चुनमुन के पास मिट्टी की एक सुंदर गुल्लक थी, गुड्डे के आकार की। उस गुड्डे के सिर पर एक लंबा छेद था, जिससे चुनमुन उसके अंदर सिक्के डालती थी। उसकी मम्मी रोज़ उसे एक सिक्का देती थीं। चुनमुन गुल्लक को हिलाती थी तो खन-खन की आवाज़ के साथ सिक्के हिलते थे। इससे चुनमुन को पता चल जाता था कि गुल्लक अभी थोड़ी ख़ाली है।
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि उसने गुल्लक को धीरे से हिलाया, लेकिन कोई आवाज़ ही नहीं आई। उसने फिर से, थोड़ा ज़ोर-से गुल्लक को हिलाया, फिर भी आवाज़ नहीं हुई। चुनमुन खुशी से चिल्ललाई, 'मम्मी...मेरी गुल्लक भर गई। देखो न! आवाज़ ही नहीं आ रही है।'
चुनमुन के आस-पास बहुत से खिलौने पड़े हुए थे। उन्होंने यह बात सुनी। वे आपस में काना-फूसी करने लगे .... कार बोली, 'सुना तुमने, गुल्लक पूरी भर गई है।‘
'हां, मैंने भी सुना। कितने सारे पैसे होंगे अंदर!' जोकर बोला।
'काश, मैं इस पैसे वाले गुड्डे से शादी कर पाऊँ, फिर मेरे पास भी ढेर सारे पैसे हो जाएँगे।' गुड़िया ने कहा।
धीरे-धीरे सभी खिलौने इस गुड्डे का बहुत आदर करने लगे। उन्हें उसकी बातें बहुत अच्ची लगती थीं।
खिलौने उसकी तारीफ़ करते और कहते-
'देखो, कैसी राजकुमार जैसी छवि है।'
'अब तो हिलाने से भी आवाज़ नहीं करता।'
'अरे, बड़े लोग ऐसे ही होते हैं।'
'हाँ भई, जब आपके पास पैसा हो तो अपने आप ऐसी सभ्यता आ जाती है।'
इस तरह सब खिलौने उसके आस-पास मँडराते रहते थे।
कुछ दिनों के बाद चुनमुन का जन्मदिन आया। वह बहुत खुश थी, क्योंकि वह समय आ गया था, जब उसे अपनी गुल्लक के पैसे निकालने थे। उसे यह गुल्लक बहुत पसंद थी, इसीलिए मम्मी ने उसके लिए इसी तरह की और गुल्लक लाकर रखी थी - एक और सुंदर गुड्डा।
चुनमुन अपने कमरे में आई और पुरानी गुल्लक को उठाकर नई गुल्लक उसकी जगह रख दी। उसने नई गुल्लक को हिलाकर देखा। उसमें से भी कोई आवाज़ नहीं आई- क्योंकि वह ख़ाली थी। उसमें कोई सिक्का था ही नहीं।
उसके खिलौनों ने देखा कि ख़ाली गुड्डा भी उतना ही सुंदर था, जितना भरा हुआ था। इससे भी कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, यह भी शांत खड़ा हुआ था।
और तब उन्हें समझ में आया कि
शांत और सभ्य होने के लिए पैसे वाला होना ज़रूरी नहीं है। इसीलिए वे नए गुड्डे का भी उतना ही आदर करते थे, जितना पुराने, भरे हुए गुड्डे का करते थे।
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