपने सिर पर रख कर ले गई और राधा सहमी हुई उसके पीछे-पीछे गई। वे दोनों पीपल के पेड़ के समीप पहंुची और सुजाता ने खीर का पात्र गौतम के हाथ में देते हुए कहा "हे प्रभु! मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए। आपको भी वैसा ही आनंद प्राप्त हो जैसा मुझे मिला है- और आगे शीश नवा कर मन में यह हर्ष लिए वह चल पड़ी कि वह गौतम की सेवा कर पाई।"

गौतम ने आभार प्रकट करते हुए खीर ले ली। उसे खाने से पूर्व स्नान करके वस्त्र बदलने के लिए वे नदी पर गए। अपना उपवास तोड़ने के बाद उन्होंने पात्र को लेकर नदी में फेंकते हुए कहा, ‘यदि मुझे आज ज्ञान प्राप्त होना है तो यह पात्र ऊपर की ओर बह जाए, यदि नहीं, तो यह नीचे की ओर बह जाए। निश्चय ही वह ऊपर की ओर बह गया और उसी दिन भगवान् गौतम बुद्ध ने जीवन की एक नई पद्धति खोज ली जिससे वे और संपूर्ण मानवजाति दुख तथा वेदना से ऊपर उठने में समर्थ हो गए।‘

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