इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव ने उन्नति और विकास की सीढ़ियों को पार कर आज के वैज्ञानिक युग में प्रवेश किया है। जंगल और गुफाओं में जीवन व्यतीत करने आज अंतरिक्ष में भी अपनी विजय-पताका फहराता है। विज्ञान की इस उपलब्धि में उसका मस्तिष्क और चिंतन आधार बना है। दूसरी ओर उसके व्यक्तित्व में हृदय भी भावनाओं की लहरें भी होती हैं, जिनसे वह राग, प्रेम, अपनत्व, कर्तव्य के बंधनों से बँध जाता है। इस पक्ष से ही वह अभिव्यक्ति की ओर बढ़कर कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास का सृजन करता है और कला के अनेक रूपों को सँवारता है।
साहित्य का स्वरूप और समाज
साकत्यि किसे कहते हैं, इसका स्वरूप क्या है ? इस संबंध में अनेक मत हो सकता हैं, लेकिन एक तथ्य पर सभी विद्वान सहमत हैं कि साहित्य की मूल चेतना और भावना अथवा आधार मानव और समाज की उन्नति है। मानव समाज द्वेष, घृणा, शोषण और अमानवीय कर्मों को त्याग कर प्रेम, त्याग और समत्व के आधार पर ही विकास की ओर बढ़ता है। इस भौतिक जीवन का लक्ष्य सभी को दुख और पीड़ा से मुक्ति देना, अपने सुख और सुविधाओं को प्राप्त करना ही नहीं है, अपितु आत्मा के विकास से परम सत्ता को जानना और अखंड आनंद या सुख प्राप्त करना भी है। अतः साहित्य इस पक्ष को पोषित करता है। साहित्य शब्द का अर्थ-स $ हित, अर्थात् जो हित की भावना से युक्त हो, किया जाता है। इसलिए साहित्य में मानव और मानव समाज के हित की कामना होती है। साहित्य शब्द से उसके अनेक रूपों और विधाओं का ज्ञान होता है। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, निबंध आलोचना आदि विधाएँ साहित्य के ही रूप हैं। साहित्य की रचना समाज से ही होती है।
समाज क्या है ? साधारण शब्दों में मनुष्यों का समूह ही समाज है। एकाकी या अकेला रहकर मनुष्य न तो उन्नति ही कर सकता है और न पूर्ण ही बनता है। अपने परिवार के साथ मिलकर ही जीवन की परिस्थितियों से जूझता है। परिवार मिलकर ही छोटे या बड़े समाज की रचना करते हैं। इस प्रकार के समाज ही गाँव, नगर, देश और विश्व का विशाल रूप बनते हैं। यद्यपि मानव आज जाति, धर्म व संप्रदाय के आधार पर बँट गया है, लेकिन मूल रूप से अपने हृदय तथा मस्तिष्क के चिंतन से वह एक ही है। साहित्य और समाज इसी दिशा में एक हो जाते हैं। किसी समाज का साहित्य के बिना होना और किसी साहित्य का समाज से न जुड़ना संभव नहीं, कवि के शब्दों में-
अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।।
साहित्य और समाज का संबंध
आत्मा और शरीर को जो संबंध है, वही संबंध साहित्य और समाज का भी है। सत्य है कि साहित्य की अपेक्षा समाज पहले जन्म लेता है। समाज से ही साहित्यकार जन्म लेते हैं। साहित्यकार के व्यक्तित्व की अलग पहचान यही हो सकती है कि उसकी दृष्टि और चिंतन शक्ति, भावना और संवेदना साधारण व्यक्ति से भिन्न होती है। साधारण शब्दों में वह अधिक चिंतनशील और भावुक होता है। जिस दृष्टि से सर्व साधारण व्यक्ति या आम आदमी देखता और सोचता है, उससे कहीं बढ़कर साहित्यकार गहरी तथा व्यापक दृष्टि और चिंतन रखता है। साहित्यकार जिस साहित्य की रचना करता है, उसकी जड़ें समाज से ही विषय-वस्तु प्राप्त करती हैं और उसी में गहरी जुड़ी होती हैं। लेखक अथवा कवि अपने समाज की परिस्थितियों में ही जीता है, उनसे प्रभावित होता है। वह किसी भी रूप में उनसे अलग नहीं हो सकता है। समाज में जो परिवर्तन होते हैं, उन्हें वह देखता है, उन्हें भोगता है और उनसे प्रभावित होता है। समाज का एक सांस्कृतिक आधार भी होता है। संस्कृति भी समाज की आत्मा और पहचान होती है। जब समाज की संस्कृति किसी अच्छे या बुरे, सुंदर या असुंदर, मंगलकारी या अमंगलकारी रूप में परिवर्तित होने लगती है, उसका आधार, मूल्य या मानदंड बदलने लगते हैं तो साहित्यकार इनकी परख करता है। जो परिवर्तन मनुष्य और समाज के कल्याण के लिए होते हैं, वह उनका समर्थन करता है और जो परिवर्तन समाज को तोड़ते हैं, मर्यादा और संस्कृति का हनन करते हैं, मूल्य और चरित्र को उपेक्षित कर देते हैं, साहित्यकार उनका विरोध करता है। इस दृष्टि से वह समाज का अंग होकर भी पथ-प्रदर्शक होता है।
यदि हम अपने भारतीय साहित्य का विवेचन करें तो यह संबंध स्पष्ट हो जाता है। हमारा प्राचीनतम् वैदिक और संस्कृत साहित्य
भारत के उन्नत और गौरवशाली समाज का प्रमाण है। इस साहित्य में विश्व मानव और ‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ की जो भावना है, मनुष्य के भौतिक और आत्मिक उत्थान की जो कामना है, वह भारत की महान संस्कृति का प्रमाण है। रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथ तथा कालिदास की रचनाएँ अनेक रूपों में जीवन और समाज का सत्य उद्घाटित भी करती हैं और चिंतन तथा दिशा भी देती हैं। साहित्य समाज का दर्पण है। हिंदी साहित्य में आदिकाल, भक्तिकाल और आधुनिक काल में जिस साहित्य की सृजना हुई, वह तत्कालीन समाज का दर्पण है। उस युग में देश पर जो बाहरी आक्रमण हुए, छोटे-छोटे टुकड़ों में देश बँटा रहा, परस्पर राजाओं के युद्ध, पुनःमुगलों के साम्राज्य की स्थापना और अंततः अंग्रेजों की पराधीनता तथा दमन की तस्वीर, साहित्य प्रकट करता है। भारतीय जन-मानस ने इन परिवर्तनों और परिस्थितियों को जिस रूप में झेला है और उनसे प्रभावित हुआ है, इन युगों का साहित्य इसका प्रमाण है।
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कबीर, तुलसीदास, गुरूनानक देव, पुनः भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, निराला, प्रेमचंद का साहित्य एक ओर अपने युग की परछाई है, तो दूसरी ओर उसमें भारतीय संस्कृति की गुम होती हुई पहचान की तड़प और उसे पुनः प्रतिष्ठित करने की कामना है। 'मैथिलीशरण गुप्त' के शब्दों में-
हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज, मिलकर, ये समस्याएँ सभी।।
आज संस्कृति का जो गहरा संकट और विश्व में भौतिक, वैज्ञानिक, चिंतन, धर्म के क्षेत्र में जो परिवर्तन हुए हैं, साहित्य उन्हें पहचानता है और निष्पक्ष रूप से उसकी परख कर उसकी विसंगतियों को भी प्रकट करता है। अतः साहित्य और समाज का अभिन्न संबंध है।
उपसंहार
साहित्यकार यद्यपि उपदेशक नहीं होता है, तथापि उसका व्यापक चिंतन समाज को नई दिशा देता है। अतः उसका लक्ष्य केवल कल्पना के रंगीन लोक में खोकर रचनाएँ करना नहीं है, अपितु समाज और मानव के कल्याण की दिशा की पहचान कराना भी है। वह उपदेशक नहीं होता है, परंतु उपदेश के मर्म को समझाता हैः-
केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।