आलिया! तुम्हारे अब्बा जान ने मुझे खाने पर आमंत्रित किया, तो वह खुश भी थे और घबराए हुए भी। वह अपने एक पुराने हम-कॉलेज से मिलकर खुश थे, मगर अपनी बीवी की वजह से घबराए हुए थे। दूसरे दिन सुबह उन्होंने मुझे बताया कि रात उनकी बीवी तुम्हें जन्म देकर विदा हो गई।
अब तुम उन्नीस-बीस बरस की आलिया हो और मैं इकतालीस साल का सिद्दीक अहमद हूं, और तुम्हारे अब्बा जान ने चन्द रोज़ पहले अपनी सैंतालीसवीं सालगिरह मनाई थी। उम्र का यह भेद प्रकट में लंबे फासले पैदा कर देता है, मगर आलिया। यह फासले कितने बे-हकीकत, कितने बेमायनी हैं और अगर उनका कोई मकसद है, तो तुम, जो उमर के मामले में मुझसे इतनी दूर हो, मुझे इतनी प्यारी
(Long Love Story in Hindi) क्यों हो कि तुम्हें हर वक्त अपनी गले की रग से भी करीब महसूस करता हूं।
मुहब्बत सिर्फ़ इंतकाम लेना नहीं सिखाती, मुहब्बत तो दरअसल मुहब्बत करना सिखाती है। वो भी उसे अफ़जल से मुहब्बत निभाने में मदद करके कोई त्याग नहीं कर रहा था बेशर्त मुहब्बत कर रहा था....
तुम्हारे अब्बा जान मेरे हमजमात तो नहीं थे, लेकिन हम-कॉलेज जरूर थे। मैं पहले साल में था और वह आखिरी साल में थे, मगर एक साल तक हम ही ग्रुप में रहे और एक ही खेल खेलते रहे। फिर वह तालीम से फारिग होकर कहीं चले गए और जब उसके कोई छह साल बाद मैं एक विदेशी फर्म में इंटरव्यू देने आया, तो मैं पहली ही नज़र में उन्हें पहचान लिया। मुझे उनके बैठने और गुप्तगू करने के अंदाज से भी मालूम हो गया कि वह बाकी दोनों अफसरों से भी बड़े अफसर हैं। उन्होंने जब मेरे कॉलेज का नाम सुना तो चौंके। फिर मैंने देखा कि वह अपनी मुस्कुराहट को छुपा रहे हैं, मगर आलिया, तुम्हें तो मालूम ही होगा कि इंसान कत्ल तक को छुपा सकता है, मगर अपनी मुस्कुराहट नहीं छुपा सकता। मुस्कुराहट सिर्फ होठों की मोहताज नहीं होती। होठों पर काबू पा लो तो, आंखें मुस्कुराने लगती है। आंखें झुका लो, तो चेहरे की रंगत मुस्कुराने लगती है। मैं हिसाबी-किताबी आदमी। मुझे इन नाजुक चीजों का पता कतई नहीं हो सकता था, मगर शायद तुम्हें याद न हो। जब तुम पहली बार मुस्कुराई थीं, तो बिल्कुल इस तरह मुस्कराई थी कि तुम मुस्कुराहट को अपनी गिरफ्त में लेना चाहती थीं, मगर वह तुम्हारी आंखों और तुम्हारे चेहरे, यहां तक कि तुम्हारे कानों की लवों तक से टपकी पड़ रही थी।
तुम्हारे अब्बा जान मुस्कुराहट छुपाने के बावजूद आंखों से मुस्कुरा दिए और मैं समझ गया कि उन्होंने मुझे पहचान लिया है। यही वजह थी कि उन्होंने मुझे मुझसे बेहतर काबिलियत के उम्मीदवारों से भी तरजीह दी और मैं उस फर्म की एक अहम 'पोस्ट' के लिए चुन लिया गया।
इंटरव्यू खत्म हुआ, और मैं बाहर आया, तो कुछ देर बाद एक चपरासी ने आकर मुझसे कहा, 'क्या आपका नाम सिद्दीक अहमद है?'
मैंने कहा, 'हां।'
बोला, 'आपको बड़े साहब बुला रहे हैं।'
फिर अपने दफ्तर में वकार भाई मुझसे लिपट गए और बोले ‘मैंने तुम्हें पहचान लिया था, मगर इंटरव्यू में इसका इज़हार ठीक न होता। समझ गए न?‘
ज़ाहिर है, कि मैं समझ गया था।
फिर उन्होंने मुझे रात के खाने पर आमंत्रित किया और आलिया, यह उसी रात का जिक्र है कि तुम पैदा हुई।
मैं पांच साल तक वकार भाई की फार्म में रहा। जब मुझे उससे बेहतर नौकरी मिल गई, तो खुद वकार भाई ने मुझे मशविरा दिया कि मुझे वहां से चले जाना चाहिए। सो, जब मैं लाहौर से कराची की तरफ चला, तो तुम नर्सरी क्लास में जाने लगी थीं, और मुझे 'सिद्दीक अंकल' कहती थीं और खूब रोती थीं। तुम्हारे नक्श, तुम्हारे फूले हुए गालों में दुबक गए थे। तुम्हें लॉन में तितलियों के पीछे भागता देखकर एक दिन मैंने वकार भाई से कहा था कि आलिया को देखकर कभी-कभी यों महसूस होता है, जैसे कोई पहलवान सिकुड़ गया हो।
मैं जब वकार भाई से विदा होने लगा, और तुम्हें भी बताया गया कि सिद्दीक अंकल कराची जा रहे हैं, तो तुमने सिर्फ इतनी बात कही थी कि हम भी कराची आएंगे और जब मैं तुम्हारे गाल को थपथपा कर और माथे को चूमकर चला आया था, तो मुझे तुम मुद्दतों तक याद नहीं आई थीं, सिर्फ वकार भाई को कभी-कभार खत लिखा, तो तुम्हें दुआएं लिख दीं। मैं कराची से ढाका चला गया और वहां से सिर्फ एक बार, आज से यही को दो-तीन बरस पहले लाहौर आया। मैं वकार भाई से भी मिला, मगर उस वक्त तुम कॉलेज गई थीं। सो, मैं तुम्हें न देख सका। चुनांचे यह मालूम होने के बावजूद कि तुम कॉलेज जाने लगी हो, मेरे जे़हन में तुम्हारी पुरानी कल्पना कायम रही कि तुम एक मोटी गोल-मटोल, थन-मथुनी-सी लड़की हो और बहुत चटोरी हो और सख्त जिद्दी हो और बात-बात पर रोने लगती हो।
आज से कोई एक बरस पहले वकार भाई ने मुझे ढाका से बुला लिया, उनकी फर्म में एक निहायत उम्दा स्थान खाली हुआ था और वह मुझे भूले नहीं थे। मैं वापस आया। बच्चों को उनकी ननिहाल में छोड़कर जब मैं लाहौर से वकार भाई की कोठी पर आया, तो तुम बाहर लॉन में बैठी कुछ पढ़ रही थीं। मैंने सलाम किया, तो तुम उठ खड़ी हुई और कहा, 'फरमाइए।'
तुम्हारी आवज़ आम लड़कियों से ऊंची थी, मगर उसमें जो गूंज थी, वह आम लड़कियों की आवाज़ में नहीं होती। आवाज़ की यह गूंज आवाज वाली की सूरत के बारे में आमतौर पर धोखा दे जाती है, मगर तुम तो अपनी आवाज़ की गूंज की तरह खूबसूरत थीं। तुम इतनी खूबसूरत थीं कि अगर मैं एक बीवी का शौहर और छह बच्चों का बाप न होता, तो अंजाम से कोई खौफ खाए बग़ैर एक सम्मोहित आदमी की तरह तुमसे पहली बार ही यह कहता कि लड़की, मुझे तुझसे मुहब्बत हो गई है
(I Love You)।
मगर मैंने कहा, 'मैं वकार भाई से मिलने आया हूं। मेरा नाम सिद्दीक अहमद है।'
तब तुम चौंकी और मुस्कुराई। यह वही मुस्कुराहट थी, जिसे मुझ जैसे आदमी ने भी आंखों तक और आंखों से कानों की लवों तक सफर करते हुए देखा।
तब तुमने कहा था, 'अरे। सिद्दीक अंकल?? ढाके वाले?'
मैंने 'हां' में जवाब दिया, तो तुम बोली, 'आदाब सिद्दीक अंकल। मैं आलिया हूं।' और यह कहकर तुम वकार भाई को खबर देने लॉन पर से यों तैरती हुई गुजर गई कि मुझे तुम्हारे बाजुओं पर परों का गुमान होने लगा।
फिर मैं वहीं तुम्हारी कोठी के कमरे में रहने लगा। आज ये सतरें भी उसी कमरे में बैठा लिख रहा हूं। आइंदा भी यहीं रहने का इरादा है। उस कोठी के कमरों में तुम्हारी आवाज़ की गूंज बंद है। मैं उस कोठी के चमकते-दमकते फर्श पर तुम्हारा एक-एक नक्शे-कदम गिन सकता हूं। मुझे यह तक मालूम है कि तुम कॉलेज जाने के लिए जब मेरे कमरे के सामने से गुज़रती हो, तो अपनी पलकों को कितनी बार झपकाती हो। तुम्हें यह भी मालूम न होगा कि तुम्हारे एक कान की लौ के पीछे सुई की नोक के बराबर एक तिल है। मैं यह सब कुद जानता हूं, इसलिए कि मैंने तुम्हें सिर्फ देखा नहीं है। मैंने तुम्हें पढ़ा है। मैंने तुम्हें अपनी ज़ात से भी ज़्यादा पढ़ा है। मैंने तुम्हें रट रखा है।
तुम कहती होगी, सिद्दीक अंकल को यह क्या हो गया है? तुम यह कभी नहीं सोचोगी कि तुमने सिद्दीक अंकल को क्या कर दिया है? तुम अपने आपको मुझसे इक्कीस-बाईस साल के फासले पर पाती हो और मैं तुम्हें नब्ज़ की एक धमक के फासले पर देखता हूं। सामीप्य की यह कलपना उन लोगों की नज़र में बेमायनी हो सकती है, जिन्होंने कभी मुहब्बत न की हो, और की हो, तो यूं ही चलत-सी, जैसे दूध में उबाल आता है, मगर तुम यकीनन समझ जाओगी, क्योंकि तुमने मुहब्बत
(Love) की है, मुझसे नहीं की, तो क्या हुआ, किसी से तो मुहब्बत की है।
बज़ाहिर यह बहुत शर्म की बात है कि एक आदमी, जो अधेड़ उमर में दाखिल हो चुका है, एक ऐसी लड़की से मुहब्बत करे, जिसने भरपूर शबाब में अभी कदम रखा हो। यकीनन यह बहुत शर्म की बात है। फिर जब उसकी उमर लड़की के बाप के बराबर हो और जिसे लड़की ‘अंकल‘ कहकर पुकारती हो, तो ऐसी मुहब्बत शर्मनाक ही कहला सकती है, मगर मैं तुम्हारे सामने इस शर्मनाक मुहब्बत को स्वीकार करने आया हूं।
उस रोज़ जब वकार भाई तुम्हारे लिए आने वाले एक पैग़ाम का मुझसे जिक्र कर रहे थे, तो मैं उनकी ज़बान से यह सुनकर हतप्रभ रह गया कि तुममें सिर्फ एक कमी है और वह कमी यहहै कि तुम खुबसूरत नहीं हो। मेरा जी चाहा, मैं उनसे कह दूं कि वकार भाई, आपकी बीनाई (नज़र) कब से छिन गई? आप अंधे कब हुए? आपकी आंखे कब फूटीं? यह सब
तुम्हें यह भी मालूम न होगा कि तुम्हारे एक कान की लौ के पीछे सुई की नोक के बराबर एक तिल है। मैं यह सब कुद जानता हूं, इसलिए कि मैंने तुम्हें सिर्फ देखा नहीं है। मैंने तुम्हें पढ़ा है। मैंने तुम्हें अपनी ज़ात से भी ज़्यादा पढ़ा है। मैंने तुम्हें रट रखा है।
सवाल मेरे जे़हन में आए, मगर उनसे न पूछ सका। पूछ सकता, तो भी न पूछता, इसलिए कि एक बार मैं तुम्हारी खूबसूरती का ज़िक्र शुरू कर देता, तो फिर मेरी ज़बान को मेरी मौत ही रोक सकती थी।
बाप के सामने बेटी के हुस्न की तारीफ हमारे समाज में सिर्फ वही लोग बर्दाश्त करते हैं, जो इस समाज के मियारों से बहुत नीचे गिर जाते हैं, या बहुत ऊपर उठ जाते हैं, और मैं अगर सिर्फ तुम्हारे होठों के हुस्न का जिक्र छेडूं, तो क्या एक दिन या एक साल या एक सदी में भी उनके कोनों में धड़कती हुई मासूमियत और उनकी रेखाओं की खम खाती हुई शोखी और उनके अछूतेपन की चमकती हुई तरोताज़गी का जायज़ा पूरा कर सकूंगा? तुमने कभी अपने होठों पर ग़ौर किया है आलिया?
तुम अपने अब्बा जान की नज़र में खूबसूरत नहीं हो। मैं हर मामले में तुम्हारे अब्बा जान पर रश्क करता हूं, मगर इस मामले में मुझे उनकी नासमझी पर तरस आता है। उन्हें शिकायत थी कि सिर्फ तुम्हारी सूरत की वजह से तुम्हारे लिए अक तक कोई अच्छा पैग़ाम नहीं आया। उन्होंने मुझसे मशविरा मांगा था और मैंने कहा था कि आलिया से भी तो मशविरा कर लीजिए। उन्होंने मेरी तरफ हैरान होकर देखा था और कहा था, 'जी हां, ज़माना तो ऐसा ही आ गया है, मगर आलिया मेरी बेटी है, और मैं उसे बहुत अच्छी तरह जानता हूं। उनके ज़ेहन में बी.ए. का इम्तिहान खास नंबरों से पास करने के सिवा कोई जज़्बा नहीं है और शादी के मामले में उसकी कोई पसंद हो ही नहीं सकती।'
जब मैंने उन पर ज़ोर दिया, तो वह मान गए, मगर इस शर्त पर कि तुमसे उस पैग़ाम का जिक्र मुझे करना होगा, यानी, मैं जो तुमसे मुहब्बत करता हूं, तुमसे पूछने के लिए भेजा जा रहा था, कि तुम किससे मुहब्बत करती हो?
जब तुम कॉलेज से वापस आई, तो मैं पीछे-पीछे हो लिया, और जब तुमने अपने कमरे में जाकर पलंग पर अपनी किताबें फेंकीं और दुपट्टा उतारकर तिपाई की तरफ उछाल दिया और एक इतनी लंबी अंगड़ाई ली कि मैं हैरान था। तुमने इतनी देर तक अपनी सांस को कैसे रोके रखा, तो मैंने तुम्हारे दरवाज़े के पास आकर एक तरफ होकर हल्की-सी दस्तक दी। तुमने पूछा, 'कौन?'
और मुझे तुम्हारी आवाज़ की वह गूंज याद आ गई, जो मैंने पहले दिन तुम्हारे ‘फरमाइए‘ में सुनी थी। तब मैंने सोचा कि मुझे कुछ कहे बग़ैर वहां से भाग जाना चाहिए। उस कोठी से, उस शहर से भाग जाना चाहिए, ताकि वह फूल, जो मेरे ज़ेहन में खिला है, मुरझाने न पाए।
मगर फिर तुम बाहर आ गई और तुमने कहा, ‘अंकल। फिर तुम मेरे चेहरे का रंग देखकर घबरा गई। उस वक्त मैंने तुम्हारे चेहरे के आईने में अपने चेहरे का रंग देख लिया था, ‘क्यों अंकल।‘ तुमने कहा था, ‘आपकी तबीयत तो ठीक है न?‘
मैं तुम्हें कैसे बताता कि मैं अपनी मुहब्बत के खंडहर में से निकलकर तुम्हारी मुहब्बत की तामीर में तुम्हारा साथ देने आया हूं। मैं फौरन तुम्हारे कमरे में चला आया और मैंने जल्दी-जल्दी से बोलना शुरू कर दिया, जैसे मैं कोई अदाकार हूं और अपने रटे हुए संवाद दोहरा रहा हूं, ‘आलिया। तुम्हें मुझ पर एतबार है न? तुम अपने अंकल को अपना दोस्त भी समझती हो न?‘
और तुमने कहा था, 'दोस्त। मैं तो आपको अपने अब्बू के बराबर समझती हूं, अंकल।'
तब मेरा रंग कुछ और उड़ गया
(sad), क्योंकि तुम घबराकर मेरे पास बैठ गई और मेरे हाथ अपने हाथ में ले लिया और जब तुमने मेरी आंखों में नमी की तह देखी, तो तुम बेकरार हो गई और तुमने कहा, 'नहीं अंकल, रोइएगा नहीं। पहले मुझे बताइए कि बात क्या है? आप अपनी भतीजी को अपनी दोस्त भी समझते हैं न? फिर मुझे बतातें क्यों नहीं? क्या मैं आपके किसी काम आ सकती हूं, अंकल?' तब तुमने अपना सिर मेरे सीने पर रख दिया और कहा, ‘मैं दस तक गिनती हूं, जब तक आपने आंसू पी लिए तो ठीक, वरना फिर मैं भी रोने लगूंगी। लीजिए, मैं गिनती हूं....एक....दो....तीन..'
फिर तुम रूक गई थीं, क्योंकि मैं तुम्हारे सिर पर हाथ फेर रहा था। और मैं तुम्हारी ही कसम खाकर कहता हूं
(true) कि यह तुम्हारे अंकल का हाथा था। मेरे दिल में तुम्हारे लिए मुहब्बत थी और मेरे हाथ में तुम्हारे लिए स्नेह था। तुम कहोगी, इंसान एक ही लम्हे में अपने आपको दो शख्सियतों में कैसे बांट सकता है, और मैं कहता हूं कि इंसान अपनी ज़ात में एक जहान है और इस जहान में पहाड़ और जंगल, समंदर और मैदान, बादल और सितारे, ये रेगिस्तान और दलदलें, गर्ज़ यह, क्या कुछ नहीं है।
ये चंद लम्हे, जब तुम मेरे सीने पर सिर रखे हुए बैठी रहीं, मेरी मुहब्बत का सबसे बड़ा इनाम था। तुमसे मेरे सारे मुतालबे इस नुक्ते पर पहुंचकर खत्म हो जाते हैं, क्योंकि इसके बाद जब मैंने तुम्हें बताया कि तुम्हारे लिए अफज़ल का पैग़ाम आया है, मगर तुम्हारे अब्बा जान इस पैग़ाम से खुश नहीं हैं, तो तुम तड़पकर उठ खड़ी हुई थीं। फिर तुम शरमाकर बैठ गई थीं कि और मैंने तुमसे पूछा था कि इस रिश्ते के बारे में तुम्हारी क्या राय है?
तुमने उठकर दरवाज़ा बंद कर दिया था और तुम ज़ार-ज़ार राने लगी थीं, और तुमने मेरी मिननत की थी कि मैं किसी को बताऊं नहीं कि तुम्हें अफज़ल से बेपनाह मुहब्बत है, और तुमने ही अफज़ल से कहा वह तुम्हारे अब्बा जान को बाकायदा पैग़ाम भिजवाए और अगर वह मना कर दें, तो तुम दोनों इकट्ठा मर जाओ।
यह चंद लम्हे, जो तुमने अपनी मुहब्बत के ज़िक्र में गुजारे, मेरी मुहब्बत की सबसे बड़ी खुशी
(very emotional) और सबसे कड़ी यातना है। आलिया। मैंने तुमसे मुहब्बत की है न। मैंने तुमसे बड़ी भरपूर, बड़ी अहमकाना मुहब्बत की है। यह उसी मुहब्बत का नतीजा है कि मैं तुम्हारी खातिर तुम्हारे खानदान से लड़ता रहा हूं।
मैंने जब वकार भाई को बताया कि तुम्हें अफज़ल के रिश्ते पर कोई एतराज़ नहीं है, तो वह आपे से बाहर हो गए और तुम्हें बेनुक्त सुनाने लगे। उन्होंने कहा, 'कि मैं ही जाकर तुम्हें बताऊं कि अफज़ल एक मामूली ग़रीब खानदान का एक आम-सा गोया औसत दर्जे का आदमी है और तुम दस हजार महीना पाने वाले एक अमीर आदमी की बेटी हो और तुम मध्य तबके की लड़कियों जैसा कोई न जज़्बाती....काम करती हो। उससे मोहब्बत करना छोड़ दो। भला मैं ऐसा कैसे कह सकता था? और मेरी इस मुहब्बत का तकाज़ा यह था कि मैं तुम्हारी मुहब्बत को हादसा न बनने दूं।'
आलिया, तुम्हें तो मालूम ही होगा कि इंसान कत्ल तक को छुपा सकता है, मगर अपनी मुस्कुराहट नहीं छुपा सकता। मुस्कुराहट सिर्फ होठों की मोहताज नहीं होती। होठों पर काबू पा लो तो, आंखें मुस्कुराने लगती है। आंखें झुका लो, तो चेहरे की रंगत मुस्कुराने लगती है।
सो, मैंने तुमसे कहा था कि वकार भाई नहीं मानते, मगर उन्हें मानना पड़ेगा, वरना अपनी बेटी के अंकल से भी हाथ धो लेने पड़ेंगे। मैंने तुम्हें मशविरा दिया था कि तुम साबित-कदम रहो और यह ज़िम्मेदारी मैं संभालता हूं कि तुम्हें अफज़ल की बीवी बनाकर ही दम लूंगा।
हैरान न हो, आलिया। मुहब्बत सिर्फ इंतकाम लेना ही तो नहीं सिखाती, मुहब्बत तो दरइसल मुहब्बत करना सिखाती है और मैं समझता हूं कि अब मैं तुम्हें अफज़ल से मुहब्बत निभाने में मदद दे रहा हूं, तो दरअसल तुमसे मुहब्बत कर रहा हूं। मैं जानता हूं, तुम इस वक्त मेरी हिमाकत पर मुस्कुरा रही हो, मगर आलिया, हिमाकत और मुहब्बत में थोड़ा-सा फर्क ज़रूर होता है। यह सलीके का फर्क है और इससे तुम्हें इनकार नहीं होना चाहिए कि अगरचे मैंने तुमसे अहमकाना मुहब्बत की है, मगर बड़े सलीके की मुहब्बत की है।
कई दिनों और झगड़ों और बहसों के बाद आज वकार भाई मान गए हैं। मुझे चाहिए था कि तुम्हें यह खुशखबरी फौरन पहुंचाता, मगर फिर मैंने सोचा, कि पहले तुम्हारे नाम यह खत लिख दूं। दरअसल आज मैं बहुत खुश हूं। आज मैंने तुमसे अपनी मुहब्बत इंतहा तक निभा दी है। मेरी सबसे बड़ी खुशी यह है कि तुम्हें खुश देख सकूं।
लोग इसे मुहब्बत का इम्तिहान कहेंगे, मैं इसे मुहब्बत की पहचान कहता हूं।
आलिया। मैंने तुम्हें हासिल करने के लिए तुमसे मुहब्बत नहीं की थी। मैंने तो तुमसे खाली-खुली मुहब्बत की। सिर्फ इसलिए कि तुम नाकाबिले-यकीन हद खुबसूरत हो, और इसलिए कि तुम्हारी आवाज़ की तरह तुम्हारी शख्सियत में एक गूंज-सी है। कभी एक लम्हे के लिए भी मेरे जे़हन में यह खयाल नहीं आया कि मैं तुमसे मुहब्बत नहीं कर रहा हूं, दुश्मनी कर रहा हूं। सो, अफज़ल के साथ तुम्हारे चले जाने के बाद मुझे वंचना का एहसास कतई नहीं सताएगा। जब मैं तुम्हारे साथ मुहब्बत किए जाऊंगा, तो वंचना कैसी?
लेखक
अहमद नदीम कासिमी
प्रसिद्ध उर्दू कवि, लेखक और पत्रकार
जन्म: 20 नवंबर, 1916, अविभाजित भारत
अवसान: 10 जूलाई, 2006 लाहौर पाकिस्तान