स्वामी विवेकानंद ऐसे महान व्यक्तित्व थे, जिन्होंने पूरे विश्व में भ्रमंण कर भारत के गौरव को बढ़ाया। 39 वर्ष की अल्पायु में इस दुनिया को छोड़ जाने के बाद भी उनके विचार आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा-स्रोत बने हुए हैं। यहां हम उनके जीवन से जुड़े 3 छोटे-छोटे प्रसंग प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है आपको पसंद आऐगे।
पहला प्रसंग: हम छोटों से भी सीख सकते हैं
एक बार कि बात है। स्वामी विवेकानन्द भारत भ्रमण करते हुए खेतरी के राजा के पास गए। राजा ने उनका बहुत सम्मान किया। राजा को उन्होंने अत्यन्त प्रभावित किया। उनके सम्मान में एक भजन गायिका नर्तकी बुलायी गयी। जब उन्होंने नर्तकी को देखा इच्छा हुई, अब यहाँ से चलें। राजा ने साग्रह उन्हें बैठा लिया।
नर्तकी ने गाना शुरू किया, 'प्रभुजी अवगुन चित ना धरो' भाव था, 'हे नाथ! आप समदर्शी हैं, लोहा कसाई की कटार में है, वही मन्दिर के कलश में है। पारस इसमें भेद नहीं करता। वह दोनों को अपने स्पर्श से कुन्दन बना देता है। जल यमुना का हो या नाले का, दोनों जब गंगा में गिरते हैं, गंगा-जल हो जाते हैं।' हे नाथ फिर यह भेद क्यों? आप मुझे शरण में लीजिए।' यह सुनकर स्वामी जी की आँखों से अश्रुधरा बह चली। एक संन्यासी को सचमुच एक नर्तकी के द्वारा अट्ठैत वेदान्त की शिक्षा मिली।
दूसरा प्रसंग: प्रभावशाली भाषण के लिए भाव चाहिए
यह प्रसंग स्वामीजी द्वारा शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में दिये गए विश्व प्रसिद्ध भाषण से जुड़ा हुआ है।
आज वह शुभ घड़ी आ पहुँची। स्वामी विवेकानन्द देश-विदेश के प्रतिनिधियों के साथ मंच पर विराजमान हैं। हर धर्म के प्रतिनिधि को कुछ मिनटों में अपना परिचय देना है। एक-एक कर प्रतिनिधि उठते हैं, अपना परिचय देते हैं, बैठ जाते हैं, विवेकानन्द भी उठे और प्रथम शब्द उनके मुख से निकला- 'प्रिय, अमरीका के भाइयो एवं बहनो!‘ जैसे ही ये शब्द इनके मुख से निकले सभाकक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। कुछ लोग खड़े होकर इनका अभिनन्दन करने लगे। तालियों का स्वर बढ़ता ही जा रहा था। इसका शाश्वत संदेश है- दूसरों को समझो, ग्रहण करो, दूसरों की भावनाओं का आदर करना सीखो। हिन्दू को न बौद्ध बनने की आवश्यकता है, न बौद्ध बौद्ध को ईसाई, सभी धर्म अपनी जगह ठीक हैं। एक-दूसरे को जानने समझने की आवश्यकता है' उन्होंने अन्तिम शब्द कहे,
“Upon the banner in every religion will soon be written instead of resistance- Help and not fight, assimilation and not destruction, harmony and peace and not dissension.”
'भाइयों और बहनों' का पावन सम्बोधन अमरीका वासियों की हृदय को छू गया। दूसरे दिन समस्त अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर स्वामी विवेकानन्द का ही चित्र छपा था। रोमां रोलां (Romain Rolland) ने इसीलिए उद्घोष किया,
“He had a genius of arresting words and burning phrases hammered out white hot in the forge of his soul so that they trans pierced thousands.”
तीसरा प्रसंग: प्रेरणा कहीं से भी मिल सकती है
पोरबन्दर के एक पंडित ने कहा, 'स्वामी जी, यहाँ भारत में धर्म के अनेक पंडित हैं, यहाँ आपकी बात कौन सुनेगा?' आप विदेश जाएँ। स्वामी विवेकानन्द अमरीका गए। कुछ दिन भ्रमण करते उनकी जमा पूँजी चुक गयी। एक व्यक्ति ने उन्हें वोस्टन जाने का किराया दिया और विश्वधर्म सम्मेलन के एक सदस्य के नाम पत्र भी। वह भी राह में कहीं खो गया। ठण्ड के मारे उन्हें लकड़ी के बक्से में रात बितानी पड़ी। सुबह पैदल ही चल पड़े। थककर एक आलीशान भवन के नीचे बैठकर सोचने लगे अब क्या करूँ? पत्र भी खो गया। धर्म सम्मेलन में प्रवेश कैसे हो? अन्ततः ईश्वर ने उनकी बात सुन ली। उस महल से एक संभ्रात महिला स दिव्य मुख मण्डल वाले संन्यासी को एक टक देख रही थी। उसने इन्हें ऊपर बुलाया। यह श्रीमती एच. डब्ल्यू. हैल थी। उनकी पहुँच इस विश्व सम्मलेन के सदस्यों तक थी। बस! स्वामी जी को अनौपचारिक रूप से ही सही सम्मेलन में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो गया।
चौथा प्रसंग: सेवा ही परम धर्म है
पिछली सदी के विख्यात लेखक तथा पत्रकार श्री सखाराम गदेड़स्कर एक बार अपने दो मित्रों के साथ स्वामी विवेकानंद जी से मिलने गए। बात करते समय विवेकानंद जी को मालूम चला कि उनमें से एक व्यक्ति पंजाब के निवासी है। उन दिनों पंजाब प्रांत में 1-2 वर्षों से बारिश नहीं हुई थी, भीषण अकाल पड़ा हुआ था। स्वामी जी ने अकाल-पीड़ितों के विषय में चिंता प्रकट की और पीड़ितों के लिए क्या-क्या राहत-कार्य किए जा रहे है, उस बारे में पूछताछ की। तदनन्तर वे शिक्षा तथा नैतिक एवं सामाजिक उन्नति के बारे में बातें करते रहे। स्वामी जी से विदा लेते समय उस पंजाबी गृहस्थ ने विनयपूर्वक कहा - "महाराज, मैं तो आपसे इस इच्छा से मिलने आया था कि आप धर्म-अध्यात्म के विषय में कुछ उत्कृष्ट बातें बताएंगे; लेकिन आप तो सूखा तथा शिक्षा जैसे सामान्य विषयों की ही बातें करते रहे।"
स्वामी जी कुछ पल के लिए बिल्कुल चुप रहे, फिर बड़े गंभीरता से बाले - "देखो भाई, जब तक मेरे भारत देश में कोई भी व्यक्ति भूखा है, तब तक उसके लिए अन्न की व्यवस्था करना, उसे अच्छी तरह संभालना, यही सबसे बड़ा धर्म एवं पूर्णय का कार्य है। इसके अलावा जो कुछ भी है, वह मिथ्या या ढकोसला है। जो लोग भूखे हो, जिनका पेट न भरा हो, उनके सम्मुख धर्म का उपदेश देना मात्र केवल दंभ है। पहले उनके लिए अन्न की व्यवस्था करने का प्रयत्न करना चाहिए।"
पांचवां प्रसंग: सज्जनों की पहचान
गेरुआ वस्त्र, सिर पर बड़ी पगड़ी, एक हाथ में डंडा और कांधे पर बड़ी चादर डाले, स्वामी विवेकानंद अमेरिका के शिकागो शहर की सड़कों से होते हुए कहीं जा रहे थे, तभी उनका यह पोशाक सड़क पर जा रहे अमेरिकी लोगों के लिए एक जिज्ञासा का वस्तु बन गई। उनके पीछे-पीछे चल रही एक औरत ने अपने साथी पुरूष से कहा - "जरा इन अजीब वेशभूषा वाले महाशय को तो देखो, कैसे अजीब से कपड़े पहन रखे हैं!"
विवेकानंद जी को पीछे चल रही महिला की बात समझते देर न लगी, वे समझ गये की ये अमेरिकी लोग उनके भारतीय पहनावे को तुच्छ नजर से देख रहे हैं। विवेकानंद जी रूके और पीछे मुड़कर उस महिला को बोले- "बहन! मेरे इस भारतीय पोशाक पर आश्चर्यचकित न हो। तुम्हारे इस देश में किसी व्यक्ति के पोशाक को ही उस व्यक्ति के सज्जन होने की कसौटी माना जाता है, परन्तु जिस देश से मैं यहां आया हूं, उस देश में किसी व्यक्ति के सज्जन होने का भाव उसके पोशाकों से नहीं बल्कि उसके चरित्र व आचरण से आता है।"
भिक्षा का प्रताप
अंत में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत और छत्रपती शिवाजी महाराज के गुरू समर्थ रामदास जी के जीवन का एक प्रसंग -
एक बार समर्थ गुरू रामदास जी एक घर के द्वार पर खड़े होकर 'जय-जय श्री रघुवीर समर्थ' का उद्घोष किया। गृहिणी का अपने पति से कुछ देर पूर्व कुछ कहा-सुनी हुई थी, जिससे वह गुस्से में थी। बाहर आकर चिल्लाकर बोली - 'तुम लोगों को भीख मांगने के सिवा और कुछ दूसरा काम नहीं है? मुफ्त मिल जाता है, अतः चले आते हो। जाओ, कोई दूसरा घर ढूँढो, मेरे पास अभी कुछ नहीं है।'
श्री समर्थ हँकर बोले - 'माताजी! मैं खाली हाथ किसी द्वार से वापस नहीं जाता। कुछ न कुछ तो लूँगा ही।'
वह गृहिणी उस समय चूल्हा लीप रही थी। गुस्से में आकर उसने उसी लीपनेवाले कपड़े को उनकी तरफ फेंक दिया।
श्री समर्थ प्रसन्न हो वहाँ से निकले। उन्होंने उस कपड़े को पानी से साफ किया और बत्तियाँ बनायी और उसी से प्रभु श्रीराम की आरती करने लगे। इधर ज्यों-ज्यों उन बत्तियों से आरती होती त्यों-त्यों उसका दिल पसीजने लगा। उसे उनके अपमान करने का इतना रंज हुआ कि वह विक्षिप्त हो उनको खोजने के लिए दौड़ पड़ी। अंत में वे उसे उस देवालय में मिले जिसमें वे उन बत्तियों से आरती करते थे। वहाँ पहुंचकर उसने श्री समर्थ से क्षमा माँगी और बोली - 'महात्मन, व्यर्थ ही मैंने आप सरीखे महापुरुष का निरादर किया। मुझे क्षमा करें।'
श्री समर्थ बोले - माता! तुमने उचित ही भिक्षा दी थी। तुम्हारी भिक्षा के प्रताप से ही यह देवालय प्रज्जवलित हो उठा है। तुम्हारा दिया हुआ भोजन जल्द ही खत्म हो जाता।