एक अत्यंत रूपवान राजकुमार था शांतनु। वह न केवल एक बुद्धीमान एवं योग्य राजा था बल्कि शिकार खेलना भी उसे बहुत पसंद था। वह प्रायः घोड़े पर सवार वनों में घूमता रहता था। परंतु उसे केवल एक ही दुख था। उसे अब तक सुंदर कन्या नहीं मिली थी जो उसकी रानी बनने योग्य हो।
एक दिन गंगा नदी के तट पर घूमते हुए शांतनु ने वृक्ष के तले सोई एक कन्या को देखा। बादलों के समान केश उसके कोमल मुख को घेरे थे और उसके अंगों का सौंदर्य ऐसा था कि राजकुमार सांस रोके खड़ा उसे देखता रहा। आखिर वह हिली और उसे देखने लगी। उसकी आंखों में चमक थी, भय तो उसमें लेशमात्र न था।
बहुत समय तक वे एक दूसरे को देखते रहे। म नही मन राजकुमार ने निश्चय किया कि वह इसी कन्या को अपनी रानी बनाएगा। 'हे रूपवती कन्या', वह बोला, 'संपूर्ण राज्य में खोज करने के पश्चात् तुम्हें ही अपनी पत्नी बनाने योग्य पाया है। मेरे साथ महल में चलो और मेरी रानी बनो।'
कन्या ले लज्जा अपनी आंखे झुका ली और धीमे स्वर में बोली ‘हे राजकुमार! टापकी रानी बनने में मुझे प्रसन्नता होगी। परंतु मुझपर एक श्राप है। पत्नी के रूप में मैं चाहे कुछ भी करूं तुम कभी मुझसे कठोर वचन न कहोगे। तुम्हारे ऐसा करने पर मुझे तुमको छोड़ कर जाना होगा।‘
राजकुमार ने उत्तर दिया, 'हे देवकन्या, तथास्तु।' और वह उसको अपने घोड़े पर बैठा कर अपने महल में ले गया।
वे सचमुच आनंदपूर्वक रहने लगे और राजकुमार ने कभी उससे कोई ऐसे वचन न कहे जो प्रेमपूरित न हों।
शीघ्र ही उनके एक पुत्र का जन्म हुआ। राजा को यह देख कर घोर दुख हुआ कि उसकी रानी ने पुत्र को गंगा नदी में बहा दिया।
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श्राजकुमार को कुछ कहने का साहस न हुआ। उनके छह और पुत्र हुए, उसने उन सब को नदी में बहा दिया। परंतु ज बवह आठवें पुत्र को बहाने लगी तो राजा स्वयं को रोक न पाया। 'मैं एक राक्षसी से विवाह किया है,' उसने सोचा, 'इसके आकर्षक मुख के पीछे एक पापी हृदय छिपा है।' और वह बड़े क्रोध से उससे बोला, 'तुम कौन हो?' उसने पूछा, 'क्या तुम कोई हत्यारिन हो जो मेरा सर्वनाश करने आई हो?' उसका चेहरा कठोर एवं क्षमारहित था।
वह उसकी ओर मुड़ी, वह पहले से कहीं अधिक सुंदर दिखाई दे रही थी। 'हे राजन!' उसने मधुर स्वर में कहा, 'तुम्हारी महान सहनशक्ति पर मैं चकित हूं और इसके लिए तुम्हें निश्चय ही सुफल प्राप्त होगा। पर मुझे तुम्हें छोड़कर जाना होगा क्योंकि तुमने मुझसे कठोर वचन कहे हैं। मैं गंगा हूं, इस नदी की पुत्री। देवताओं ने मुझे तुम्हारे पास भेजा था। जिन सात पुत्रों को मैंने नदी में बहा दिया वे दिव्य थे जिन्हें श्रापवश इस धरती पर जन्म लेना पड़ा पर वे जन्म लेते ही इस जीवन से मुक्ति पाना चाहते थे। आठवें को धरती पर लंबा जीवन जीने का श्राप मिला है।'
'इनकी मां बनने के लिए मैंने मानव शरीर धारण किया। मेरा काम हो गया और मुझे तुमको छोड़ना होगा। जिस पुत्र को तुमने बचाया है उसकी अच्छी देखभाल करना तथा मेरी खातिर इसका नाम गांगेय रखना।' ऐसा कहकर वह देवी अंतर्धान हो गई और राजा उदास होकर महल लौट आया।
बाद में गांगेय का नाम भीष्म पड़ा, जो एक आदर्श पुरूष बने।
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