मित्रों, मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य के एक ऐसे रचनाकार थे जिनकी कहानियाँ आज लगभग 100 वर्ष बाद भी उतनी ही रूची से पढ़ी जाती हैं जितनी उनकी रचना के समय पढ़ी जाती थी। आज लगभग हर दिन लाखों लोग इंटरनेट पर उनकी कहानियों एवं उपन्यासों पढ़ने के लिए ढूँढते हैं।
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आजादी से पूर्व किसानों एवं गरीब जनता पर हो रहे अत्याचारों को प्रेमचंद ने बहुत ही करीब से देखा था।
यही कारण है कि उन्होंने बड़े ही स्पष्ट रूप से इसका चित्रण अपनी रचनाओं में किया हैं। उन्होंने देश के लोगों में राष्ट्र-प्रेम की भावना जाग्रत करने के लिए अनेक कहानियां एवं उपन्यास लिखे। उन्हीं कहानियों में से यहां हम 40+ अनमोल कहानियाँ आपको पीडीएफ में डाउनलोड कर पढ़ने के लिए दे रहे है।
हिंदी के साहित्यकारों में उनका नाम बड़े गर्व तथा सम्मान के साथ लिया जाता है। उनका वास्तविक नाम मुंशी प्रेमचंद नहीं था। वे इस नाम से तब लिखने लगे जब उनके पहले उपन्यास "सोज-ए-वतन" पर अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। उनका लेखन में आने से पहले का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। इनका जन्म 31 जुलाई, 1880 में आज के वाराणसी शहर से लगभग 4 किलो मिटर दूर स्थित लमही नामक गांव में हुआ था। प्रेमचंद के पिता, मुंशी अजायब लाल गांव में ही डाक मुंशी थे। हालांकि उनका परिवार गरीब नहीं था परंतु फिर भी वे कभी उच्च स्तर का जीवन यापन नहीं कर सके। वे अपने जीवन के आखिरी क्षण तक आर्थिक तंगी से लड़ते रहे।
माता के स्नेह से बचपन में ही दूर हो चुके तथा पिता की भी छत्र-छाया से दूर रहने के कारण वे स्वयं ऐसे रास्ते पर चल पड़े, जिस पर आगे बढ़ते हुए वे 'उपन्यास सम्राट' तथा 'कलम के सिपाही' के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने बचपन में ही उस समय की प्रसिद्ध पुस्तकों को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। उनकी सबसे पसंदीदा पुस्तक फैजी द्वारा लिखित 'तिलिस्मे होशरूबा' थी। उन्होंने मात्र 12-13 वर्ष की आयु में ही George W.M. Reynolds की "The Mysteries Of The Court Of London" (1869), सज्जाद हुसैन की हास्य रचनाएँ तथा रतनशार के अनेक किस्सों-कहानियों को पढ़ डाला था।
जब प्रेमचंद मात्र 14 वर्ष के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गयी। घर की आर्थिक स्थिति पहले ही बहुत खराब थी, पिता के चले जाने पर मानो उनके सिर पर पहाड़ टूट पड़ा। अब घर में कोई कमाने वाला नहीं था। उन्होंने कैसे भी 10 वीं की परीक्षा पास कि, इसके आगे भी धनपत राय पढ़ना चाहते थे परंतु वे किसी कारण महाविद्यालय में प्रवेश न पा सके। लेकिन उनका भाग्य अच्छा था कि उन्हें दसवीं के बाद ही वाराणसी के ही एक विद्यालय में अध्यापक की नौकरी मिल गई।
वे 1916 से लेकर 1936 तक लेखन में लगे रहे। वे काफी समय से उदर के अल्सर के कारण बीमार रहते थे। इसी कारणवश 1836 में उनकी मृत्यु हो गई और इस तरह हिंदी का यह महान कहानीकार दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो गया।