बहुत समय पूर्व पांचाल देश के राजा की एक महान इच्छा थी। उसकी रानी के कोई संतान न थी और वह एक पुत्र पाने के लिए लालायित थी। अतः उन दोनों ने भगवान शिव की आराधना की और एक दिन भगवान् ने स्वयं उन्हें दर्शन दिए। 'तुम्हें एक पुत्र प्राप्त होगा,' वे बोले, 'परंतु वह तुम्हें एक पुत्री के रूप में प्राप्त होगा।'
राजा यह सुनकर चकरा गया। रानी ने कहा कि वह समझ गई है, इसका क्या अर्थ है। जब रानी ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया, उसने सारे राज्य में घोषणा करवा दी कि उसे पुत्र हुआ है।
उस कन्या का नाम रखा गया शिखंड़ी। शिखडी पे वह सब कुछ सीखा जो एक युवक को सीखना चाहिए। उसने पढ़ना-लिखना, चित्रकला, घुड़सवारी तथा धनुर्विद्या भी सीखी। जब वह बड़ी हुई तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि एक लड़की के रूप में उसे कोई नहीं चाहता। उसके माता-पिता तो एक पड़ोसी राजकुमार से उसका विवाह तक कराने की सोच रहे थे।
उसके पिता ने जिन राजाओं के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा उनमें से एक को संदेह होने लगा था कि शिखंडी में कुछ न कुछ अस्वाभाविक बात अवश्य है। अतः उसने उत्तर में यह संदेश भेजा कि वह नगर में प्रवेश करके पांचाल देश का विनाश करने की तैयारी कर रहा है।
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शिखंडी ने अपने माता-पिता को इस गंभीर समाचार के बारे में विचार करते सुना। रानी ने कहा, 'चलिए देवताओं से प्रार्थना करें। वे अवश्य एक वीर पुत्र के रूप में हमें सहायता भेजेंगे, जो शत्रु का सर्वनाश करेगा।' शिखंडी ने दुखी मन से ये सब बातें सुनी।
कुछ समय बाद ही एक दिन वह नगर के समीप एक विशाल व निर्जन वन में निकल पड़ी। वन में घूमते हुए शिखंडी ने सोचा, 'माता-पिता को दुख देने से तो अच्छा है कि मेरी मृत्यु हो जाए। मैं इसी वन में खो जाऊंगी तो कोई नहीं जान पाएगा।'
तभी उसने अपने सामने एक विशाल किला देखा। वह भीतर गई और एक कक्ष से दूसरे कक्ष घूमती रही। वह एकदम वीरान था। वहां बिना कुछ खाए-पिए रोते-रोते शिखंडी ने कई दिन बिताए।
वस्तुतः वह किला बिल्कुल खाली नहीं था। उसमें एक आत्मा विचरण करती थी जो यक्ष कहलाती थी। यक्ष एक पुण्य आत्मा थी। इस सुंदर कन्या को बिलखते देख उसे बहुत दुख हुआ। एक रात उसने शिखंडी के सामने प्रकट होकर दुख का कारण पूछा।
‘मैं धन के देवता का अनूचर हूं,‘ उसने कहा। ‘शायद मैं इस मुसीबत में तुम्हारी मदद कर सकूं।‘
तब राजकुमारी ने उसे अपनी कथा सुनाई और पुनः उसके सामने रो पड़ी। 'ओह! काश मैं एक पुरूष होती!' वह बोली।
यक्ष ने एक क्षण इस पर विचार किया। फिर बोला, ‘मेरे मन में एक उपाय है। तुम कितने समय के लिए पुरूष बनना चाहती हो?‘
शिखंडी ने उसे देखा। 'जब तक मैं अपने पिता जी के सब शत्रुओं को पराजित न कर दूं। यदि मैं उन्हें युद्ध में पराक्रम दिखा दूं तो मेरे पुरूषत्व को मान लिया जाएगा।'
"तथास्तु" यक्ष ने कहा। 'मैं अपना पुरूषत्व तुम्हें देता हूं। तुम एक पूर्ण पुरूष बन जाओगी। पर जब युद्ध समाप्त हो जाए तो मेरे पास निश्चय ही लौट आना।'
यक्ष का धन्यवाद करके वह पिता के घर लौट आई। युद्ध में शिखंडी के सामने कोई भी टिक न पाया। उसने शीघ्र ही शत्रुओं को जीत लिया। फिर अपना वचन याद करके वह जंगल में लौट गई।
अब स्त्री की पोशाक धारण किए यक्ष ने दुखी होते हुए उसका स्वागत किया। ‘हम पुनः अपना रूप परिवर्तित नहीं कर सकते‘, 'उसने गहरी सांस लेते हुए कहा।'
‘क्यों‘? क्या हुआ? शिखंडी ने आश्चर्य से पूछा।
"तुम्हारे जाने के बाद धन के देवता, जंगल में आए। मैं उनका स्वागत करने नहीं गया। अतः उन्होंने मुझे श्राप दिया और कहा कि मैंने जो कुछ भी किया है उस अब कभी परिवर्तित नहीं किया जा सकेगा," यक्ष ने उत्तर दिया।
शिखंडी को बहुत खेद हुआ कि उसने यक्ष को दुख पहुंचाया पर यक्ष ने उसे सांत्वना दी और कहा कि वह चिंता न करें। "तुम्हें पुरूष ही बनना था," वह बोला, "और अब तुम वैसी ही रहोगी।"
इस प्रकार भगवान् शिव का वचन सत्य हुआ। शिखंडी पुरूष बना और महाभारत युद्ध के महानतम सैनिकों में से एक सिद्ध हुआ।
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