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अमर शहीद
नाथ लाहिड़ी को गोंड़ा जेल में सन् 17 दिसम्बर 1927 को फाँसी दी गयी। फाँसी पर चढ़ने के पूर्व उन्होंने नित्य की भाँति स्नान किया, गीता पाठ और व्यायाम किया। उसके बाद अपना वस्त्र धारण कर मजिस्ट्रेट से कहा, 'मैं समझता हूँ, मुझे देर नहीं हुई।' फिर मजिस्ट्रेट के साथ फाँसी घर की बढ़ने लगे। मजिस्ट्रेट यह सब देखकर आवाक था। उसने कहा, 'महाशय लाहिड़ी! आपको यदि आपत्ति न हो, तो एक बात पूछूँ? मैं 45 मिनटों से आप जो कुछ कर रहे थे, देख रहा था। आपने स्नान किया, स्वाभाविक था, गीता पाठ किया, वह भी स्वाभविक था, क्योंकि आप अगली घटना को सहन करने की प्रेरणा ग्रहण करना चाहते होंगे,
लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आया कि आपने व्यायाम क्यों किया?'
लाहिड़ी ने अत्यन्त शान्ति से कहा, 'आप जानते हैं कि मैं हिन्दू हूं और इसके नाते मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मैं मरने नहीं जा रहा हूँ, बल्कि मैं
अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए पुनः जन्म लेने जा रहा हूँ और उसके लिए अगले जीवन में बलिष्ठ शरीर चाहिए। इसीलिए मैंने आज भी, फाँसी के पूर्व भी व्यायाम किया। मजिस्ट्रेट इस महान क्रान्तिकारी की वीरता देख आश्चर्यचकित रह गया।'